(विवेक काटजू, पूर्व राजदूत )
कल यानी शुक्रवार को ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री मैल्कम टर्नबुल अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिलने वाले हैं। व्हाइट हाउस में होने वाली इस बातचीत में तमाम अहम मसलों के साथ जिस एक मुद्दे पर खासतौर से बात होगी, वह है चीन की विस्तारवादी नीति। यह सही बात है कि ऑस्ट्रेलिया और चीन का करीबी आर्थिक रिश्ता है, पर एशिया के अन्य देशों की तरह बीजिंग के रवैये से वह भी खासा परेशान है। असल में, चीन की अर्थव्यवस्था ने पिछले तीन दशकों में तेज तरक्की की है, और यह मुल्क ‘दुनिया की फैक्टरी’ बन गया है। मगर अब वह अन्य क्षेत्रीय देशों पर दबाव डाल रहा है और उनकी नीतियों को अपने हित में मोड़ना चाहता है। ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबोर), जिसे अब नया नाम ‘बेल्ट रोड इनिशिएटिव’ (बीआरआई) दिया गया है, चीन की इसी महत्वाकांक्षी पटकथा का एक अहम किरदार है, जिसे लेकर ऑस्ट्रेलिया की अपनी चिंता है। नतीजतन, वह अमेरिका, जापान और भारत के साथ मिलकर एक ऐसी ढांचागत योजना बनाने की सोच रहा है, जो ‘बीआरआई’ की काट मानी जा रही है।
कहने को तो ‘बीआरआई’ का उद्देश्य कनेक्टिविटी और इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी संपर्क व बुनियादी ढांचा बढ़ाना है, पर असलियत में चीन इसके जरिए अपने कूटनीतिक व राजनीतिक दबदबे का विस्तार करना चाहता है। इस परियोजना के तहत उसने मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया, पूर्व एशिया, प्रशांत महासागर व हिंद महासागर के देशों को जोड़ने की बात कही है। मगर उसकी मंशा इन तमाम मुल्कों की धुरी बनकर अपने हित में सभी की अर्थव्यवस्थाओं को खुद से जोड़ने की है।
‘बीआरआई’ के तहत इन देशों में तमाम तरह की सड़कें, बंदरगाह, अन्य ढांचागत काम, बांध आदि बनाए जाएंगे, जिसके लिए चीन विशेष रूप से धनराशि देगा अथवा उन अंतरराष्ट्रीय बैंकों से पैसे मुहैया कराएगा, जिनमें उसकी अहम भागीदारी है। मगर पूर्व के अनुभव चीन की चुगली करने को पर्याप्त हैं। दरअसल, ज्यादातर मौकों पर यह देखा गया है कि कर्ज न चुका पाने की स्थिति में चीन ने कर्जदार देश में हस्तक्षेप की कोशिश की। जैसे, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के कई देश इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट का कर्ज नहीं लौटा पाए, तो चीन ने वहां अपना अधिकार जमाने का प्रयास किया। इतना ही नहीं, चीन ऐसे निर्माण कार्यों में सामग्रियों की आपूर्ति भी खुद करता है और कामगार की भी। कई बार तो ये कामगार उन देशों में ही बस गए, जहां वे भेजे गए थे। इसके कारण संबंधित देशों में कई तरह की स्थानीय समस्याएं भी पैदा हुईं।
‘बीआरआई’ में भी ऐसा कुछ होने की आशंका है। हालांकि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया व जापान जैसी ताकतों के चीन के खिलाफ साथ आने की कई दूसरी वजहें भी हैं। दरअसल, चीन के मुखिया शी जिनपिंग बराबर यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि ‘बीआरआई’ जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना पूरी होने के बाद भी चीन का व्यवहार अन्य महाशक्तियों की तरह नहीं होगा और वह सहयोगात्मक रवैया बनाए रखेगा। मगर उप-महाद्वीप के देशों का अनुभव इसके विपरीत रहा है। मसलन, दक्षिण चीन सागर में चीन न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करता रहा है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय न्यायिक प्राधिकरण के फैसले को भी वह नहीं मान रहा। वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को भी लगातार चुनौती दे रहा है।
