सरकार ने आला दर्जे के विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता देने की बात कही है लेकिन इस दर्जे का निर्धारण कौन करता है? गत 12 फरवरी को जारी एक अधिसूचना के मुताबिक राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं शिक्षा परिषद या किसी प्रतिष्ठित प्रमाणन एजेंसी मान्यता द्वारा दिए गए अंक ही इस वर्गीकरण का पैमाना होंगे। पहली संस्था तो यूजीसी के मातहत काम करती है जबकि प्रमाणन एजेंसी का निर्धारण अभी बाकी है। दो निजी एजेंसियों की तरफ से जारी दुनिया के शीर्ष 500 संस्थानों की रैंकिंग की भी वर्गीकरण में भूमिका होती है। अधिसूचना में जिक्र है कि किसी श्रेणी में उपस्थिति स्व-प्रमाणन पर निर्भर करती है लेकिन जब अंक देने की प्रक्रिया यूजीसी-आश्रित संस्थानों पर निर्भर है तो यह प्रावधान सर्कुलर को तर्कसंगत बना देता है। यह भी साफ नहीं है कि क्या कुलपति एवं प्रबंधन शिक्षकों की नियुक्ति भी यूजीसी के दायरे में आती है? बड़ा सवाल यह है कि क्या यह मान्यता तब भी बनी रहेगी जब कोई विश्वविद्यालय सरकार के सामाजिक एजेंडे से मेल नहीं खाने वाला कोई पाठ्यक्रम शुरू करता है या सरकार के प्रति आलोचनात्मक रुख रखने वाले शिक्षक को नियुक्त करता है।
भारत में मानविकी के पाठ्यक्रमों में सरकारी हस्तक्षेप के मामले बढऩे से ऐसे हालात पैदा होना नामुमकिन भी नहीं है। अमेरिका में भी रिचर्ड निक्सन और डॉनल्ड ट्रंप छात्र राजनीति के लिए मशहूर विश्वविद्यालयों को संघीय मदद रोकने की धमकी देते रहे हैं। भारत के लिए बड़ी चिंता यह है कि इस स्वायत्तता की असली वजह शैक्षणिक न होकर वित्तीय है। नई योजना में गुणवत्ता वाले संस्थानों को नए पाठ्यक्रम संचालित करने तथा नए विभाग, केंद्र एवं स्कूल खोलने की स्वतंत्रता होगी लेकिन इसके लिए संसाधन उन्हें खुद जुटाने होंगे।
वे 20 फीसदी शिक्षक विदेशों से भी रख सकते हैं और विदेशी छात्रों को 20 फीसदी आरक्षण भी दे सकेंगे। इसका मतलब है कि पहली श्रेणी के इन विश्वविद्यालयों को अमेरिकी मॉडल अपनाने को कहा जा रहा है जिसमें निजी क्षेत्र से वित्त जुटाने के लिए बड़े विभाग होते हैं। पश्चिम के नामचीन विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक पीठ, छात्रवृत्ति एवं शोध केंद्रों का नाम दानकर्ताओं के सम्मान में रखने की परिपाटी है। भारत में आईआईटी भी इस मॉडल को अपनाने में कुछ हद तक सफल रहे हैं।आगे चलकर इससे एक स्वस्थ माहौल बन सकता है लेकिन लंबे समय तक सरकारी फंड पर निर्भर रहे इन संस्थानों को शुरुआती दिक्कतें हो सकती हैं। असली चिंता इस स्वायत्तता के फीस ढांचे पर पडऩे वाले असर को लेकर है। विदेशी शिक्षकों को नियुक्त करने से निस्संदेह उच्च शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाने में मदद मिलेगी लेकिन इसकी कीमत कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाले योग्य छात्रों को चुकानी पड़ सकती है। अव्वल दर्जे के संस्थानों के विशिष्ट लोगों की शिक्षा का केंद्र बन जाने का डर वास्तविक है। मंत्रालय को इस समस्या पर भी ध्यान देने की जरूरत है।