हाल ही में सरकार द्वारा आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन किया गया है, जो महत्त्वपूर्ण आर्थिक मामलों में सरकार को सलाह देने के साथ-साथ अपने विचारों से अवगत भी कराएगी।
हालाँकि, विशेषज्ञों का मानना है कि नीति आयोग के सदस्य विवेक देबरॉय की अध्यक्षता में आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन संभवत: देर से उठाया गया कदम है।
वृद्धि दर में गिरावट, नोटबंदी और जीएसटी के नकारात्मक प्रभावों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था पर संकट के बदल मंडरा रहे हैं, ऐसे में आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन एक स्वागत योग्य कदम है।
लेकिन, डर यह है कि कहीं नीति आयोग और आर्थिक सलाहकार परिषद की भूमिकाओं में दोहराव की स्थिति उत्पन्न न हो जाए? इस संबंध में चर्चा करने से पहले देख लेते हैं कि आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन क्यों किया गया और यह किस प्रकार से प्रभावी होगी?
क्यों किया गया आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन?
आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन इसलिये किया गया है, क्योंकि सरकार को लगातार आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है और वे चुनौतियाँ हैं:
विकास की धीमी रफ्तार।
1 मुद्रास्फीति में वृद्धि की संभावना।
2 राजस्व में कमी आने की आशंका।
3 चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को लक्षित दायरे के भीतर रखने की चुनौती।
4 निर्यात में गिरावट।
5 चालू खाता घाटे में बढ़ोतरी।
5वैश्विक परिवेश में बदलाव के कारण भारतीय रुपए पर दबाव।
क्या होगा प्रभाव?
दरअसल, अभी तक आर्थिक मामलों में सरकार पूरी तरह से वित्त मंत्रालय पर निर्भर रही है, लेकिन परिषद के वजूद में आने के बाद इस निर्भरता में गुणात्मक बदलाव आएंगे।
परिषद बनने से आर्थिक नीतियों को तय करने में लोकसेवकों के प्रभाव और अर्थशास्त्रियों की राय के बीच आवश्यक संतुलन भी स्थापित हो सकेगा।
सरकार के कार्यकाल में पहली बार अर्थशास्त्रियों को आर्थिक मामले तय करने में अहमियत मिलने की संभावना है और इससे होगा यह कि उनकी राय को लोकसेवक आसानी से खारिज़ भी नहीं कर पाएंगे। अतः यह फैसला स्वागत योग्य है।
कैसे अधिक प्रभावी हो सकती यह परिषद?
आर्थिक घटनाओं का स्वतंत्र आकलन और उसके लिये ज़रूरी नीतिगत कदमों के बारे में स्वतंत्र परामर्श देना इस परिषद की प्रभावकारिता और विश्वसनीयता तय करने में प्रमुख कारक होगा।
इसे असरदार बनाने में इस पहलू का भी खासा योगदान होगा कि सरकार का इस परिषद के अध्यक्ष और उसके सदस्यों के प्रति कितना भरोसा बना रहता है।
विदित हो कि अगर पिछली सरकारों के दौरान गठित सलाहकार परिषदें असरदार और भरोसेमंद तरीके से काम कर पाई थीं तो इसकी वज़ह यह थी कि परिषदों के अध्यक्ष रहे सुखमय चक्रवर्ती, सुरेश तेंडुलकर या सी. रंगराजन सभी को तत्कालीन सरकारों की ओर से पूरी स्वतंत्रता मिली थी।
अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिये आर्थिक सलाहकार परिषद जैसी संस्था का गठन कर देना ही काफी नहीं है, इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि उसे काम करने की आज़ादी मिले और उसके सुझावों पर ध्यान दिया जाए।
नीति आयोग की भूमिका पर सवाल क्यों ?
परिषद के गठन के बाद नीति आयोग की भूमिका पर भी अहम सवाल खड़ा होता है। क्या आयोग को नए मॉडल पर काम करना होगा? क्योंकि अब सरकार को आर्थिक सलाह देने के लिये एक विशेषज्ञ संस्था बन चुकी है।
नीति आयोग के पास सरकार को राष्ट्रीय एजेंडा का प्रारूप सौंपने, राज्यों की विकास संभावनाओं का दोहन करने में उनकी मदद करने, समावेशी विकास सुनिश्चित करने और अंतर-विभागीय एवं अंतर-क्षेत्रीय मुद्दों का निपटारा कर विकास एजेंडे को लागू करने में मदद देने का दायित्व है।
विदित हो कि आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देबरॉय नीति आयोग के भी सदस्य हैं, वहीं इसके सदस्य-सचिव रतन वाटल अब भी नीति आयोग के प्रमुख सलाहकार हैं। ऐसे में संभव है कि नीति आयोग और आर्थिक सलाहकार परिषद दोनों ही एक-दूसरे के कार्यों को लेकर असमंजस की स्थिति में रहेंगे।
निष्कर्ष
दरअसल, आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा प्रशासनिक एवं बजट संबंधी उद्देश्यों के लिये योजना आयोग पहले एक नोडल एजेंसी का कार्य करता था, लेकिन दोनों की भूमिकाओं में कोई दोहराव नहीं होता था।
आर्थिक सलाहकार परिषद अब भी नीति आयोग का इस्तेमाल अपनी नोडल एजेंसी के तौर पर कर सकती है, लेकिन भ्रम और टकराव से बचने के लिये इसके अध्यक्ष एवं सदस्य सचिव की दोहरी भूमिकाओं पर भी गौर करना चाहिये।
साथ ही सरकार को आयोग के दायित्यों में स्पष्टता लानी चाहिये, ताकि वह राज्यों के विकास, व्यापक विकास के एजेंडे और परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों की निगरानी पर अपना ध्यान केंद्रित कर सके।