सुरिंदर सूद

बीते दशकों में कृषि क्षेत्र में होने वाले निवेश का बड़ा हिस्सा सिंचाई के खाते में गया है। इसके बावजूद इस दौरान शुद्ध सिंचित क्षेत्र में शायद ही कोई वृद्धि हुई है। कृषि क्षेत्र को संस्थागत ऋण का प्रवाह करीब एक दशक में तिगुना से भी अधिक हो चुका है। लेकिन कर्ज लेने वाले लोगों की संख्या अधिक नहीं बढ़ी है। किसानों की कर्ज जरूरतों का बड़ा हिस्सा अब भी लालची साहूकारों जैसे अनौपचारिक स्रोतों के जरिये ही पूरा होता है। अनाज, दूध, बागवानी उत्पादों और मछली का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। फिर भी भारत वैश्विक भूख सूचकांक में निम्न स्तर पर बना हुआ है। वर्ष 2017 के भूख सूचकांक में भारत 119 देशों की सूची में 100वें स्थान पर रहा है। एक साल पहले के 97वें स्थान की तुलना में तीन पायदान की गिरावट ही देखने को मिली। एक सच यह भी है कि दुनिया के कुपोषित एवं भूखे लोगों की कुल आबादी का एक चौथाई हिस्सा भारत में ही रहता है।

सरकार राष्ट्रीय खाद्य संरक्षा कानून के तहत करीब दो-तिहाई आबादी को भारी सब्सिडी पर खाद्यान्नों की आपूर्ति करती है। इसके बाद भी कुपोषण की समस्या गंभीर है जिसका खमियाजा बच्चों की खराब सेहत और अपर्याप्त विकास के तौर पर सामने आता है। फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) हरेक साल बड़ी ही उदारता से बढ़ा दिया जाता है। लेकिन किसानों की आय बढ़ नहीं रही है। इससे भी बदतर यह है कि कृषि एवं गैर-कृषि आय के बीच फासला बढ़ता ही जा रहा है।  माना जाता है कि कृषि अनुसंधान एवं विकास में निवेश पर मिलने वाला प्रतिदान तकनीक-आधारित अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। इसके बावजूद कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद का एक फीसदी हिस्सा भी कृषि अनुसंधान पर खर्च नहीं किया जाता है। कृषि शोध केंद्रों की तरफ से विकसित तकनीक का एक अच्छा खासा हिस्सा भी किसानों तक नहीं पहुंच पाता है। सकल पूंजी निर्माण में कृषि एवं संबद्ध गतिविधियों की हिस्सेदारी 1980 के शुरुआती दशक में 18 फीसदी हुआ करती थी लेकिन हाल के वर्षों में यह लुढ़कते हुए छह से आठ फीसदी के बीच आ गया है।

पिछले 20 वर्षों में औसतन दो हजार से अधिक किसान रोजाना खेती करना बंद कर रहे हैं। जनगणना के आंकड़ों की मानें तो 1991 में जहां किसानों की कुल संख्या 11 करोड़ थी वहीं 2001 में यह घटकर 10.3 करोड़ और 2011 में तो महज 9.58 करोड़ हो गई। किसानों की पहचान के लिए कृषि से प्राप्त आय को इकलौता पैमाना माना गया है।  ये कुछ भयावह संकेतक हैं कि कृषि क्षेत्र के साथ क्या गड़बड़ हुआ है और क्यों? साफ है कि कृषि विकास के लिए अपनाई गई नीतियां और कार्यक्रम न तो समुचित तरीके से बनाए गए हैं और न ही उनका क्रियान्वयन सही तरीके से हुआ है। काफी दुखद है कि ये गलतियां अब भी बदस्तूर जारी हैं।कृषि को अमूमन मुद्रास्फीति से निपटने और कृषि उत्पादों के लिए बढ़ती एवं बदलती उपभोक्ता मांगों को पूरा करने के एक साधन के तौर पर देखा जाता है। शायद ही कृषि उत्पादों के उत्पादन में लगे किसानों और उपभोक्ताओं के हितों को सुरक्षित रखने की कोई कोशिश की गई है।

वर्ष 1991 में आर्थिक एवं संरचनात्मक बदलावों का जो दौर शुरू हुआ था उसमें भी कृषि क्षेत्र को नजरअंदाज किया जाता रहा है। वर्ष 2001 के बाद से ही किसानों की बढ़ती मुश्किलें उनकी आत्महत्या की वारदात में आई तेजी के रूप में परिलक्षित हो रही हैं। लेकिन इन समस्याओं को तब तक नजरअंदाज किया जाता रहा जब तक ग्रामीण क्षेत्र का यह असंतोष किसानों के विरोध प्रदर्शनों की शक्ल में नहीं तब्दील हो गया।सवाल यह है कि खेती और इससे जुड़े किसानों को कब तक नजरअंदाज किया जाता रहेगा और उन्हें सामाजिक विकास से वंचित रखा जाएगा? राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी ने हाल ही में प्रकाशित एक नीति पत्र में इसी सवाल पर गौर किया है। अकादमी का कहना है कि महज विकास नहीं बल्कि सामाजिक विकास के समावेश वाली सतत वृद्धि को प्राथमिकताएं एवं कार्यक्रम तय करने और आर्थिक विकास के लिए संसाधनों के वितरण का आधार बनाया जाना चाहिए। अकादमी ने ग्रामीण एवं शहरी इलाकों के बीच की खाई को पाटने की भी बात कही है ताकि गांवों से शहरों की ओर होने वाले व्यापक प्रवास को थामा जा सके।

‘कृषि क्षेत्र में नीतियों एवं विकास प्राथमिकताओं के बीच असंतुलन’ शीर्षक से जारी नीति पत्र में कृषि क्षेत्र की चिंताओं को खत्म करने के लिए कुछ अन्य सुझाव भी दिए गए हैं। इनमें से एक महत्त्वपूर्ण सुझाव असिंचित, पारिस्थितिकी रूप से वंचित एवं कृषि के लिहाज से पिछड़े इलाकों में कृषि प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बढ़ाने और बाजार ढांचे के विकास से जुड़ा हुआ है। इससे कृषि उत्पादकता बढ़ाने के साथ ही कृषि आय भी बढ़ाई जा सकेगी और क्षेत्रीय असमानता भी कम हो पाएगी। कृषि एवं संबद्ध गतिविधियों में ग्रामीण युवाओं की रुचि बहाल करना भी जरूरी है। ऐसा होने से कृषि को वैज्ञानिक कलेवर देने और सतत वृद्धि को सुनिश्चित किया जा सकेगा। युवाओं को कृषि में तकनीक के इस्तेमाल के लिए तैयार किया जाना चाहिए ताकि कृषि उत्पादकता और आय बढ़ाई जा सके और लागत में भी कमी आए। इसके अलावा व्यापक स्तर पर कौशल विकास कार्यक्रम भी चलाने की जरूरत है जिसमें गैर-कृषि ग्रामीण क्षेत्र में आय बढ़ाने पर जोर दिया गया हो। इससे किसानों को अपनी आय पर पडऩे वाले दबावों से निपटने में सहूलियत होगी। अगर ऐसा नहीं होता है तो किसानों का असंतोष और कृषि क्षेत्र की खराब हालत और भी बिगड़ती जाएगी।

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