(प्रसेनजीत बोस)

प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था को चिंताजनक स्थिति में बताने वाले आलोचकों पर हाल में जिस तरह फट पड़े उससे उनकी बेचैनी, जो शेखी पीछे छिपी थी, उसका पता चलता है। ऐसा होता है जब नीति-निर्माण बाजीमार-भाव का बंधक बन जाता है, ठोस आर्थिक आंकड़ों और बुनियादी कारकों के बजाय कोरी भावनाओं और अवधारणाओं पर टिक रहता है। भारतीय रिजर्व बैंक पहले ही मौजूदा वित्तीय वर्ष में वृद्धि दर के कम रहने जाने की भविष्यवाणी कर चुका है। केंद्रीय बैंक के मुताबिक, *वृद्धि दर 7.3% के कम होकर 6.7% रह जाएगी।* खरीफ के खाद्यान्न उत्पादन में कमी के अनुमान, जीएसटी से विनिर्माण क्षेत्रपर प्रतिकूल प्रभाव, निवेश गतिविधियों में सुधार न होने और उपभोक्ता और कारोबारी धारणा नरम रहने से 2017-18 की प्रथम तिमाही में समग्र वृद्धि के धीमा पड़ जाने के चलते केंद्रीय बैंक ने यह अनुमान जताया है। जिस दिन केंद्रीय बैंक ने अर्थव्यवस्था की यह धुंधली तस्वीर पेश की थी, उसी दिन को प्रधानमंत्री ने अपने ‘‘तय’ पेश करने को चुना। यह कुछनहीं बल्कि ‘‘खबरों में बने रहने की कवायद’ है।

