किसानों की बेड़ियों को खोल दें

देश में किसानों के असंतोष की बात हम बहुत समय से करते आ रहे हैं। पास आते लोकसभा चुनावों ने सरकार को संशय में डाल दिया है, और उसे डर है कि कहीं किसानों का असंतोष चुनाव हारने का कारण न बन जाए। यही कारण है कि सरकार लगातार इस दिशा में ऐसे कई प्रयास कर रही है, जो किसानों को कुछ राहत दे सकें परन्तु सरकार द्वारा किए जाने वाले इन प्रयासों की वास्तविकता को जांचा जाना चाहिए।

(1) हाल ही में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य सभी फसलों पर लागत का 50 प्रतिशत अधिक देने की घोषणा की है। सच्चाई यह है कि गेहूँ, काले और लाल चने, सरसों, अरहर, रागी आदि पर ऐसी नीति पहले से ही चल रही है।

इस नीति का प्रभाव वहीं खत्म हो जाता है, जब सरकार अनाज के गिरते मूल्यों पर नियंत्रण नहीं रख पाती। दूसरे, ऐसा करने से कृषि निर्यात एवं पारिस्थितिकीय पर विपरीत प्रभाव पड़ने की संभावना रहती है।

(2) सरकार ने 23 फसलों के लिए न्यूनतम मूल्य की घोषणा की है। गेहूँ, धान और गन्ने जैसी फसलों पर तो यह प्रभावशील है, परन्तु बाकी फसलों के लिए यह दिखावा मात्र रह जाता है।

सुनिश्चित खरीद के बगैर समर्थन मूल्य प्रभावशाली नहीं रह जाता। जहाँ खरीद की निश्चितता होती है, वहाँ भी अनेक चुनौतियां मुंह बाए खड़ी रहती हैं। (1) केवल कुछ ही राज्यों; जैसे हरियाणा, मध्यप्रदेश, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के पास ही खरीद के लिए एक ठोस बुनियादी ढांचा है। (2) खरीद में गड़बड़ी और बर्बादी से पूरी प्रक्रिया की लागत बढ़ जाती है। (3) लगभग 3/4 कृषक बाजार में बेचने के लिए अन्न का उत्पादन नहीं करते। अतः उन्हें समर्थन मूल्य का कोई लाभ नहीं मिलता। (4) गन्ने की खरीद अधिकतर निजी मिलों द्वारा की जाती है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा इनके मूल्य बढ़ाए जाने से मिलों की माली हालत खराब हो रही है। इस प्रकार से उन्हें गन्ने की कीमतों में बढ़ोत्तरी करने के लिए बकाया पैकेज मांगने के लिए मजबूर किया जाता है।

भारत के समर्थन मूल्य कार्यक्रम ने उन उत्पादों को बढ़ावा दिया है, जो अधिक पानी लेती हैं। धान और गन्ना ही यहाँ की प्रमुख फसल है। पूरी कृषि का लगभग 60 प्रतिशत जल ये दो फसलें ले लेती हैं। महाराष्ट्र में तो स्थिति और भी खराब है। लगभग 18 प्रतिशत सिंचित भूमि में भी सरकार गन्ने की खेती को ही बढा़वा दे रही है। यह 71 प्रतिशत जल अवशोषित कर लेती हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि मध्यप्रदेश में सोयाबीन और हरियाणा में बागवानी उत्पाद पर चलायी जा रही मूलयों में कमी के भुगतान (पी डी पी) की योजना काम कर सकती है। इसके अंतर्गत फसल के बाजार मूल्य और उसके न्यूनतम मूल्य के बीच के अंतर को सरकार, सीधे किसानों के खाते में जमा कर देती है।

गिरते मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए दोनों ही राज्यों को इस योजना को बंद करना पड़ा।

लागत-प्लस मूल्य निर्धारण फार्मूला के आधार पर समर्थन मूल्य, मांग की अनदेखी करता है। यह केवल आपूर्ति को समर्थन देता है, जिससे आपूर्ति अधिक हो जाती है। इससे भी मूल्यों में गिरावट आ जाती है। परिणामतः सब्सिड़ी बिल बढ़ता है।

गेहूं और चावल के संदर्भ में यही देखने को मिलता है। पहले तो सरकार उसके उत्पादन को बढ़ावा देती है। फिर मूल्यों को गिरने से रोकने के लिए कुछ उत्पाद का लगभग एक-तिहाई खरीद लेती है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य को बढ़ाने से भारतीय कृषि उत्पाद वैश्विक बाजार में तब नहीं टिक पाते, जब बाजार में इनका मूल्य कम हो। एक बार फिर घरेलू बाजार में इनकी कीमतों को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार को आयात शुल्क बढ़ाना पड़ता है, और निर्यात में सब्सिडी देनी पड़ती है। इससे भी बुरी स्थिति तब आती है, जब ऋण माफी की बार-बार मांग की जाने लगती है।

इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि कृषि बाजार सुधारों या इनपुट सब्सिडी की तर्कसंगतता का कोई शॉर्टकट नहीं है। सरकार को अपनी व्यापार नीति में उपभोक्ता समर्थक पूर्वाग्रह से भी बचना चाहिए, जो घरेलू मूल्यों में वृद्धि के दौरान निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर किसानों को दंडित करती है, और मूल्यों के संभलने पर आयात शुल्क बढ़ाने में संकोच दिखाकर भी किसानों को ही दंडित करती है।

