संदर्भ
पूरे देश में भूजल के उपयोग के संबंध में एक समान विनियामक ढाँचे को लागू करने के उद्देश्य से हाल ही में केंद्र सरकार ने दिशा-निर्देशों का एक मसौदा जारी किया है।
इस मसौदे के अनुसार उद्योगों, बुनियादी ढाँचों एवं खनन परियोजनाओं में भूजल के उपयोग से पहले संबंधित अधिकारियों को ज़िला एवं राज्य प्राधिकरणों से एनओसी (No Objection Certificate) लेना होगा।
विदित हो कि इस मसौदे में मौजूदा प्रावधानों से अलग भूजल निकासी की मात्रा के आधार पर जल शुल्क लगाने का भी प्रस्ताव है, जबकि पूर्व के प्रावधानों में भूजल का उपयोग करने वालों को इसका रिचार्ज तंत्र (recharge mechanism) सुनिश्चित करना होता था।
हालाँकि इस मसौदे पर सार्वजनिक बहस होनी बाकी है, लेकिन कई जल संसाधन विशेषज्ञों का मानना है कि जल शुल्क तय करना, जल के निजीकरण की दिशा में पहला कदम है।
क्यों उचित है जल का निजीकरण?
जल ही जीवन है अर्थात् जल जीवन की मूलभूत आवश्यकता है। जल के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने वैश्विक जल रिपोर्ट 2006 में कहा है कि “हमारी धरती पर हर किसी के लिये पर्याप्त पानी है, लेकिन फिर भी जल संकट बरकरार है।
जल संकट का कारण अक्सर कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, उचित संस्थानों की कमी, नौकरशाही की जड़ता और मानव क्षमता एवं भौतिक बुनियादी ढाँचे में निवेश की कमी है”।
विशेषज्ञों का मानना है कि यदि जल स्रोतों के रख-रखाव से लेकर वितरण तक की ज़िम्मेदारी निजी क्षेत्र के हाथ में सौंप दी जाए तो जल प्रबन्धन की समस्या का समाधान किया जा सकता है।
जल के निजीकरण की वकालत करने वाले अधिकांश लोगों का मानना है कि पानी को आर्थिक मूल्य देकर कुशलतापूर्वक इसका प्रबंधन किया जा सकता है।
एक सच यह भी है कि राज्य नियंत्रित जल आपूर्ति व्यवस्था कुशलतापूर्वक अपने कार्यों को अंजाम देने में लगातार असफल प्रमाणित हो रही है, इन परिस्थितियों में बाज़ार आधारित जल प्रशासन की व्यवस्था कारगर साबित हो सकती है।
क्यों उचित नहीं है जल निजीकरण?
जल यानी जीवन की मूल आवश्यकता को मुनाफे का बाज़ार बनाना उचित नहीं कहा जा सकता। दरअसल, निजीकरण एक ऐसी व्यवस्था है जो सार्वजनिक जवाबदेही को सीमित कर देती है।
यदि जल व्यवस्था को निजी क्षेत्रों के हवाले कर दिया गया तो इस बात की पूरी संभावना है कि वे जनता के हित में नहीं बल्कि अपने शेयरधारकों के लिये कार्य करेंगे, क्योंकि वे उन्हीं के प्रति उत्तरदायी हैं न कि जनता के।
देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो दो वक्त का भोजन भी बड़ी मुश्किल से जुटा पाते हैं, सरकार ऐसे समूहों को सब्सिडाइज्ड दरों पर जलापूर्ति करती है। यदि निजी क्षेत्रों के हाथ में जल व्यवस्था चली जाती है तो इस प्रकार के संवेदनशील समूहों के प्रभावित होने की प्रबल संभावनाएँ हैं।
आगे की राह
हाल ही में बनाए गए राष्ट्रीय जल ढाँचा कानून (एनडब्ल्यूएफएल) में कहा गया है-“भारत के प्रत्येक नागरिक का पानी पर एक समान अधिकार है क्योंकि यह भारत के लोगों की साझी विरासत है”।
अतः पानी का निजीकरण तो नहीं करना चाहिये, हालाँकि जल व्यवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से नगरपालिकाओं को सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के साथ साझेदारी अवश्य करनी चाहिये, क्योंकि वे निजी जल कंपनियों की तुलना में अधिक संवेदनशील, विश्वसनीय और लागत प्रभावी हैं।
चूँकि निजी क्षेत्र का उद्देश्य लाभ कमाना है इसलिये यह ज़रूरी है कि सरकार जल उपयोग के पैटर्न में बदलाव लाए, ताकि जल के संरचनात्मक क्षय को रोका जा सके।

निष्कर्ष
भारत में नागपुर पहला ऐसा बड़ा शहर है जहाँ की जल व्यवस्था निजी क्षेत्र के हाथों में है। वर्ष 2012 में नागपुर नगरपालिका ने 25 वर्षों के लिये एक निजी कंपनी को यह दायित्व प्रदान किया।
उल्लेखनीय है कि तब से लेकर अब तक उस कम्पनी पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके हैं तथा पानी के शुल्क में चार बार बढ़ोतरी भी हो चुकी है।
ज़ाहिर है वर्तमान में भारत को जल व्यवस्था के लिये विदेशी कंपनियों एवं निजी क्षेत्र की और देखने की कोई ज़रूरत नहीं है।
कहते हैं जल की तासीर शीतल होती है, लेकिन जल संकट ने इसे आज सबसे ज्वलंत मुद्दा बना दिया है। कुछ लोगों का मानना है कि यदि तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो वह जल को ही लेकर होगा।
जल के निजीकरण को जल संकट के समाधान के तौर पर पेश किया जाता रहा है, लेकिन क्या सच में इससे जल संकट का समाधान हो पाएगा? इस संबंध में सोच-विचारकर ही आगे बढ़ना चाहिये।
प्रश्न: संयुक्त राष्ट्र संघ की वैश्विक जल रिपोर्ट भी यह मानती है कि भारत में जल संकट का कारण कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार, उचित संस्थानों की कमी, नौकरशाही की जड़ता और मानव क्षमता एवं भौतिक बुनियादी ढाँचे में निवेश की कमी है”। क्या जल का निजीकरण इन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सकता है? विश्लेषण करें।

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