उच्च शिक्षा आयोग : क्या नए आयोग से पूरे होंगे उद्देश्य
(रिजवान अंसारी)
(दैनिक जागरण से आभार सहित )
हाल ही में भारत सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की जगह भारतीय उच्च शिक्षा आयोग बनाने की बात कही है। पिछले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के लिए जारी ड्राफ्ट पर लोगों को राय देने के लिए भी कहा था। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने तथा फर्जी विश्वविद्यालयों पर रोक लगाने के मकसद से उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना करने का फैसला लिया गया है। ऐसे समय में जब कौशल निर्माण तथा शैक्षिक अवसरों तक पहुंच होना बेहद जरूरी है, तब केंद्र सरकार की इस पहल से पड़ने वाले संभावित प्रभाव पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। सवाल है कि दोनों आयोगों में क्या अंतर है।
दोनों आयोगों के बीच फर्क : दरअसल केंद्र सरकार की नई पहल भारतीय उच्च शिक्षा आयोग और मौजूदा यूजीसी में कई अंतर हैं। इन्हीं की वजह से शिक्षा के जानकारों द्वारा सरकार की इस पहल पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। सबसे पहले अगर वित्तीय शक्ति की बात करें तो फिलहाल विश्वविद्यालयों को फंड जारी करने का फैसला यूजीसी करता है। लेकिन उच्च शिक्षा आयोग के पास यह शक्ति रहेगी या नहीं रहेगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है। पहले खबर आई थी कि वित्तीय शक्तियां मानव संसाधन विकास मंत्रालय अपने पास रखना चाहता है। लेकिन बाद में कहा गया कि इस मामले में अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है। दूसरा, अकादमिक शक्तियों का जहां तक सवाल है, विश्वविद्यालयों में परीक्षा, रिसर्च और शिक्षा के स्तर को बनाए रखने की जिम्मेदारी अब तक यूजीसी की थी। लेकिन इस नए आयोग के जरिये सरकार विश्वविद्यालयों की अकादमिक शक्तियों को अपने हाथों में लेने की तैयारी में है जिसमें वह विश्वविद्यालयों में पढ़ाई से लेकर परीक्षा तक के स्तर को तय कर सकेगी।
तीसरा अंतर किसी शिक्षण संस्थान की वित्तीय जरूरतों या मानकों का आकलन करने के लिए यूजीसी समय-समय पर निरीक्षण करता है। लेकिन नई व्यवस्था में आयोग कोई निरीक्षण नहीं करेगा। बल्कि आयोग उच्च शिक्षण संस्थानों के अकादमिक प्रदर्शन के लिए कुछ मानदंड निर्धारित करेगा। इन मानदंडों के आधार पर ही आयोग किसी संस्थान की स्थिति का मूल्यांकन करेगा। चौथा फर्क सबसे अहम है और वह यह कि वर्तमान में यूजीसी नियमों के उल्लंघन के कारण विश्वविद्यालयों को मिलने वाले अनुदान में कटौती करता है या अनुदान देना बंद कर देता है या फिर उनकी मान्यता खत्म कर देता है। लेकिन नई व्यवस्था में आयोग को यह शक्ति दी गई है कि वह संस्थानों पर जुर्माना लगा सकता है। उच्च शिक्षा आयोग के पास यह शक्ति भी होगी कि वह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान न कर पाने वाले शिक्षण संस्थानों को बंद करने की भी सिफारिश कर सकेगा।
नए आयोग की जरूरत क्यों :- वर्ष 1950 में देश में महज 20 विश्वविद्यालय थे, जिनकी संख्या 2018 में बढ़ कर लगभग 850 तक पहुंच गई। कॉलेजों संख्या 40 हजार को पार कर चुकी है। शैक्षिक संस्थाओं की संख्या बढ़ने से यूजीसी पर बोझ बढ़ गया है।
वर्तमान में शैक्षिक संस्थाओं को फंड जारी करने की सिफारिश यूजीसी ही करता है। साथ ही इन पर निगरानी की जिम्मेदारी भी यूजीसी की होती है। लेकिन यहां सबसे बड़ी चुनौती सिस्टम में पारदर्शिता लाने की है। सच तो यह है कि कार्यपालिका और विधायिका की तर्ज पर फंडिंग और निगरानी का कार्य स्वतंत्र संस्थाओं के द्वारा किए जाने से अधिक पारदर्शिता आने की उम्मीद की जाती है। लिहाजा मानव संसाधन विकास मंत्रलय एक ऐसी व्यवस्था विकसित करने की योजना बना रहा है जिसमें इन दोनों ही कार्यो को किसी एक संस्था को न करना पड़े।
मौजूदा वक्त में हम ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था यानी नॉलेज बेस्ड इकोनॉमी में काम कर रहे हैं और इसके लिए जिस तरह के श्रमबल की जरूरत है उसके अनुरूप हम अपनी शिक्षा व्यवस्था को अभी तक नहीं ढाल सके हैं। ऐसी कई रिपोर्ट्स आ चुकी हैं जो बताती हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों से अधिकतर ऐसे छात्र निकल रहे हैं जो रोजगार हासिल करने में सक्षम नहीं हैं। हमारे विश्वविद्यालयों और कॉलेजों का उद्योगों से बेहतर तालमेल नहीं है। भारत का कोई भी शैक्षिक संस्थान विश्व स्तर के अनुरूप नहीं है। बेहतर संस्थानों की रैंकिंग में भारत का प्रदर्शन दोयम दर्जे का रहता है। हाल में विश्व के शीर्ष 200 संस्थानों की सूची में भारत के महज तीन संस्थानों को जगह मिल पाई। उल्लेखनीय है कि इन संस्थानों में आइआइटी और आइआइएससी जैसे संस्थान होते हैं। विश्वविद्यालयों में तो शीर्ष 200 में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय की जगह नहीं बन पाती है। इससे यूजीसी की निगरानी प्रणाली पर सवालिया निशान लगते रहे हैं। इन्हीं वजहों से नए शिक्षा आयोग की जरूरत महसूस की गई।
क्यों दिख रही समस्या :- दरअसल शिक्षण संस्थानों के लिए सुधारात्मक उपाय सोचने की सरकार की पहल स्वागत योग्य है। लेकिन नए मसौदे में कुछ ऐसी भी बातें हैं जो सरकार की मंशा पर ही सवाल उठाने जैसा है। या फिर कहें कि सरकार उन प्रावधानों के परिणामों से अभी वाकिफ नहीं है। सबसे पहली समस्या की बात करें तो सरकार का दावा है कि यह नया मसौदा न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन के सिद्धांत पर आधारित है। लेकिन नए आयोग की संरचना का स्वरूप और इसकी सलाहकार परिषद पर गौर करने पर ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता। एकेडमिक निगरानी को छोड़कर ज्यादातर विषयों पर सरकार का हस्तक्षेप यह दर्शाता है कि नए आयोग के पास फैसले लेने की ज्यादा शक्ति होगी। लिहाजा सरकार के इस मसौदे से अधिकतम सरकार वाला सिद्धांत ही प्रदर्शित होता है।
दूसरी समस्या है कि नए मसौदे में एक तरफ संस्थानों को अधिक स्वायत्तता देने की बात कही गई है। लेकिन दूसरी तरफ यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी भी कोर्स को शुरू करने से पहले विश्वविद्यालयों को उच्च शिक्षा आयोग से अनुमति लेनी होगी। जाहिर है इससे विश्वविद्यालयों की शिक्षा समिति की स्वायत्तता में कमी आ जाएगी। साथ ही यह भी प्रावधान है कि अगर कोई विश्वविद्यालय या संस्थान आयोग के नियमों के उल्लंघन का दोषी पाया जाता है तो ऐसी स्थिति में उसे जुर्माना या जेल तक की सजा दी जाएगी। लिहाजा इससे भी संस्थानों के अकादमिक शक्तियों के छीने जाने का खतरा बढ़ गया है।
इस मसौदे में तीस्गरी समस्या यह है कि संस्थानों का अकादमिक प्रदर्शन, शिक्षकों का प्रशिक्षण, संस्थानों में सीखने की क्षमता वगैरह की निगरानी कर सरकार पढ़ाई के स्तर को बेहतर करना चाहती है। लेकिन माना जा रहा है कि ऐसा करना विश्वविद्यालयों को ओवर रेगुलेट करने जैसा होगा। लिहाजा यह आशंका है कि छोटी-छोटी बातों की निगरानी करने पर इनोवेशन के रास्ते बंद हो जाएंगे और भविष्य में संस्थान कुछ नया करने के लिए तैयार नहीं होंगे।
अगर अगली समस्या की बात करें तो सरकार द्वारा इस नए आयोग के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को पद से हटाने के लिए कई आधारों का जिक्र किया गया है। इनमें एक आधार उनके द्वारा किया गया नैतिक अनाचार भी है। लिहाजा एक ऐसा आधार जिसमें आयोग की आंतरिक समिति को अपने स्तर पर समाधान कर लेना चाहिए, उसमें सरकार के हस्तक्षेप को आयोग की स्वायत्तता छीनने जैसा समझा जा रहा है। आयोग की स्वायत्तता में कमी को अप्रत्यक्ष रूप से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता में कमी के रूप में देखा जा रहा है। एक और समस्या जो सबसे अहम मानी जा रही है वह राज्य से संबंधित है। नए मसौदे के प्रारूप को शिक्षा के मामले में राज्य सरकारों की भूमिका को कम करने के रूप में भी देखा जा रहा है।
ऐसा माना जा रहा है कि यूजीसी के मुकाबले उच्च शिक्षा आयोग में केंद्र सरकार की बढ़ती दखलअंदाजी से राज्यों के अधिकार कम हो सकते हैं। हालांकि, नए मसौदे में राज्यों को सलाहकार परिषद के प्रतिनिधित्व का कार्य दिया गया है ताकि इसे संघीय ढांचे का रूप दिया जा सके। लेकिन राज्यों का यह भी मानना है कि नई व्यवस्था से उच्च शिक्षा के सामने कई चुनौतियां पैदा होंगी जो छात्रों के लिए हितकारी नहीं होगा। लिहाजा केंद्र और राज्यों के बीच रस्साकशी का दौर चल रहा है।