(राजकिशोर)

इस समय चीन की जनसंख्या एक अरब 66 करोड़ है और भारत की जनसंख्या है एक अरब 36 करोड़। अनुमान किया जाता है कि 2050 तक भारत की जनसंख्या चीन से ज्यादा हो जाएगी। उस समय तक भारत में 1.66 अरब लोग रह रहे होंगे और चीन में 1.33 अरब। जाहिर है, अब इस अनुमान में कुछ फर्क आ जाएगा, क्योंकि चीन ने एक संतान की नीति को छोड़ देने का फैसला किया है। चीन की सरकार का कहना है कि एक संतान नीति से चीन में अधेड़ लोगों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी थी, जबकि हमें युवा लोगों की ज्यादा जरूरत है। कहने की जरूरत नहीं कि चीन की जनसंख्या नीति में इस करवट से चीन की आबादी में बढ़ोतरी की रफ्तार को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन उसे विश्वास है कि युवा जनसंख्या में वृद्धि से इतनी भरपाई हो जाएगी कि चीन की जनता का जीवन स्तर न गिरे।

भारत की जनसंख्या वृद्धि की दर में क्रमश: कमी आ रही है। इसके वावजूद, मैं नहीं समझता कि 2050 में भारत की जनसंख्या चीन से कम होने वाली है। क्योंकि चीन के पास एक जनसंख्या नीति है और हमारे पास कोई जनसंख्या नीति नहीं है। हमारे पास जनसंख्या नीति क्यों नहीं है? क्योंकि हम अपनी प्राय: सभी नीतियों में पश्चिम यूरोप और अमेरिका की नीतियों का अनुकरण करते हैं। इन अंचलों में जनसंख्या नीति की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वहां की आबादी न बढ़ रही है और न घट रही है। बल्कि घट ही रही है, जिसकी क्षति पूर्ति एशिया और अफ्रीका से आव्रजन से हो जा रही है। वहां की समस्या यह होने वाली है कि उनकी जनसंख्या का सांस्कृतिक स्वरूप बदल रहा है और एक दिन ऐसा आ सकता है जब जर्मनी में गैर-जर्मन और फ्रांस में गैर-फ्रेंच लोगी की संख्या बढ़ जाए।

भारत में कुछ लोगों का ख्याल है कि वह समय बहुत दूर नहीं है जब मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो जाएगी। इसी अंदेशे से कई बार हिंदुओं को प्रेरणा दी जाती है कि वे ज्यादा बच्चे पैदा करें, लेकिन अभी तक इस अंदेशे का कोई तार्किक आधार सामने नहीं आया है। प्रमाण बल्कि उलटे हैं। मगर पश्चिमी देशों के लिए यह समस्या वास्तविक है, क्योंकि वहां स्थानीय आबादी स्थिर है या कम हो रही है तथा बाहर से आने वालों की संख्या बढ़ रही है। स्पष्टत: जनसंख्या का मामला व्यक्तिगत नहीं है कि कौन कितने बच्चे पैदा करना चाहता है। इसका संबंध राष्ट्रीय संसाधनों से भी है। दूसरे महायुद्ध के बाद सोवियत संघ में ज्यादा बच्चे पैदा करो का अभियान चलाया गया था और जो स्त्री जितने ज्यादा बच्चे पैदा करती थी, उसका उतना ही सम्मान किया जाता है। ऐसी माताओं को पुरस्कृत भी किया जाता था, ताकि संतान वृद्धि की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सके। अब इस क्षेत्र से सरकार ने अपने आप को वापस कर लिया है, क्योंकि जनसंख्या में एक संतुलन आ गया है, लेकिन चीन को लग रहा है कि एक संतान की नीति के कारण वहां की जनसंख्या में उम्रगत असंतुलन आ गया है, इसलिए अभी भी उसकी एक जनसंख्या नीति है।

मगर भारत? भारत ने जनसंख्या समस्या के बारे में यह नीति बना रखी है कि इस बारे में न कुछ सोचना है न कुछ करना है। 60 और 70 के दशक में परिवार नियोजन एक राष्ट्रीय नारा था। सरकारी कर्मचारी कोशिश करते थे कि लोग कम बच्चे पैदा करें। इन कोशिशों में स्त्रियों की नसबंदी का कार्यक्रम अब भी चल रहा है, लेकिन परिवार नियोजन का कार्यक्रम फेल हो जाने के बाद सरकार ने जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर विचार नहीं किया है, जबकि हम देख रहे हैं कि जनसंख्या के दबाव से हमारी समस्त सार्वजनिक सेवाएं चरमरा रही है। अन्न, पानी, बिजली, शिक्षा, निवास, चिकित्सा कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां जनसंख्या का दबाव महसूस न किया जा रहा हो।

यह बात हम सभी अनुभव करते हैं और आपसी बातचीत में इसकी चर्चा भी करते हैं। फिर भी, राजनीतिक दलों में इस भयंकर समस्या की कोई चेतना नहीं है। प्रधानमंत्री तक इस मामले में कोई चिंता व्यक्त नहीं करते। इसका क्या कारण हो सकता है? बल्कि कुछ दिनों में उलटी प्रवृत्ति दिखाई पड़ सकती है। यादव नेता चिंता करेंगे कि यादवों की आबादी कम न हो जाए, कुर्मी या दलित नेता अपने-अपने जनाधार को, अपने जाति-समुदाय की संख्या के बल पर, बढ़ाने की जरूरत समङोंगे। लाभ में रहेंगी कथित उच्च जातियां, जिन्होंने समय के तकाजे को समझा है और एक या दो संतान तक अपने को सीमित कर रखा है। भारत की आबादी 1947 में 30 करोड़ के आसपास थी। अगर हमने उसी बिंदु पर आबादी को नियंत्रित करने का सोचा होता, तो आज देश में दुख-दारिद्रय कहीं देखने को भी नहीं मिलता।

यह सवाल वाजिब है कि भारत का राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग टिक-टिक कर रहे जनसंख्या बम की ओर से इतना उदासीन क्यों है। कारण उसकी आर्थिक नीतियों में छिपा हुआ है। सिर्फ बोर्ड लगाने या प्रचार करने से जनसंख्या कम नहीं हो सकती। जनसंख्या कम करने के दो ही तरीके हो सकते हैं या तो तानाशाही, जिसमें व्यक्तिगत विकल्प नहीं रह जाते या संपूर्ण लो

कतंत्र, जिसका मतलब है विकास में सब की भागीदारी। चीन ने पहला रास्ता चुना, क्योंकि उसके पास समय कम था। पश्चिमी देशों में जनसंख्या का नियंत्रण आर्थिक विकास और उसमें सामान्य जन की भागीदारी से हुआ। जैसे-जैसे आम जनता का मध्यवर्गीकरण होता गया, लोग स्वभावत: कम बच्चे पैदा करने लगे। नई प्रवृत्ति बच्चे न पैदा करने की है, जिसे हम उपभोक्तावाद की इंतिहा कह सकते हैं। एकल अभिभावकों के कारण भी जनसंख्या घटेगी, लेकिन हम न तो अच्छे तानाशाह हैं न अच्छे लोकतांत्रिक।

चीन की तरह तानाशाही के रास्ते से हम भी जनसंख्या की समस्या को सुलझा सकते थे। पर तानाशाही हमें गवारा नहीं है। यह बहुत अच्छा है, क्योंकि चीन की तरह बनना भारत का लक्ष्य नहीं हो सकता। पर लोकतंत्र भी हमें गवारा नहीं है, हम नहीं चाहते कि विकास का फायदा सभी को हो। मध्यवर्गीकरण की विफलता ही हमारा वास्तविक विफलता है जिसे गरीबी की समस्या के रूप में पेश किया जाता है। शायद अभी भी समय है। अगर हम अपनी आर्थिक नीतियों में रेडिकल परिवर्तन के लिए तैयार हो जाएं तो जनसंख्या की वृद्धि रुक सकती है, जिसका नतीजा होगा और तेजी से आर्थिक विकास, लेकिन भारत के मध्य वर्ग को भय है कि साधारण लोग उनकी पांत में बड़ी संख्या में घुस न आएं। क्या यह जाति प्रथा का असर है?(DJ)
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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