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*आभार-डब्ल्यूपीएस सिद्धू प्रोफेसर, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी*

उत्तर कोरिया के ताजा मिसाइल परीक्षण ने कई अनदेखे-अनजाने खतरों को जन्म दिया है। पहला- किम जोंग उन ने यह दिखा दिया कि वह अमेरिका की धरती पर परमाणु हथियारों के साथ हमला करने की क्षमता रखता है। दूसरे- इस ‘उपलब्धि’ ने रॉकेट मैन (अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दिया नाम) की कल्पना को वास्तविकता का जामा पहना दिया। तीसरे- उत्तर कोरिया चीन का ‘भस्मासुर’ साबित हुआ, जिसे चीन जान तो रहा है, मान नहीं रहा। अंतिम- ये कि किम की कारस्तानियों और वाशिंगटन की विरोधाभासी प्रतिक्रियाओं ने इस इलाके को परमाणु पाउडर बिछे एक ऐसे मैदान में तब्दील कर दिया है, जहां जान-बूझकर या अनजाने में अचानक उठी एक चिनगारी भी विनाशकारी साबित हो सकती है।

परमाणु हथियार से लैस और फितरत से भी खतरनाक उत्तर कोरिया को लेकर अमेरिका, चीन और दक्षिण कोरिया की चिंता समझी जा सकती है। दरअसल यह पूरे संकट का प्रतीक मात्र है। ताजा संकट तो महज उस विसंगति की नवीनतम और विस्तारित अभिव्यक्ति मात्र है, जिसके बीज 1950 के कोरिया युद्ध में तलाशे जा सकते हैं। युद्ध तो 1953 में युद्धविराम के साथ समाप्त हो गया, पर बिना किसी शांति समझौते के। यानी टकराव के बीज नष्ट नहीं हुए और यही मौजूदा तनाव की असल जड़ है। कोरियाई युद्ध के नतीजे के तौर पर स्वाभाविक रूप से दोनों कैंपों के अलग-अलग उद्देश्य बन चुके थे। 1971-72 के चीन-अमेरिका के बीच हुए समझौते और शीत युद्ध के खात्मे के बावजूद मतभेद समाप्त नहीं हुए और इसने पूर्वोत्तर एशिया में परमाणु चुनौतियों के समाधान की राह में रोड़े अटकाए। अमेरिका कोरियाई प्रायद्वीप में चीन-सोवियत धुरी को कमजोर करना, इलाके को परमाणु हथियारों से मुक्त रखना चाहता था। उसने एक परस्पर रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर कर, दक्षिण कोरिया में फौजें तैनात कर दीं और उन्हें परमाणु कवच दे दिया।

चीन-सोवियत संघ, खासकर बीजिंग का मकसद भी साफ था। पहला- कोरिया को एकजुट करने के अमेरिकी प्रयासों को धता बताना। दूसरे, उत्तर कोरिया में वंशानुगत कम्युनिस्ट शासन को स्वीकारते हुए उसे कायम रखना। तीसरे, अपने पहले दो उद्देश्यों की प्राप्ति तक प्रायद्वीप को परमाणु प्रसार से मुक्त रखना। तीसरी शर्त रखी ही इसलिए गई कि इससे दो बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति हो रही थी। नजीजतन, उत्तरी कोरिया ने सोवियत संघ और चीन के साथ 1961 में मैत्री व सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए। दोनों में सैन्य सहयोग और उत्तर कोरिया को परमाणु कवच देने की बात थी। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद रूस ने संधि तोड़ दी, हालांकि चीन और उत्तर कोरिया ने 2001 में बीस और वर्षों यानी 2021 तक के लिए संधि का नवीनीकरण कर लिया। प्योंगयांग के इरादे जल्द ही सामने आ गए और 2003 में उसने खुद को अलग कर 2006 में पहला परमाणु परीक्षण कर दिखाया।

उत्तर कोरिया का यह परमाणु प्रेम भी अनायास नहीं है। पहली बात- प्योंगयांग को अमेरिका पर भरोसा नहीं है और मानता है कि वह हर उस तानाशाही को खत्म करना चाहेगा, खासकर जिनके पास विनाशक हथियार नहीं हैं या इसे छोड़ चुके हैं। इराक के खिलाफ अमेरिकी पहल और गद्दाफी के तख्ता पलट में उसकी भूमिका ने इस धारणा को मजबूती दी। दूसरे, चीन भी कभी जाहिरा तौर पर, तो कभी अनजाने में उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम का समर्थन करता दिखाई दिया और उसके इसी रवैये न यह ‘परमाणु भस्मासुर’ पैदा कर दिया।

उत्तर कोरिया को अपनी करनी से रोकने की दिशा में चीन के सारे प्रयास विफल साबित हुए हैं। 2009 में टूट गई ‘छह दलीय वार्ता’और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के तमाम प्रतिबंध भी कुछ नहीं कर सके। अब एकमात्र तरीका यही समझ में आता है कि भू-राजनीतिक मामले में 1950 में अधूरी रह गई शर्तों को निपटारा किया जाए। इसके लिए अमेरिका, चीन, शायद उत्तर और दक्षिण कोरिया के साथ रूस को भी यथास्थिति कायम करने के लिए एक औपचारिक समझौता करना होगा। संभव है, उत्तर कोरिया का परमाणु हथियार प्रेम खत्म करने के लिए यह काफी न हो, लेकिन यह कम से कम परमाणु युद्ध की आशंका को तो रोक ही सकता है।
*(ये लेखक के अपने विचार हैं)*

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