कृषि संकट से ऊबरने का सबसे अच्छा उपाय, सिंचाई तंत्र और फसल कटाई के बाद की प्रक्रिया में निवेश करना है। इससे होने वाली 20 प्रतिशत अन्न की बर्बादी को रोका जा सकेगा। साथ ही तेलंगाना से सीखकर, एक पारदर्शी और लागू करने में आसान आय समर्थन कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए, जो सभी फसलों पर समान रूप से काम करे। तेलंगाना सरकार कृषि योग्य प्रति हेक्टेयर भूमि के हिसाब से 10,000 रुपये किसानों को दे देती है। बाजार के रुख के अनुसार फसल का चुनाव किसान पर छोड़ दिया जाना चाहिए। भारतीय कृषि को कठोर सरकारी नियंत्रण से मुक्त किए जाने की आवश्यकता है।

 

🌿किसानों की समस्याएं और उनके समाधान के लिए प्रयासरत सरकार*

हाल ही में मध्यप्रदेश में किसानों के उग्र होने और उनमें से पाँच के मारे जाने की चर्चा देश भर में हो रही है। वर्तमान सरकार को इसके लिए दोषी करार दिया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि किसानों की खराब हालत के लिए केवल वर्तमान सरकार की नीतियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। दशकों तक चले यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान ही किसानों की आत्महत्याओं में बहुत ज़्यादा वृद्धि हो गई थी। कृषि वृद्धि दर गिरकर 2% से भी कम रह गई थी। देश में किसानों को उग्र हिंसा तक पहुँचाने के लिए कोई एक राजनैतिक दल जिम्मेदार नहीं है। इसके पीछे बहुत से कारण हैं और उनका समाधान करने का भी प्रयत्न किया जा रहा है।

किसानों की दयनीय दशा को देखते हुए अनेक राज्य कृषि ऋण को माफ करने की दिशा में कदम उठा रहे हैं। परंतु यह दीर्घकालीन समाधान नहीं कहा जा सकता। आरबीआई के गवर्नर ने भी संकेत दिया है कि ऋण माफी के कारण राजकोषीय घाटा बहुत बढ़ सकता है।
सरकार ने 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने का लक्ष्य रखा है। इस संदर्भ में फसल बीमा योजना अभूतपूर्व है। सभी मौसमों में प्रत्येक फसल के लिए बीमा योजना का लाभ उठाया जा सकता है। प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत सरकार ने 50,000 करोड़ व्यय करके आवश्यकतानुसार खेतों को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने का प्रयत्न किया है। किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड बांटे गए है। ई-नाम (E-NAAM) के द्वारा सभी कृषि – बाजारों को आपस में जोड़ दिया गया है। इससे वे अपनी फसल को अच्छे मूल्यों में बेचने के लिए स्वतंत्र हैं।
सभी फसलों का समर्थन मूल्य बहुत बढ़ा दिया गया है। खास तौर पर दालों के समर्थन मूल्य में बहुत वृद्धि की गई है। मध्यप्रदेश की सरकार ने इस दिशा में कानून भी बना दिया है। वहाँ पर न्यूनतम समर्थन मूल्य से नीचे की खरीदी को अपराध माना जाएगा।
बिजली से वंचित गांवों में बिजली पहुँचाने हेतु एक व्यापक मिशन चलाया गया है।
किसानों को अपने उत्पादों की शीघ्र ढुलाई के लिए गांवों की सड़कों में सुधार किया गया है।
किसानों को नई तकनीकों की जानकारी देने के लिए दूरदर्शन ने अलग से ‘किसान चैनल‘ की शुरूआत की है।
जहाँ तक अकेले मध्यप्रदेश की बात है, तो वहाँ की सरकार ‘कृषक -मित्र‘ सरकार कही जा सकती है। पिछले कुछ वर्षों में वहाँ की कृषि में 20% की बढ़ोतरी देखी गई है। ब्याजरहित कृषि-ऋण और किसानों को कम-से-कम दस घंटे बिजली उपलब्ध कराने की दिशा में मध्यप्रदेश सरकार ने उपलब्धि हासिल की है। सरकार ने क्षिप्रा नदी को नर्मदा से जोड़कर किसानों को पर्याप्त जल देने का रास्ता आसान कर दिया है।मध्यप्रदेश में उपजी वर्तमान समस्या फसल के अतिरिक्त उत्पादन की है। दाल, प्याज, सोयाबीन आदि के बम्पर उत्पादन के कारण किसानों को अपनी फसल का अभीष्ट मूल्य नहीं मिल पाया। यही उनके उग्र होने का कारण बन गया।वर्तमान केंद्र सरकार किसानों की प्रत्येक समस्या के लिए समग्र रूप से प्रयासरत है। इसके लिए वह गोदामों का निर्माण, कोल्ड स्टोरेज, रेफ्रीजरेटर वैन, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, सार्वभौमिक फसल बीमा, विद्युत आपूर्ति, समय पर ऋण और बाज़ार उपलब्ध कराने की कोशिश में लगी हुई है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित एम. वैंकैया नायडू

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *