राष्ट्रीय आय पर नवीनतम आँकड़ों से क्या संकेत मिलता है?
अपेक्षाकृत मंद विकास से गुजर रही भारतीय अर्थव्यवस्था के पास इससे उबरने की क्या संभावनाएं हैं? अथवा,
क्या हम विकास के एक नये ‘हिन्दू’ दर में फंस गए हैं?
लगभग एक सप्ताह पहले केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने 2017-18 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आकलन जारी किये। इन आँकड़ों से पता चलता है कि 2017-18 की पहली तिमाही में जीडीपी में 5.7 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई जबकि बुनियादी कीमत पर सकल मूल्य वर्द्धन (जीवीए) में 5.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। हम देख सकते हैं कि इन दोनों ही आधारों पर विकास दर 6 प्रतिशत से कम है। पिछले वर्ष इसी तिमाही में जीडीपी 7.9 प्रतिशत और जीवीए 7.6 प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रहा था। विकास दर में लगभग 2 प्रतिशत अंकों की इस गिरावट का क्या कारण है? निश्चय ही विमुद्रीकरण का एक नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इसके अलावे, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने के पहले, संभवतः वस्तुओं की डी-स्टॉकिंग हुई और इसका भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
हालाँकि 2 प्रतिशत अंक की इस गिरावट के लिए इन्हीं दोनों कारणों को देखना भी अनुपयुक्त होगा। 2016-17 की तीसरी तिमाही से ही, जब जीवीए की विकास दर 7.6 प्रतिशत थी, लगातार गिरावट आ रही है। 2016-17 की तीसरी तिमाही तक, विकास दर घटकर 6.7% हो गई। इसके बाद से इसमें 0.9 प्रतिशत अंक की और कमी आई है। इस वर्ष की पहली तिमाही में 5.6 प्रतिशत की विकास दर को देखते हुए यह संभव नहीं है कि पूरे वर्ष के लिए विकास दर 6.5 प्रतिशत से अधिक हो पाएगी। यह दर भी तब होगी यदि अगले तीन तिमाहियों में विकास दर 7 प्रतिशत हो। पहली तिमाही का सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि विनिर्माण के विकास दर में तेज गिरावट हुई और यह महज 1.2 प्रतिशत है। अच्छे मानसून के कारण कृषि क्षेत्र से बेहतर प्रदर्शन की तो उम्मीद है। चूंकि कृषि विकास दर पिछले वर्ष भी बेहतर रही थी इसलिए इसमें कोई अधिक वृद्धि नहीं दिखेगी।
यदि हम चाहते हैं कि अर्थव्यवस्था पहले की तरह पुनः उच्च विकास दर से आगे बढ़े तो हमें उन कारकों पर विचार करना होगा जो इस विकास दर को नीचे ला रहे हैं।
निम्न विकास दर के लिए बाह्य क्षेत्र (एक्सटर्नल सेक्टर) के लचर प्रदर्शन को भी एक कारण बताया जा रहा है। विकास को दो प्रकार की मांगों से उत्प्रेरणा मिलती है, एक घरेलू मांग और दूसरा, बाह्य मांग। उच्च निर्यात वृद्धि ने चीन सहित कई देशों में विकास दर को आगे बढ़ाया है। स्वयं भारत में 2005-06 और 2007-08 के उच्च विकास चरण में निर्यात में 20 प्रतिशत से भी अधिक के औसत वार्षिक दर से वृद्धि हुई थी।
भारत के विकास दर में गिरावट खराब निर्यात प्रदर्शन से भी संबद्ध है। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के कम उत्साहजनक विकास दर के कारण निर्यात मांग कमजोर रही। 2014-15 और 2015-16, दोनों में निर्यात विकास दर ऋणात्मक रही। हालाँकि 2016-17 की दूसरी छमाही से निर्यात विकास दर धनात्मक हो गई है। निस्संदेह, उच्च विकास को सतत रखने के लिए निर्यात मांग अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन पिछली कुछ तिमाहियों में विकास दर में तीव्र गिरावट के लिए ज्राब निर्यात प्रदर्शन को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। वस्तुतः पिछले वर्ष की तुलना में निर्यात प्रदर्शन में सुधार ही आया है।
निवेश दर में गिरावट
मौलिक समस्या निवेश दर में तेज गिरावट की रही है। 2011-12 में सकल स्थिर पूंजी निर्माण दर 34.3% रही थी। इसमें तेजी से गिरावट होने लगी और 2015-16 में यह गिरकर 29.3 प्रतिशत हो गई। इसमें और गिरावट आई और 2016-17 में यह 27.1 प्रतिशत रह गई।
नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, 2017-18 की पहली तिमाही में यह 27.5 प्रतिशत है। चूंकि सार्वजनिक निवेश दर में कोई गिरावट नहीं दिखी है (यह जीडीपी के 7.5 प्रतिशत पर स्थिर है), इसका अर्थ है कि निजी निवेश में गिरावट आई है। इसके अंतर्गत कॉर्पोरेट निवेश और हाउसहोल्ड निवेश दोनों शामिल हैं। हालाँकि 2007-08 की उपलब्धि की तुलना में कॉर्पोरेट निवेश में तेज गिरावट आई है किन्तु यह 13 प्रतिशत के एक निम्न स्तर पर कमोबेश स्थिर हो गया है। लेकिन हाउसहोल्ड निवेश की गिरावट हाल के वर्षों में जारी ही है। हाउसहोल्ड के अंदर शुद्ध रूप से पारिवारिक इकाइयों के साथ गैर-कॉर्पोरेट उद्यम भी शामिल होते हैं।
इस तथ्य पर गंभीर चिंता जताई गई है कि हाल के वर्षों में तेज विकास के बावजूद इसका परिणाम रोजगार अवसरों में वृद्धि के रूप में नहीं दिखा। इस प्रकार वर्तमान अवधि को ‘रोजगारविहीन संवृद्धि’ की अवधि बताया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि रोजगार पर उपलब्ध आँकड़े बेहद विश्वसनीय नहीं माने जा सकते। प्रकट आँकड़ा केवल संगठित क्षेत्र का ही उपलब्ध है। शेष आँकड़े सर्वेक्षणों के द्वारा आकलित हैं।