ए के भट्टाचार्य
आर्थिक राष्ट्रवाद के एक अपरिपक्व ब्रांड के हाल के उभार से अत्यधिक विवादास्पद सवाल पैदा हुए हैं, जिन पर इस समय राजनीतिक और सियासी हलकों में बहस जारी है। सवाल ये हैं कि क्या किसी भारतीय कंपनी के विदेशी कंपनी द्वारा अधिग्रहण की मंजूरी दी जानी चाहिए या क्या उन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के नियमों को कड़ा किया जाना चाहिए, जिनमें भारतीय कंपनियों का विदेशी कंपनियां अधिग्रहण कर रही हैं। इसमें तर्क यह है कि सरकार को भारतीय कंपनियों की मदद करनी चाहिए और विदेशी कंपनियों के इन्हें अधिग्रहीत करने पर रोक लगाई जानी चाहिए। यह तर्क भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व एजेंडा से पैदा हुआ है।
कुछ सप्ताह पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा था कि भारतीय आकाश पर विदेशी कंपनियों का कब्जा नहीं होना चाहिए। उन्होंने एयर इंडिया को खरीदने की किसी विदेशी कंपनी को मंजूरी देने की जरूरत पर सवाल उठाया था। भागवत के बयान से यह बात भी सामने आई है कि भले ही नरेंद्र मोदी सरकार ने उदारीकरण, विनियमन और आर्थिक सुधारों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता के खूब दावे किए हैं, लेकिन वह अब भी आरएसएस के निर्देश पर बड़े नीतिगत फैसले ले रही है। एक अन्य विवाद दिग्गज वैश्विक खुदरा कंपनी वॉलमार्ट के अग्रणी ऑनलाइन खुदरा कंपनी फ्लिपकार्ट में 77 फीसदी हिस्सा अधिग्रहीत करने को लेकर पैदा हुआ है। यह सवाल उठाया जा रहा है कि एमेजॉन से पूरे साहस के साथ मुकाबला करने के बाद कैसे एक भारतीय ऑनलाइन कंपनी को एक अमेरिकी कंपनी द्वारा अधिग्रहीत किया जा रहा है।
इस मुद्दे पर भी बहस शुरू हो सकती है कि क्यों एक भारतीय स्वास्थ्य कंपनी फोर्टिस को अधिग्रहीत करने की मलेशिया की आईएचएच हेल्थकेयर को मंजूरी दी जानी चाहिए। एक अन्य बोली भारतीय अस्पताल शृंखला मणिपाल समूह से आई है। लेकिन इस बोली को अमेरिकी की निवेश कंपनी टीपीजी से वित्तीय मदद मिली है। जिस तरह के आर्थिक राष्ट्रवाद के फैसले आ रहे हैं, वे भारतीय अर्थव्यवस्था को फायदे से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकते हैं। वर्तमान बहस अजीब है। इसमें राष्ट्रीय हित की आहट सुनाई देती है, लेकिन यह आर्थिक तर्क को भी गलत साबित कर देती है। क्या बहुलांश विदेशी स्वामित्व वाली कंपनी विदेशी कंपनी बन जाती है? क्या विदेशी या भारतीय कंपनी का निर्धारण करने के लिए केवल स्वामित्व ही एकमात्र मापदंड होना चाहिए? उदाहरण के लिए क्या देश का दूसरा सबसे बड़ा निजी बैंक एचडीएफसी बैंक एक भारतीय कंपनी है? बंबई स्टॉक एक्सचेंज के मुताबिक इसकी बहुलांश हिस्सेदारी विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास है।
भारत की सबसे बड़ी विमानन कंपनी इंडिगो को क्या कहेंगे? इसकी 37 फीसदी हिस्सेदारी प्रवासी भारतीयों समेत इस विमानन कंपनी के प्रवर्तकों के पास है। अन्य 13 फीसदी हिस्सेदारी विदेशी संस्थागत निवेशकों के पास है। क्या इसे एक भारतीय कंपनी माना जाना चाहिए? अगर आप फ्लिपकार्ट की हिस्सेदारी को देखें तो इसे स्वामित्व के लिहाज से भारतीय कंपनी करार देना मुश्किल होगा, जबकि आम धारणा है कि यह एक भारतीय कंपनी है। फ्लिपकार्ट अभी भारतीय स्टॉक एक्सचेंजों पर सूचीबद्ध नहीं है और इसके हिस्सेदारों में सॉफ्टबैंक, टाइगर ग्लोबल, नैस्पर्स , ईबे और टेनसेंट शामिल हैं। असल में फ्लिपकार्ट में भारतीय हिस्सेदारी केवल सचिन बंसल और बिन्नी बंसल की है, जिनके पास करीब 5-5 फीसदी हिस्सेदारी है।
अब भारतीय कंपनी की परिभाषा को लेकर ऐसी भ्रामक सोच को विराम देने का सही वक्त है। नियमन के लिहाज से जो कंपनी भारत में पंजीकृत है, वह भारतीय कंपनी है। जब यह मुख्य रूप से भारतीय बाजार में ही परिचालन करती है और अपने कर्मचारियों के रूप में भारतीयों की नियुक्ति करती है और भारत से खरीदे गए कच्चे माल और कलपुर्जों का इस्तेमाल करती है तो वह भारतीय कंपनी से भी आगे निकल जाती है। स्वामित्व मायने रखता है, लेकिन एक सीमा तक। क्या कोई व्यक्ति पूरे निश्चय के साथ यह तर्क दे सकता है कि मारुति सुजूकी लिमिटेड एक भारतीय कंपनी नहीं है? निस्संदेह स्वामित्व के लिहाज से यह जापानी कंपनी है। लेकिन यह किन मायनों में महिंद्रा ऐंड महिंद्रा या टाटा मोटर्स से कम भारतीय है? हां, सरकार कुछ रणनीतिक क्षेत्रों में आर्थिक सुरक्षा और भूराजनीतिक दृष्टिकोण से एफडीआई की सीमा रख सकती है। लेकिन अगर ये क्षेत्र आर्थिक सुरक्षा और भूराजनीति के लिहाज से रणनीतिक क्षेत्रों में नहीं आते हैं तो आज की दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग एफडीआई सीमा तय करना तर्कसंगत नहीं है।
इसलिए किसी व्यक्ति को वॉलमार्ट के फ्लिपकार्ट को अधिग्रहीत करने में स्वामित्व के लिहाज से क्यों चिंतित होना चाहिए? ऑनलाइन खुदरा के लिए उपलब्ध तरजीही एफडीआई रूट इस्तेमाल करने और फ्लिपकार्ट का अधिग्रहण कर भारतीय बाजार में प्रवेश करने केलिए वॉलमार्ट को क्यों दोष दिया जाना चाहिए। इसी तरह एचडीएफसी बैंक, फ्लिपकार्ट या इंडिगो को क्यों भारतीय कंपनी माना जाना चाहिए, जबकि उनकी बहुलांश हिस्सेदारी भारतीयों या भारतीय कंपनियों के पास नहीं है। भारत की आर्थिक नीति की बहस को इस आधार पर एक संकीर्ण लॉबी की बंधक बनाने की मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए कि कोई कंपनी भारतीयों के स्वामित्व वाली है या विदेशियों की। बल्कि मानदंड यह होना चाहिए कि क्या ये कंपनियां भारतीय बाजारों में परिचालन करती हैं, भारत के कच्चे माल का इस्तेमाल करती हैं या क्या वे भारत में रोजगार देती हैं। इसी से भारत के आर्थिक हित पूरे होंगे, न कि स्वामित्व के मसलों में उलझे रहने से।