टैक्स में राज्यों की हिस्सेदारी का आधार 2011 की आबादी को बनाने से उत्तरी राज्य फायदे में
शशि थरूर , ( विदेश मामलों की संसदीय समिति के चेयरमैन और पूर्व केंद्रीय मंत्री )

ऐसा प्राय: नहीं होता कि कोई तकनीकी मुद्‌दा राष्ट्र के वजूद के लिए गंभीर चुनौती की ओर इशारा करे। लेकिन, पिछले माह ठीक यही हुआ। डीएनके नेता एमके स्टालिन ने दस मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को एक पत्र भेजा। इसमें 15वें वित्त आयोग के कुछ सदर्भों पर सवाल उठाए गए थे। इससे यह जाहिर हुआ है कि कैसे मोदी सरकार के विचारहीन फैसले ने भानुमति का पिटारा खोल दिया है। वित्त आयोग हर पांच साल में इसकी समीक्षा करने और फैसला लेने के लिए गठित होता है कि टैक्स से मिले राजस्व को राज्यों में कैसे बांटा जाए। इसके लिए आयोग कई मानक इस्तेमाल करता है। इसमें राष्ट्रीय आबादी में हर राज्य के योगदान का प्रतिशत भी शामिल है। किंतु चार दशकों से ज्यादा समय से इसका आकलन 1971 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित है, जबकि उसके बाद से चार जनगणनाएं हो गई हैं। इसका कारण बहुत सरल है।

1976 में 42वें संविधान संशोधन में राज्यों की लोकसभा सीटें 25 वर्ष के लिए फ्रीज कर दी गई ताकि आबादी नियंत्रण को बढ़ावा दिया जा सके। राज्य आश्वस्त रहें कि आबादी कम होने से लोकसभा में उनकी सीटें कम नहीं होंगी। 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने इस प्रावधान को 25 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया। इस 91वें संशोधन को संसद के दोनों सदनों में सभी दलों ने समर्थन दिया। इस नीति के पीछे स्पष्ट सिद्धांत था कि आबादी व मानव विकास में जिम्मेदारी भरे नेतृत्व का पुरस्कार राजनीतिक रूप से वंचित होना नहीं हो सकता। लोकतंत्र को सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए, पर कोई संघीय लोकतंत्र इस धारणा पर नहीं चल सकता कि यदि वे ठीक से विकास कर पाए तो उनका राजनीतिक प्रभाव घट जाएगा और दूसरों को नाकामी के पुरस्कार स्वरूप संसद में और सीटें मिलेंगी।

मोदी सरकार ने लापरवाही से वित्त आयोग को 2011 की जनगणना के आंकड़ों का निर्देश देकर सावधानी से संतुलित की गई व्यवस्था बिगाड़ दी है। स्टालिन इसी कारण बिफरे हैं। वे अकेले नहीं हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने ट्वीट व फेसबुक पोस्ट में बहुत मजबूती से मामला रखा है। आंध्र में राजनीतिक दल गठित करने वाले पूर्व फिल्म सितारे पवन कल्याण ने भी ट्वीट किया है, ‘क्या दक्षिण भारतीय राज्यों की सफलता को संघीय भारत उनके खिलाफ इस्तेमाल करेगा?’ सिद्धारमैया की पोस्ट तो और भी आगे जाती है। वे कर्नाटक का प्राचीन इतिहास, अपने ध्वज के इसके अधिकार, कन्नड़ भाषा को सम्मान देने के महत्व और मौजूदा कर-विभाजन व्यवस्था में पक्षपात जैसे कई मुद्‌दे उठाते हैं।

उन्होंने लिखा, ‘ऐतिहासिक रूप से दक्षिण हमेशा उत्तर को राहत देता रहा है.. मसलन उत्तर प्रदेश द्वारा दिए टैक्स के हर रुपए के पीछे उसे 1.79 रुपए मिलते हैं जबकि कर्नाटक को टैक्स में दिए गए हर रुपए के लिए 47 पैसे मिलते हैं। जहां मैं क्षेत्रीय असंतुलन दूर करने की जरूरत समझता हूं, वहीं विकास के लिए पुरस्कार कहां है?’ वे कहते हैं, ‘हम कब तक आबादी की वृद्धि को प्रोत्साहन देते रहेंगे?’ ये महत्वपूर्ण प्रश्न हैं, जिनकी शेष भारत अनदेखी नहीं कर सकता। ‘काउ बेल्ट’ के हिंदी भाषी प्रदेश जो कभी ‘बीमारू’ राज्य कहलाते थे, वे अपने विकास सूचकांक सुधारने में व्यापक रूप से नाकाम हुए हैं। महिला साक्षरता और महिला सशक्तीकरण इनमें उल्लेखनीय हैं। नतीजतन उनकी आबादी दक्षिणी राज्यों से ज्यादा हो गई और वित्त आयोग का नया फॉर्मूला उन्हें कर-आमदनी में अधिक हिस्से की पात्रता देता है। मैंने यह मामला नौकरशाही के खेल के निपुण और कुशल खिलाड़ी वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह के सामने उठाया तो उन्होंने यह जरूर कहा कि आयोग को दिए गए संदर्भ बिंदु पर कुछ कहने का उन्हें अधिकार नहीं है पर उन्हें कोई संदेह नहीं था कि उनके पाले में कैसा गरमागरम मामला डाल दिया गया है। वे मामले की गंभीरता को समझते हैं और कोई संदेह नहीं कि वे संकट को फिलहाल ठंडा कर देंगे 2011 की जनगणना के आंकड़े इस्तेमाल करने का तो कोई विकल्प उनके पास नहीं है पर आयोग की गणनाओं के कई मानकों में से यह एक है। वे राज्यों का हिस्सा तय करते वक्त इसका वज़न कम कर सकते हैं।

लेकिन, देश को इसके बड़े खतरों पर गौर करना चाहिए। जहां बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश की आबादी 2001 और 2011 के बीच 20 फीसदी से बढ़ी वहीं, अविभाजित आंध्र, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु की अाबादी इस अवधि में 16 फीसदी से भी कम दर से बढ़ी। मेरे ही राज्य केरल में आबादी की दर सबसे कम है (2001-11 में 4.9 फीसदी और यह गिरती ही जा रही है और अनुमान के मुताबिक 2021 तक यह नकारात्मक हो जाएगी।) यानी बिहार की दर के पांचवें हिस्से के बराबर। केरल के प्रभावशाली प्रदर्शन की उसे संसद में सीटें घटाकर व इस प्रकार राष्ट्रीय मसलों पर उसकी आवाज कम करके सजा क्यों दी जानी चाहिए?

बेशक, इसका जवाब तो यही है कि ये तो लोकतंत्र के नियम हैं। एक व्यक्ति एक वोट का मतलब है जितने ज्यादा लोग आपके पास होंगे उतना राजनीतिक प्रभाव होगा और टैक्स में उतना ज्यादा हिस्सा मिलेगा। लेकिन भारत जैसे देश में जहां विविधता के बावजूद पूरा देश हमारा होने की भावना ने उसे एक रखा है और उस पर लगातार क्षेत्रीय, धार्मिक तथा भाषाई तनाव पड़ता रहा है, ऐसा जवाब उसे जोड़ने वाले बंधन को तोड़ देगा। आज की भाजपा की हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान वाली राजनीति सुलह-सफाई पर आधारित वाजपेयी युग की गठबंधन निर्मित करने वाली राजनीति से अलग है। उनका खुला बहुसंख्यक विजयवाद, हिंदू श्रेष्ठता का दुस्साहस उनकी चर्चा में दिखता है। आर्यावर्त के प्रभुत्व की संस्कृति उनके रवैए में दिखती है। इसने पहले ही दक्षिण के कई राजनेताओं को विचलित कर दिया है।मानना होगा कि हमें अधिक विकेंद्रीकृत लोकतंत्र की जरूरत है। जिसमें टैक्स संसाधनों में केंद्रीय हिस्से का इतना महत्व न हो और नई दिल्ली की राजनीतिक शक्ति इतनी हावी न हो। इससे जनगणना के नए आंकड़ों से पैदा हुई चिंता अप्रासंगिक हो सकती है। लेकिन, जब तक हमारी मौजूदा व्यवस्था रहेगी, हमें इसे संवेदनशीलता के साथ चलाना होगा। यह ऐसी बात है कि इस मामले में भी मोदी सरकार ऐसा करने में नाकाम रही है।

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