इससे आशंकाएं बढ़ रही हैं, खासकर एशियाई देशों में। जापान की सरकार तो पिछले कुछ वर्षों से बीजिंग के रवैये से खफा है ही, भारत की भी अपनी चिंताएं हैं। बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका व मालदीव जैसे देशों में भी आर्थिक परियोजनाओं के बहाने चीन का दखल बढ़ा है। साफ है कि चीन की विस्तारवादी नीतियां बड़ी चुनौती बनकर उभरी हैं। इससे वे देश तो हलकान हैं ही, जहां चीन का हस्तक्षेप बढ़ रहा है, वे मुल्क भी कम परेशान नहीं है, जिनसे चीन का छत्तीस का आंकड़ा है। अमेरिका स्वाभाविक तौर पर इस सब पर नजर बनाए हुए है। वाशिंगटन तो यह स्पष्ट कर चुका है कि सहयोग के साथ-साथ वह उन चुनौतियों का भी मुकाबला करने को तैयार है, जो चीन के रवैये से पैदा हो रही हैं।
ये चारों देश बखूबी समझ रहे हैं कि चीन ‘बीआरआई’ से क्या हासिल करना चाहता है? हर महाशक्ति चाहती है कि उसके साथ कई देश जुड़े रहें। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने यूरोप व अन्य देशों को ‘नाटो पैक्ट’ के तहत संगठित किया था। सोवियत रूस भी ‘वारसा पैक्ट’ के तहत पूर्वी व मध्य यूरोप के देशों को खुद से जोड़ने का प्रयास कर चुका है। चूंकि चीन अब एक महाशक्ति के रूप में अमेरिका से दो-दो हाथ करना चाहता है, इसलिए उसने ‘बीआरआई’ की कल्पना की है। इसके जरिए वह तमाम देशों का एक गुट बनाना चाहता है, जो उस पर पूरी तरह निर्भर हो जाएं।
नई दिल्ली के लिए भी ‘बीआरआई’ किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं। इसीलिए पिछले वर्ष जब चीन ने इसे लेकर एक सम्मेलन बुलाया था, तो भारत ने उसमें शिरकत नहीं की थी। भारत की नाराजगी ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे’ को लेकर है, जो इस परियोजना में खास भूमिका अदा कर रहा है। यह पश्चिम चीन को पाकिस्तान से जोड़ता है और पाक अधिकृत कश्मीर (पीओके) से होकर पाकिस्तान में प्रवेश करता है। भारत ने इसी पर ऐतराज जताया है, क्योंकि नई दिल्ली इसे अपनी संप्रभुता का उल्लंघन मानती है। यह सही भी है। भारत की नजर इस गलियारे से चीन और पाकिस्तान के बदलते संबंध पर भी है। अब तक बीजिंग और इस्लामाबाद के रिश्ते ‘भारत के प्रति उनके नकारात्मक रवैये’ पर टिके थे, लेकिन अब इसमें इस गलियारे से एक सकारात्मक बदलाव आया है। एक मसला ग्वादर बंदरगाह का भी है, जिसके चीन के हवाले हो जाने से हमारी सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियां उभरी हैं।
चीन की अपनी आशंकाएं भी कम नहीं। आर्थिक गलियारा बलूचिस्तान होकर गुजरेगा और बलूचों की पाकिस्तानी हुकूमत से कभी बनी नहीं, इसलिए बीजिंग को डर है कि भारत कहीं इसमें दखलंदाजी न करे। हालांकि हम बराबर साफ कर चुके हैं कि द्विपक्षीय रिश्तों में दखल देना हमारी फितरत नहीं रही है, फिर चाहे वह चीन और पाकिस्तान का संबंध ही क्यों न हो, मगर अपने हितों की रक्षा के लिए हम पूरी तरह तत्पर रहेंगे। ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान के साथ मिलकर भारत का ‘बीआरआई’ के विकल्प पर आगे बढ़ना चीन को यह संदेश पहुंचाने का एक सार्थक प्रयास है।(Hindustan )
(ये लेखक के अपने विचार हैं)