मोदी ने दावा किया है कि यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान आठ मौकों पर जीडीपी की वृद्धि दर मौजूदा स्तर 5.7% (प्रथम तिमाही : 2017-18) से नीचे गई। यह तुलना बेतुकी है क्योंकि जनवरी, 2015 के बाद से ही जीडीपी के आकलन का तरीका बदल चुका है। इसलिए एनडीए और यूपीए के शासनकाल की तुलना ही इस लिहाज से बेमानी है। पुराने अनुमानों के मुताबिक, दरअसल, प्रथम तिमाही : 2012-13 और चौथी तिमाही : 2013-14 के मध्य की आठ तिमाहियों में जीडीपी की वृद्धि दर 4.3% से 5.2% के बीच रही। लेकिन नये अनुमानों के अनुसार उन आठ तिमाहियों की चार तिमाहियों में जीवीए में वृद्धि 5.7% से कहीं ज्यादा थी। 2011-12 की दूसरी तिमाही में यह 7% थी और 2013-14 की प्रथम और तीसरी तिमाही के दौरान 6.3% और 7.1% के बीच रही। तो क्या प्रधानमंत्री जीडीपी आकलनों की पुरानी श्रृंखला का उल्लेखकर रहे थे या जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडिशन) आकलनों की नईश्रृंखला का? यदि पुरानी श्रृंखला का जिक्र कर रहे थे तो जीडीपी की वृद्धि दर मौजूदा तिमाही में ही 5.7% से भी कम ठहरेगी। अगर वह नई श्रंखला के जीवीए वृद्धि संबंधी आकलनों का उल्लेख कर रहे थे तो कुछसाबित नहीं कर पाए। आकलन के भिन्न तरीकों के आधार पर दो आंकड़ों की गलत सांख्यिकीय तुलना करने के बजाय मोदी को नईआंकड़ा श्रृंखला के जीवीए वृद्धि संबंधी आंकड़ों पर ही ध्यान केंद्रित करना चाहिए था, जिन्हें उनके शासनकाल में तैयार किया गया है। दो तय उल्लेखनीय हैं : पहला, आज जीवीए की वृद्धि दर (प्रथम तिमाही : 2017-18 में 5.5%) उस दर (दूसरी तिमाही : 2014-15 में 8.5%) से काफी नीची है, जब मोदी से पद संभाला था। दूसरा, बीती पांच तिमाहियों में जीवीए की वृद्धि दर गिरी है। प्रथम तिमाही : 2016-17 में यह 7.5% थी, गिरकर प्रथम तिमाही : 2017-18 में5.6% रह गई। क्या यह आर्थिक शिथिलता नहीं है, तो क्या है? ऑटोमोबाइल्स की बिक्री और हवाईजहाज से यात्रा करने वालों के जो आंकड़े प्रधानमंत्री ने पेश किए हैं, वे समाज के खाते-पीते तबके की उपभोक्ता मांग से संबंधित हैं। लेकिन सतत आर्थिक वृद्धि निवेश चालित होती है। भारत में निवेश की दर, जो 2008 की नियंतण्र मंदी से पूर्व 40% के स्तर को छू गईथी, 2016-17 में गिरकर 30% के स्तर पर आ गई। एशिया की अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं तक में यह दर 37% से ज्यादा है। तो फिर, ‘‘सबसे तेज गति से विकास करती अर्थव्यवस्था’का दावा क्यों? वह भी उस सूरत में जब भारत के समतुल्य आर्थिक हैसियत वाले देशों में निवेश दर भारत की तुलना में ऊंची है। सच तो यह है कि वास्तविक निवेश वृद्धि धड़ाम से गिरी है। प्रथम तिमाही :2016-17 में यह 7.4% थी, तो चौथी तिमाही :2016-17 में -2.1% रह गई। प्रथम तिमाही:2017-18 में यह 1.6% थी। औद्योगिक ऋण में महीनावार वृद्धि अक्टूबर, 2016 से ही नकारात्मक बनी हुई है। विनिर्माण आईआईपी की वृद्धि में गिरावट रही। सीएसओ और आरबीआई के आंकड़ों से पता चलता है कि हाल के समय में देश में निजी निवेश को खासा झटका लगा है। सीएमआईई कैपेक्स के आंकड़ों के मुताबिक, रुकी पड़ी परियोजनाओं की लागत बीती पांच तिमाहियों में वृद्धि हुईहै। प्रधानमंत्री 400 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार के बारे में डंका पीटने के अंदाज में बताया है। तो फिर इस बात का भी जिक्र कर दिया होता कि आज भारत का बाह्य ऋण 485 बिलियन डॉलर से ज्यादा का है। आरबीआईपहले ही निर्यात की तुलना में आयात के तेजी से बढ़ने पर अपनी चिंता से अवगत करा चुका है। साथ ही, हाल के समय में विदेशी पूंजी आगम में ऋण के बढ़ते अनुपात के बारे में भी कह चुका है। चालू खाते की चौड़ी होती खाई को विदेशी ऋण से पाटने का ही नतीजा था कि यूपीए के शासनकाल में जुलाई-अगस्त, 2013 में भारतीय अर्थव्यवस्था भुगतान

संतुलन के संकट में फंस गईथी। जाहिर है कि इस मोर्चे पर कोताही से भारत का संकट बढ़ सकता है। दरअसल, प्रधानमंत्री नीतिगत दुविधा के शिकार हैं। जरूरी है कि प्रति-चक्रीय वित्तीय नीति अपनाईजाए। पेट्रोल और डीजल पर एक्साइज शुल्क में पिछले दिनों 2 रुपये की कटौती इसी सही दिशा में उठाया गया कदम है। हालांकि यह आधे मन और अधूरे तरीके से उठाया गया है। बहरहाल, मोदी विमुद्रीकरण, जीएसटी, डिजिटलाइजेशन और नकदीरहित अर्थव्यवस्था के शोर-शराबे में ही भ्रमित बने हुए हैं, और उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि उनका राजनीतिक भविष्य अर्थव्यवस्था से खिलवाड़ के साथही डूब भी सकता है।(RS)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *