इस सप्ताह जब जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अहमदाबाद में मुलाकात होगी तो इनके बीच समुद्री सुरक्षा से लेकर परमाणु ऊर्जा और व्यापार तक, द्विपक्षीय एजेंडे के कई मुद्दों पर वार्ता होगी। किन्तु इस मुलाकात का मुख्य आकर्षण भारत के पहले उच्च-गति वाले रेल गलियारे का उद्घाटन होगा जो मुंबई से अहमदाबाद को जोड़ेगा, जिसका विकास जापानी प्रौद्योगिकी और वित्तपोषण से होना है।
माउंट फूजी के हिमशिज्र के सामने से गुजर रहा प्लैटिपस जैसी नाक वाला नीला-सफेद शिंकानसेन (जापानी बुलेट ट्रेन) भी जापान का वैसा ही पर्याय बन गया है जैसा सुशी (प्रसिद्ध जापानी खाद्य) रहा है। अक्तूबर 1964 में पहली जापानी बुलेट ट्रेन राजधानी टोक्यो और वाणिज्यिक शहर ओसाका के बीच चली थी और इसने 552 किलोमीटर का सफर मात्र चार घंटे में तय कर जैसे समय को चुनौती दे दी थी (वर्तमान में यह समय घटकर 2 घंटे 22 मिनट ही रह गया है)। इसके साथ ही शिंकानसेन, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के परिदृश्य में जापानी आर्थिक महाशक्ति के उभार का प्रतीक बन गया। इसने इस द्वीपीय देश की अभियांत्रिक क्षमता और सुरक्षा व समयबद्धता के अनौपचारिक मानक को स्थापित कर देश की प्रतिष्ठा बढाई। जापानी शिंकानसेन अभी तक 10 बिलियन यात्रियों को ढो चुका है और अभी तक एक भी दुर्घटना या कोई हादसा रिकॉर्ड नहीं हुआ है। इसका औसत विलंब एक मिनट से भी कम है।
इस प्रशंसनीय ट्रैक-रिकॉर्ड के बावजूद जापान अपने बुलेट ट्रेन के निर्यात में अधिक सफल नहीं रहा है, जबकि श्री अबे ने इस प्रौद्योगिकी की बिक्री को मंदी में घिरे जापानी अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार के लिये अपनी योजना के केंद्र में रखा था। भारत के साथ इसकी बिक्री के सौदे से पहले ताइवान एकमात्र देश रहा जिसे जापान यह प्रौद्योगिकी बेचने में सफल हुआ। किन्तु ताइवान कोई आकर्षक उदाहरण नहीं हो सकता क्योंकि वर्ष 2007 में परिचालन आरंभ होने के बाद से ही उसकी इस उच्च-गति सर्विस ने भारी घाटा उठाया है।
हाई-स्पीड ट्रेन नेटवर्क के लिये लाभप्रदता पाना एक कठिन चुनौती है। उदाहरण के लिये यूरोप के ज्यादातर ऐसे लाइन दबाव में हैं। जापान के कुछ रूट, विशेषकर टोक्यो-ओसाका लाइन लाभ कमा रहा है लेकिन इस लाभ के लिये यात्रियों की भारी संख्या और टिकटों की उच्च कीमत आवश्यक है। टोक्यो और ओसाका की वन-वे यात्रा का टिकट लगभग 130 डॉलर का है और इस लाइन पर 350 से अधिक बुलेट ट्रेनें रोज चलती हैं जो प्रतिवर्ष 163 मिलियन यात्रियों को ढोती हैं। यह जापान का सघन आबादी वाला क्षेत्र है और जापान की लगभग आधी आबादी इसी ओर संकेंद्रित है। इतनी अनुकूल स्थिति हर क्षेत्र में नहीं पाई जा सकती और यही कारण है कि जापान के कई अन्य क्षेत्रों के बुलेट ट्रेन आर्थिक संघर्ष से जूझ रहे हैं।
*⭕️✴️चीनी प्रतिस्पर्द्धा*
जापानी महत्वाकांक्षा को नवीनतम चुनौती चीन के उभार से मिल रही है जो सुपरफास्ट ट्रेनों का नया बादशाह है। पिछले एक दशक में चीन ने 22,000 किलोमीटर हाई-स्पीड रेल नेटवर्क का विकास किया है। दुनिया की सबसे तेज ट्रेन ‘शंघाई मैग्लेव’ भी उसी के पास है जो 430 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चल सकती है। चीन की प्रौद्योगिकी सस्ती भी है और इसलिये उसकी पेशकश एशिया के लागत-जागरूक विकासशील और मध्यम-आय वाले देशों के लिये अधिक आकर्षक हो जाती है।
2015 में चीन ने जापान को बिल्कुल अंतिम क्षण में पटखनी देते हुए इंडोनेशिया से हाई-स्पीड रेल प्रोजेक्ट प्राप्त कर लिया जबकि टोक्यो ने इससे उम्मीद लगा रखी थी। चीन द्वारा अप्रत्याशित रूप से यह परियोजना पा लेने का एक कारण यह भी था कि चीन ने इंडोनेशिया के सरकारी खजाने पर कोई भी भार डाले बिना इस लाइन के वित्तपोषण की पेशकश कर दी थी। हालांकि भू-अधिग्रहण की समस्या से जूझता यह प्रोजेक्ट अभी तक अधर में ही लटका है। थाईलैंड के पहले हाई-स्पीड रेल लाइन के विकास में भी चीन को ही भागीदार बनने में सफलता मिली और दो वर्ष की देरी के बाद अंततः उसे शामिल होने की अनुमति मिल गई।
चीन और जापान के बीच बुलेट ट्रेन के निर्यात का यह संघर्ष दोनों देशों के बीच व्यापक प्रतिस्पर्द्धा का ही एक अंग है जहाँ दोनों देश एशिया में अपने प्रभाव की स्थापना चाहते हैं। इस प्रकार भारत के साथ जापान का सौदा महज व्यापारिक सौदा नहीं है, बल्कि इसका भू-रणनीतिक महत्व है। बुलेट ट्रेन पर भारत-जापान समझौते के बाद भारत में जापान के पूर्व राजदूत सह जापान इंडिया एसोसिएशन के अध्यक्ष हिरोशी हिरबयाशी ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा भी था कि भारत इंडोनेशिया या थाईलैंड नहीं है। यह एक वृहत देश है जो पूर्ण स्वायत्त है। इसका चीनी दबाव के समक्ष झुकना असंभावित था।’
*✴️असमंजस को सुलझाना*
जापान के लिये मुंबई-अहमदाबाद प्रोजेक्ट पाना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। इसमें 12 बिलियन डॉलर का ऋण 0.1 प्रतिशत की दर से प्रदान किया जाएगा और जिसे 50 वर्षों में चुकाना होगा। इससे प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत के 80 प्रतिशत की पूर्ति हो जाएगी। जापान इस वित्तपोषण के साथ ही प्रौद्योगिकी सहयोग व प्रशिक्षण का एक उदार पैकेज भी प्रदान करेगा।
हलाँकि भारत में लागत, सुरक्षा और गलत प्राथमिकता के चयन को लेकर इस प्रोजेक्ट पर सवाल उठ रहे हैं। जापान के रेलवे ब्यूरो के इंटरनेशनल इंजीनियरिंग मामलों के निदेशक तोमोयूकी नाकानो आश्वस्त हैं कि भारत में जलवायु भिन्नता, विद्युतीय बाधा और धूल आदि पर्यावरणीय स्थितियों को देखते हुए जापानी प्रौद्योगिकी में थोड़ा परिवर्तन ला सुरक्षा आशंकाओं को दूर कर दिया जाएगा। उन्होंने ध्यान दिलाया कि जब 60 के दशक में जापान ने पहली बुलेट ट्रेन चलाई, तब वह भी निर्धन देश था और उसे भी विश्व बैंक से ऋण ही लेना पड़ा था।
किन्तु जापान और भारत के बीच प्रौद्योगिकी और संस्कृति के व्यापक अंतर की समस्या से कैसे निपटा जाएगा? इस प्रश्न पर आशावादी दृष्टिकोण जताते हुए श्री नाकानो कहते हैं, ‘जब भारतीय प्रशिक्षण के लिये जापान आए थे तो मैंने देखा कि उनमें से कुछ काफी देर से आते थे। लेकिन जापान में दो हफ्ते बाद ही वे समय के बेहद पाबंद हो गए।’