टी. एन. नाइनन

विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार मायने नहीं रखता! अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने गत माह अपने नवीनतम विश्व आर्थिक पूर्वानुमान में कमोबेश यही बात कही। उसने कहा, ‘अगर रोजगार विनिर्माण से सेवा क्षेत्र की ओर स्थानांतरित होता है तो इससे अर्थव्यवस्था की उत्पादकता वृद्घि और विकासशील देशों के उच्च आय वर्ग की ओर बढऩे की संभावनाओं पर कोई असर नहीं पडऩा चाहिए।’ यह रिपोर्ट भारत समेत तमाम देशों में सुर्खियों में आई। परंतु भारत में इस वक्तव्य के पहले हिस्से का सच पहले ही देखा जा चुका है। हम मजबूत विनिर्माण आधार के बिना भी उत्पादकता में सुधार दर्ज करते आए हैं। निश्चित तौर पर विनिर्माण में कुल रोजगार का केवल 8 फीसदी या उससे कम ही है। प्रश्न यह है कि इसमें खबर क्या है?

दरअसल आईएमएफ चूक रहा है। पहली बात, अगर भारत में श्रमिक कृषि से विनिर्माण का रुख करते श्रम उत्पादकता में कितना सुधार होगा? दूसरा, विनिर्माण केवल रोजगार की दृष्टिï से महत्त्वपूर्ण नहीं है। दुनिया का हर ताकतवर देश विनिर्माण क्षेत्र की शक्ति भी है। चीन दुनिया का सबसे बड़ा विनिर्माता है। यूरोप में वह दर्जा जर्मनी को हासिल है। जापान और दक्षिण कोरिया विनिर्माण के जरिये ही विश्व फलक पर उभरे। प्राकृतिक संसाधनों के प्राचुर्य के बावजूद ब्रिक्स के दो सदस्य देश विनिर्माण में नाकामी के चलते पीछे हैं। रूस में विनिर्माण का योगदान 14 फीसदी और ब्राजील में 12 फीसदी है। भारत में यह 17 फीसदी है। ऐतिहासिक रूप से देखें तो किसी ऐसे देश ने ग्रेड में जगह नहीं बनाई जो विनिर्माण में 20 फीसदी से कम भागीदारी रखता हो। पूर्वी एशिया के सभी देश इस मानक पर खरे हैं।

संभव है कि चौथी औद्योगिक क्रांति के चलते इतिहास का पुनर्लेखन होने वाला हो (3डी प्रिंटिंग और कृत्रिम बुद्घिमता और विनिर्माण और सेवा का मिश्रण)। ऐपल जैसी कंपनी भी है जो एशिया में अपने विनिर्माण आपूर्तिकर्ताओं को अपने उत्पादों की खुदरा कीमतों में से एक छोटा हिस्सा देता है। इस तरह वह 30 फीसदी का जबरदस्त मुनाफा कमाता है। परंतु मध्य आय वर्ग वाले देशों के लिए ऐपल जैसी कंपनियों के तर्ज पर राष्ट्रीय नीति तैयार करना खतरनाक हो सकता है।

ऐसा इसलिए क्योंकि एक विनिर्माण आधार के पास प्राय: सेवाओं की तुलना में अधिक पश्चवर्ती और अग्रिम संपर्क होते हैं। यही वजह है कि औद्योगिक केंद्र अपने क्षेत्र में चौतरफा विकास करता है। यह कर आधार बढ़ाता है। विनिर्माण की मजबूती निर्यात के लिए भी मजबूत आधार तैयार करती है। थाईलैंड के जीडीपी का 27 फीसदी विनिर्माण से आता है लेकिन उसके निर्यात में इसकी भागीदारी तीन चौथाई से ज्यादा है। भारत के उलट उसकी स्थिति व्यापार अधिशेष की भी है। सन 1991 से थाईलैंड की मुद्रा बहत का मूल्यांकन रुपये की तुलना में दोगुना हो चुका है। इससे पता चलता है कि वहां उत्पादकता कितनी तेजी से बढ़ी है।

बगैर असैन्य विनिर्माण आधार के भारत रक्षा क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा आयातक बना रहेगा। नई तकनीक और उत्पादों का विकास स्थानीय उत्पादन इकाइयों पर निर्भर करता है जो नवाचार करती हैं और मूल्य शृंखला में सुधार करती हैं। जैसा कि क्रप्स ने एक बार जर्मनी में इस्पात से हथियार का रुख किया था। भारत फोर्ज इस समय उसी स्थिति से गुजर रही है। इसी प्रकार जापान, कोरिया और चीन ने कई चरणों में इस्पात निर्माण से युद्घपोत निर्माण की दूरी तय की। भारत में अभी ऐसा होना है। नौसेना के निर्माणाधीन युद्घपोतों को सही किस्म के इस्पात के लिए वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। सैन्य तकनीक देश की सुरक्षा के लिए अहम है लेकिन वह ऐसे औद्योगिक माहौल में नहीं पनपती।

यही वजह है कि मेक इन इंडिया अभियान और उसके पहले संप्रग सरकार की नई विनिर्माण नीति के आने के बावजूद देश के जीडीपी में विनिर्माण की भागीदारी में बदलाव का न होना दुखद है। अगर मोदी सरकार आर्थिक वृद्घि दर को पिछले दशक के 7 फीसदी के स्तर से बढ़ाकर 8 फीसदी या उससे अधिक ले जाना चाहती है और बढ़ते व्यापार वस्तु घाटे से निजात पाकर रोजगार और राजस्व बढ़ाना चाहती है तो उसे आईएमएफ को भूलना होगा और विनिर्माण क्षेत्र को सफल बनाना होगा। सरकार के कार्यकाल के चार साल पूरे हो रहे हैं और अब उसे यह देखना होगा कि अब तक क्या कुछ नहीं हो सका है।

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