School of Economics | आरती को सचमुच न्याय मिलेगा
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आरती को सचमुच न्याय मिलेगा

*⭕️क्या कभी किसी आरती को सचमुच न्याय मिलेगा*

बीस साल पहले बाल मजदूरी के खिलाफ विश्वव्यापी यात्रा ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर का आयोजन हुआ था। तब 103 देशों से गुजरकर और 80 हजार किलोमीटर लंबी दूरी तय कर यह यात्रा जेनेवा के संयुक्त राष्ट्र संघ भवन में पूरी हुई थी। तब पहली बार इस भवन के दरवाजे दुनिया के सबसे शोषित, पीड़ित और उपेक्षित बाल मजदूरों के लिए खोले गए थे। तब इसके गलियारों में नन्हे हाथों में औजार नहीं, खिलौने दो… किताबें दो…, बाल मजदूरी बंद करो…, हर बच्चे को शिक्षा दो जैसे नारे गूंजे थे। तब उस बाल श्रम विरोधी विश्व यात्रा में तकरीबन डेढ़ करोड़ लोगों ने शामिल होकर एक नए अंतरराष्ट्रीय कानून की मांग की थी। दुनिया की सभी सरकारों ने हमारी मांग मानकर बदतर तरह की बाल मजदूरी के खिलाफ एक कानून पारित किया था, जिसे आईएलओ कन्वेंशन-182 के नाम से जाना जाता है। इसी उपलक्ष्य में 12 जून को विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस मनाया जाता है। हमारी यात्रा के अभिनंदन में तब आईएलओ मुख्यालय पर एक स्मारक भी स्थापित किया गया था।

दो दशकों के बाद, पिछले हफ्ते उसी स्मारक के सामने विश्व यात्रा के यात्रियों का खड़ा होना, एक बहुत ही भावुक क्षण था। मेरे मन में बड़े मिश्रित भाव उमड़ रहे थे। मुझे सुखद अनुभूति हो रही थी कि हमारे इस प्रयास से इन दो दशकों में दुनिया में बाल मजदूरों की तादाद 26 करोड़ से घटकर तकरीबन 15 करोड़ रह गई है। भारत में सरकारी आंकड़ों के हिसाब से इस दौरान बाल मजदूर सवा करोड़ से घटकर 45 लाख रह गए हैं। अब बाल मजदूरी एक वैश्विक मुद्दा बन चुकी है। यही वजह है कि सरकारें, उद्योग जगत और सामाजिक संगठन आज विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस मना रहे हैं। जब मैं इसके लिए गर्व महसूस कर रहा था, वहीं दूसरी ओर मैं खेत-खलिहानों, पत्थर खदानों, ईंट भट्ठों, फैक्टरियों व घरों के अंदर आज भी गुलामी का जीवन जी रहे बच्चों को याद करके दुखी और शर्मिंदा हो रहा था। तब मन ही मन झारखंड की बेटी आरती (नाम परिवर्तित) को याद करके मेरा सिर शर्म से झुका जा रहा था। मेरे जिनेवा रवाना होने से पहले दिल्ली में 15 साल की इस मासूम बच्ची की लाश 12 टुकड़ों में बरामद हुई थी। उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह अपनी मजदूरी के पैसे मांग रही थी। दिल्ली में मजदूरी करने वाले हजारों बच्चों की तरह उसे भी एक दलाल चुराकर यहां लाया था। आरती को भी अमीरों के घरों में झाड़ू-पोंछा, बरतन और रसोई जैसे कामों में लगाया गया था। तीन साल तक उसे गुलाम बनाकर रखा गया और उसे कोई वेतन नहीं दिया गया था। जिनेवा में मंच पर बैठे-बैठे मेरी शर्मिंदगी गुस्से में बदल गई। मैं अब भी गुस्से में हूं। इंडिया गेट पर मोमबत्तियां लेकर खड़े होने वाले सामाजिक सरोकारी आरती के मामले में कहीं नजर नहीं आए।

आरती की नृशंस हत्या, हमारे राष्ट्र-राज्य की संस्थाओं के निकम्मेपन का भी सुबूत है। तीन साल पहले 12 साल की इस बच्ची को कानूनी तौर पर स्कूल में होना चाहिए था। वह पूरी तरह मुफ्त पढ़ाई, मिड-डे मील और लड़कियों को मिलने वाले वजीफे व दूसरी सुविधाओं की हकदार थी। लेकिन सरकारी तंत्र ने उसे धोखा दिया। आरती को चुराकर दिल्ली तक लेकर आने वाले बाल दुव्र्यापारियों (ट्रैफिकर) की कोई रोक-टोक क्यों नहीं हुई? जिन अमीर, शिक्षित और सभ्य परिवारों ने बच्ची को बिना मजदूरी दिए नौकरानी बनाए रखा, क्या पुलिस और श्रम विभाग की पहुंच उनके गिरेबान तक नहीं है? आखिर क्यों ऐसे लोग कानून से नहीं डरते? सवाल यह भी है कि क्या इसके लिए देश में पर्याप्त संख्या में अदालतें और जज हैं? पिछले साल हमारे देश में बाल और किशोर मजदूरी के खिलाफ कानून बना। उसमें 15 से 18 साल की उम्र तक खतरनाक उद्योगों में बाल मजदूरी पर रोक लगा दी गई है। लेकिन इसमें घरेलू बाल श्रम शामिल नहीं है। आज मैं आरती की घटना की मार्फत ये सवाल इसलिए उठा रहा हूं, ताकि आप भी कदम-दर-कदम तंत्र की विफलता पर सवाल उठा सकें। बचपन को सुरक्षित बनाकर ही हम भारत को सुरक्षित बना सकते हैं।

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