*आभार_शशि कुमार झा*
अर्जेंटीना के बुएनोस ऐरेस में आयोजित विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की 11वीं मंत्रिस्तरीय बैठक फिर ढाक के तीन पात साबित हुई। विकसित देशों खासकर, अमेरिका की विकासशील और अल्प विकसित देशों की समस्याओं के प्रति बेरुखी फिर उजागर हुई। यह बात फिर पुरजोर तरीके से साबित हुई कि विकसित देशों को विकासशील और अल्प विकसित देशों की समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है और वे इन देशों में व्याप्त भुखमरी और कुपोषण जैसी बुनियादी समस्याओं को लेकर भी पूरी तरह बेपरवाह हैं। विकसित देशों की दबंगई का इससे बड़ा नमूना नहीं हो सकता कि जहां एक ओर वे विकासशील देशों में खेती पर आश्रित सबसे बड़ी जनसंख्या को लेकर कोई सहुलियत नहीं देना चाहते, वहीं दूसरी ओर ई-कॉमर्स के लिए नियंतण्र नियम बनाने के लिए विकासशील देशों पर लगातार दबाव डाला जा रहा है। जाहिर है अपने गरीब किसानों को बचाने के लिए जद्दोजहद करने वाले देशों के लिए ई-कॉमर्स उनके वजूद से बड़ा मुद्दा नहीं हो सकता।नियंतण्र ई-कॉमर्स नियमों को लेकर भारत का मानना है कि इस मुद्दे पर विभिन्न कार्य समूहों में विचार विमर्श जारी रहे और जब बातचीत एक विशेष स्तर तक पहुंच जाए तो आगे की कार्रवाई करने के लिए इसे डब्ल्यूटीओ की आम परिषद के समक्ष रखा जाए। लेकिन विकसित देशों की कोशिश ई-कॉमर्स पर त्वरित कार्य योजना के निर्माण की थी ताकि यह जल्द से जल्द इसी 11वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में पेश हो जाए। वस्तुओं एवं सेवाओं में व्यापार तथा बौद्धिक संपदा अधिकारों में अपने सदस्य देशों की समस्याओं और उनके विवादों को निपटाने के लिए 1 जनवरी, 1995 को वजूद में आए इस अंतरराष्ट्रीय संगठन पर शुरू से ही विकसित देशों, खासकर, अमेरिका की दबंगई हावी रही है। अगर डब्ल्यूटीओ सदस्य देशों के बीच की समस्याओं के समाधान या यहां तक कि बातचीत की प्रक्रिया को लेकर भी कोई ठोस प्रगति हासिल नहीं कर पाया है तो इसकी सबसे बड़ी वजह विकसित देशों का अड़ियल रवैया ही रहा है। इस बार की मंत्रिस्तरीय बैठक का सबसे बड़ा मुद्दा खाद्यान्नों की सार्वजनिक हिस्सेदारी को लेकर था, जिस पर अमेरिका ने सहमति जताने से बिल्कुल इनकार कर दिया।
उल्लेखनीय है कि डब्ल्यूटीओ नियमों के तहत भारत जैसे विकासशील देशों को गेहूं एवं चावल जैसे खाद्यान्नों की सार्वजनिक खरीदारी को फसल के मूल्य के 10 प्रतिशत के भीतर सीमित रखने की जरूरत होती है। जब भारत ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 को लागू किया तो उसका उद्देश्य अपनी 1.3 अरब की जनसंख्या के लगभग दो तिहाई हिस्से को सब्सिडी प्राप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराना था जिस वजह से सार्वजनिक खरीद की मांग में बेतहाशा बढ़ोतरी हो गई। दिसम्बर 2013 में बाली में आयोजित बैठक में भारत तथाकथित ‘‘पीस क्लॉज’ हासिल करने में सफल रहा जिसके अनुसार, अगर भारत 10 प्रतिशत की सीमा को पार करता है तो अन्य सदस्य देश डब्ल्यूटीओ विवाद निपटान तंत्र के तहत कोई कानूनी कार्रवाई नहीं करेंगे। हालांकि इस बात पर ऊहापोह की स्थिति बनी रही कि यह अस्थायी राहत चार वर्षों तक जारी रहेगी या नहीं। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में आई तो उसने विकसित देशों के सामने इस मसले को मजबूती से रखा और स्पष्ट किया कि अगर डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक में इसका कोई स्थायी समाधान नहीं ढूंढ़ा जाता तो यह शांति क्लॉज अनिश्चित काल तक जारी रहेगा।
भारत ने भले ही अपने अधिकांश खाद्य पदार्थों को खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम में शामिल कर चुका है और नए खाद्य कार्यक्रमों पर प्रतिबंधों से उस पर कोई अधिक फर्क नहीं पड़ेगा, विकासशील देश के अग्रणी नेता होने के कारण उसे कीनिया, जिम्बाब्बे जैसे अन्य विकासशील देशों के हितों का भी ध्यान रखना है जिन्हें ऐसे प्रतिबंध रास नहीं आ रहे। न केवल भारत बल्कि चीन ने भी विकसित देशों की इस शर्त को हटाने के लिए लड़ने का वादा किया है। भारत तथा कुछ विकासशील देशों के सामने की एक और समस्या उनके संसाधनविहीन मछुआरा समुदाय के हितों की लड़ाई से संबंधित भी है, जिस पर विकसित देशों के हठी रवैये के कारण कोई सहमति नहीं बन रही। अगर ऐसे ही चलता रहा तो मतभेदों और असहमतियों की यह दूरी कभी पाटी नहीं जा सकेगी, इसलिए इस नियंतण्र संस्थान से जुड़े सभी पक्षों के लिए बेहतर यही है कि वे खुले दिल से और अपने निजी स्वार्थों से परे जाकर इसकी साख को भरोसेमंद और स्थायी बनाने में अपना योगदान दें।
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