केंद्र बनाम राज्य की नई राजनीति
एस श्रीनिवासन वरिष्ठ पत्रकार
पिछले हफ्ते केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात का चौथी बार वक्त नहीं मिला। यह एक रिकॉर्ड है। केरल की वाम मोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री दरअसल प्रधानमंत्री से मिलकर अपने राज्य को अधिक अनाज आवंटित किए जाने के लिए अपना पक्ष रखना चाहते थे। लेकिन उन्हें सलाह दी गई कि वह खाद्य मंत्री राम विलास पासवान से मिलें। मुख्यमंत्री का कहना था कि उन्होंने खाद्य मंत्री की सलाह पर ही प्रधानमंत्री से मिलने का वक्त मांगा था। इसलिए फिर से खाद्य मंत्री के पास जाने से समस्या का हल नहीं निकलने वाला। जाहिर है, मुख्यमंत्री विजयन ने इसे देश के संघीय ढांचे का अपमान और जान-बूझकर केरल को उसके ‘वाजिब हक’ से वंचित करना बताया। कुछ दिनों पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी दिल्ली के उप-राज्यपाल अनिल बैजल ने मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलने की इजाजत नहीं दी थी। दिल्ली के मुख्यमंत्री उप-राज्यपाल के यहां धरने पर बैठे थे और बंगाल की मुख्यमंत्री उनसे मिलकर अपनी एकजुटता दिखाना चाहती थीं।
आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता ने आरोप लगाया कि उप-राज्यपाल ने केंद्र सरकार के निर्देश पर अनुमति देने से इनकार किया। बाद में ममता बनर्जी और आंध प्रदेश, केरल व कर्नाटक के मुख्यमंत्री केजरीवाल के घर गए और उनके परिजनों से मुलाकात की। अगर इन मुख्यमंत्रियों को उप-राज्यपाल आवास न आने देने के पीछे सचमुच केंद्र सरकार का हाथ था, तो यह खुदरी कृषि लोन को माफ कर दिया था। इसी तरह, तमिलनाडु ने भी अपने उन किसानों के 5,000 करोड़ रुपये के कर्ज माफ कर दिए थे, जिन्होंने राज्य के सहकारी बैंकों से कृषि ऋण लिया था। लेकिन ये राज्य उन किसानों की कोई मदद नहीं कर पाए, जिन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कृषि लोन लिया था। इसके लिए उन्हें केंद्र सरकार से मंजूरी जरूरी थी।
लेकिन तब उनका अनुरोध यह कहते हुए ठुकरा दिया गया कि इससे केंद्र की राजस्व स्थिति पर बुरा असर पडे़गा। हालांकि, उत्तर प्रदेश की कृषि कर्ज माफी योजना को केंद्र ने माली मदद की। भारत में संघराज्य एक दोहरी नीति है, जो राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र व राज्य सरकारों के रिश्तों को परिभाषित करती है, तो दूसरी तरफ, स्थानीय स्तर पर राज्यों के सांविधानिक घटकों की व्याख्या करती है। शक्तियों और अधिकारों का बंटवारा कुछ ऐसा किया गया है कि हरेक इकाई के पास कुछ ऐसी शक्ति व अधिकार हैं, जिनका इस्तेमाल सिर्फ वही कर सकती है, जबकि अन्य शक्तियां साझी करनी पड़ेगी । उदाहरण के लिए, केंद्रीय सूची में शामिल रक्षा, विदेश, बैंक, संचार और मुद्रा के क्षेत्र ऐसे हैं, जिन पर केंद्र सरकार का एकाधिकार है। पुलिस, कारोबार, वाणिज्य, कृषि और सिंचाई राज्य सूची के उनके एकाधिकार वाले विषय हैं। तीसरी समवर्ती सूची में शिक्षा के अलावा अन्य सारे विषय शामिल हैं।
भारतीय संविधान अपनी प्रकृति में संघीय है और यह राज्यों में ‘सहयोगात्मक संबंध’ की मांग करता है। केंद्र और राज्यों के रिश्ते हमेशा से नाजुक संतुलन के विषय रहे हैं, मगर हाल के दिनों में गैर-भाजपा शासित राज्यों के विरोध को देखते हुए लगता है कि इस संतुलन की तत्काल जरूरत पैदा हो गई है। साल 2014 के चुनाव घोषणा-पत्र में भाजपा ने वादा किया था यदि उसे सत्ता मिली, तो वह यूपीए सरकार के ‘टकराव वाले’ नजरिये की बजाय राज्यों के साथ ‘सहयोगात्मक संघवाद’ कायम करेगी। उसने यह भी वादा किया था कि आतंकवाद, सांप्रदायिकता और कानून-व्यवस्था से जुड़े मसलों से निपटने में वह राज्यों को भी निर्णय में शामिल करेगी। सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने कई कदम उठाए भी। इसने 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को स्वीकार किया, जिनमें राज्यों को ज्यादा वित्तीय संसाधन मुहैया कराने का प्रस्ताव किया गया था। राज्यों को इस बात की भी सुविधा दी गई कि वे विदेशी विकास निधि संस्थानों से मदद लेने के प्रयास कर सकते हैं।
केंद्र सरकार ने राज्य में कारोबारी माहौल के बारे में मानदंड जारी करके भी ‘प्रतिस्पद्र्धी संघवाद’ को बढ़ावा दिया। इन मानदंडों के आधार पर राज्यों को श्रेणी दी जाती है, ताकि उनमें आगे बढ़ने की स्वस्थ होड़ पैदा हो सके। केंद्र सरकार अब जब अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में है, तो उसके खिलाफ राज्यों की आवाजें बढ़ती जा रही हैं। 2019 में अपने लिए अवसर देख रही क्षेत्रीय पार्टियां केंद्र बनाम राज्य के मुद्दे को अधिक आक्रामक तरीके से उठा रही हैं। गठबंधन बनाने में जुटी कम्युनिस्ट व क्षेत्रीय पार्टियां एनडीए सरकार पर हमले के लिए ‘संघवाद’ को एक सशक्त हथियार के रूप में देख रही हैं। केंद्र का रवैया क्षेत्रीय पार्टियों की स्थिति को मजबूत ही कर रहा है। मोदी सरकार के प्रति कभी दोस्ताना रुख रखने वाले तेलंगाना व आंध्र प्रदेश के बाद अब जम्मू-कश्मीर की पीडीपी भी प्रतिद्वंद्वी खेमे में आ गई है