आरबीआई बनाम सरकार
(अनिल उपाध्याय)

भारत एवं अमेरिका के घटनाक्रमों में आज तक इतनी समानता कभी नजर नहीं आई, जितनी कि इस समय नजर आ रही है। यह समानता आतंकवाद को लेकर नहीं है, और न ही दो बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को लेकर है। यह समानता अमेरिका के केंद्रीय बैंक और भारत के केंद्रीय बैंक के सरकार से संबंधों को लेकर है। अमेरिका में ‘‘फेडरल रिजर्व’ के चेयरमैन पॉवेल राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मन की बात को नहीं सुन रहे हैं। इधर, भारत में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर अपने मन की कर रहे हैं, और सरकार के मन की बात नहीं सुन रहे हैं। हाल ही में डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने भाषण में आरबीआई की स्वतंत्रता को लेकर कई सवाल उठाए थे। शायद इससे पहले उन्हें कम लोग जानते थे। यदि कुछ तनाव हो भी तो उसको प्राइवेट मंत्रणा द्वारा भी सुलझाया जा सकता था। इस तरह का संबोधन एक डिप्टी द्वारा वैसे भी उचित नहीं, जहां रिजर्व बैंक के सरकार से संबंधों की चर्चा हो। वह भी उस समय में जब एक अन्य महत्त्वपूर्ण संस्था से सरकार के संबंधों पर राजनैतिक टीका-टिप्पणी हो रही हो। यहीं से सरकार के साथ आरबीआई की तनातनी सार्वजनिक हुई।

इस समय तनाव के जो दो प्रमुख मुद्दे नजर आ रहे हैं, वह हैं-सरकार द्वारा पेमेंट रेग्युलेटर अलग से बनाए जाने की कवायद और बैंकों पर हाल में लगाए गए अंकुश। सरकार का अपना मत हो सकता है। सरकार को भी अपनी नीतियों से आरबीआई को अवगत कराए जाने का हक है, और अपनी नीतियों को बनाते हुए केंद्रीय बैंक को उनका संज्ञान अवश्य लेना चाहिए। दोनों में मतैक्य आवश्यक है। दोनों का एक पेज पर होना जरूरी है। यही समस्या अमेरिका में भी है। फेडरल रिजर्व लगातार चौथी बार ब्याज दरें बढ़ाने के संकेत दे रहा है।

कुछ जाने-माने विचारक मानते हैं कि फेडरल रिजर्व की स्वायत्तता का उपयोग डोनाल्ड ट्रंप को अपदस्थ करने की कोशिश भी हो सकती है। प्रकारांतर से मोदी सरकार को भी आरबीआई से खतरा महसूस हो रहा है। मेरे विचार से आरबीआई और सरकार के मध्य अन्य कई और कारण भी हैं, जो इस तनाव के रूप में लक्षित हुए हैं। ये कारण सार्वजनिक तो नहीं हुए हैं, मगर हो सकता है कि इन बातों का भी असर हुआ हो। उन बातों में से एक कोटक महिंद्रा बैंक में प्रोमोटर की हिस्सेदारी को घटाने के लिए प्रस्तावित बांड इश्यू को अनुमति दिया जाना हो सकता है। बड़ी अजीब स्थिति है कि आईएलएफएस जैसे बड़े घोटाले को संभालने के लिए उदय कोटक की सेवाएं ली जाएं और उन्हीं के प्रस्तावों को संदेह से देखा जाए। न केवल यह, बल्कि दो बड़े माइक्रो फाइनेंस उपक्रमों को ‘‘रिवर्स मर्जर’ की अनुमति न देकर उन्हें अपनी बैंकिंग सेवाओं के लिए आईपीओ की बाध्यता को लागू करना। ये समस्त बातें व्यवसाय हेतु व्यावसायिक निर्णयों में बाधा डालना अधिक प्रतीत हो रही हैं। रिजर्व बैंक के पास इस संदर्भ में अपने वैध तर्क हो सकते हैं। मगर यह स्पष्ट है कि इस संबंध में उसकी कोई बात सरकार से नहीं हुई है।

वित्तीय समावेशन एक सामाजिक एवं आर्थिक विषय से अधिक एक राजनैतिक मुद्दा भी है। रूरल इलाके वर्तमान सरकार के लिए इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं, और माइक्रो फाइनेंस कंपनियों का उसमें बहुत महती योगदान रहा है। रिजर्व बैंक के निर्णयों से स्टॉक मार्केट में इन कंपनियों की जोरदार पिटाई हुई है, और वह पूंजी बाजार से कैपिटल लेने लायक नहीं बची हैं। जिस सेक्टर को मोदी सरकार से इनाम की दरकार थी, वह सजा पा रहा है। यह बात भी सरकार की चिंता बढ़ाने वाली और रिजर्व बैंक को अपनी नाराजगी से अवगत करानी जरूरी थी। इन्हीं सब बातों के मद्देनजर कहीं न कहीं सरकार की नींद डोनाल्ड ट्रंप स्टाइल में उड़ी है। डोनाल्ड ट्रंप तो एक ट्वीट करके वह सब हासिल कर सकते हैं, जो कि वित्त मंत्री को आरबीआई एक्ट की स्पेशल पॉवर इस्तेमाल करके करनी पड़ी। आज तक कभी भी सरकार को सेक्शन 7 को इस्तेमाल करने की आवश्यकता नहीं पड़ी थी। मगर ध्यान देने वाली बात है कि इसका प्रावधान था। इस प्रावधान का उपयोग अपने आप में इस बात का संकेत है कि आरबीआई पर्याप्त रूप से स्वतंत्र है, और कठपुतली नहीं है।

एक अन्य समस्या बैंकों को ‘‘त्वरित सुधारात्मक एक्शन’ द्वारा नियंत्रित करने को लेकर भी है। सरकार का कहीं न कहीं ऐसा मानना है कि आरबीआई का यह निर्णय गलत साबित हुआ है। इसका उल्टा असर हुआ है। अगर बैंक ऋण देने में ही असमर्थ रहें। नई शाखाएं न खोल पाएं। भर्ती न कर पाएं तो वो लाभ कैसे कमा पाएंगे? तुलनात्मक रूप से उनका एनपीए बढ़ता ही जाएगा। अब जरा कोई रिजर्व बैंक से पूछे कि उसने जिस अधिकार से ग्यारह सरकारी बैंकों की स्वायत्तता छीनी अगर उसी अधिकार का प्रयोग सरकार उस पर करे तो? क्या रिजर्व बैंक सबसे ऊपर है? सबसे सर्वश्रेष्ठ है? लगता है कि रिजर्व बैंक खुद को संप्रभुता से भी ऊपर मान कर चल रहा है। यह बात लोकतांत्रिक व्यवस्था में उचित नहीं। सारे ज्ञानी रिजर्व बैंक में ही भरे पड़े हैं क्या? गवर्नर साहब को और विशेष तौर पर डिप्टी गवर्नर साहब को यह समझना होगा कि भारत अमेरिका नहीं है, और न ही वह पॉवेल हैं। भारत में सामाजिक ऋण व्यवस्था की आवश्यकता है। इसके लिए सरकारी बैंक एवं माइक्रो फाइनेंस कंपनियां जरूरी हैं। शायद यही संकेत वित्त मंत्री ने गवर्नर को अपनी मुलाकात में दिए होंगे।

जनता सरकार को अपने कल्याण हेतु चुनती है। रिजर्व बैंक जनता की भावनाओं का संरक्षक नहीं है। एक रेग्युलेटर मात्र है। जनता के कल्याण के प्रति सरकार उत्तरदायी है न कि रिजर्व बैंक। रिजर्व बैंक को अपने निर्णयों में चुनी हुई सरकार के प्रति जनता की अपेक्षाओं को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए। विश्व में ट्रेडवॉर धीरे-धीरे गहराता जा रहा है। किसी भी युद्ध में सेना और सरकार अगर एकमत न हों तो देश की समस्त सुरक्षा एवं संप्रभुता खतरे में पड़ सकती है। मिलिट्री युद्ध में सेनाध्यक्ष एवं आर्थिक युद्ध के मौसम में रिजर्व बैंक के गवर्नर के बीच ही अगर संवाद न हो तो काफी खतरनाक स्थिति ही कही जाएगी। सरकार ने अपने अधिकार का प्रयोग कर रिजर्व बैंक से संवाद स्थापित किया। यह सुखद स्थिति तो नहीं मगर आवश्यक अवश्य है।

आज उदारवाद से संरक्षणवाद की ओर विश्व जा रहा है। ऐसे में रिजर्व बैंक को विदेशी शिक्षा से प्राप्त अपनी बुद्धि के अलावा ग्रामीण क्षेत्रों से अपने सीधे अनुभवों को स्थापित करना होगा। समस्त आर्थिक शक्ति ‘‘बॉटम ऑफ पिरामिड’ में है। इस तय को जमीन से जुड़े राजनेता अच्छे से समझते हैं। रिजर्व बैंक अहंकार त्याग कर सरकार व राजनेताओं से बातचीत कर उनके स्वदेशी विचारों को निर्णयों में समाहित करना ही चाहिए।(RS)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *