भारत एक बहुत बड़ा देश है। विदेशी देख कर चकित हैं कि यहां इतने मुद््दों पर बहसें होती हैं, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता।

भारत एक बहुत बड़ा देश है। विदेशी देख कर चकित हैं कि यहां इतने मुद्दों पर बहसें होती हैं, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता। राजनीति, जाति, धर्म, पार्टी और सिद्धांतों पर बहसें होती रहीं, इतिहास और वर्तमान का मुलम्मा चढ़ता रहा, फिर भी न कोई खरोंच, न बदलाव। लोग लड़ते-भिड़ते रहे, मगर दिल का दरिया बड़ा रहा। नाराजगी में भी प्यार-मोहब्बत बनी रही। पानी नहीं बरसा खेत में, फसल नहीं उगी, अनाज महंगे हो गए। थाली खाली रही। मगर देश को बहस परोसी जाती रही। दूरदर्शन के चैनल और अखबारों के पन्नों पर गूंजता रहा सत्यमेव… माता च पिता त्वमेव! सुनिए और मगन रहिए। नतीजों की खोज करेंगे तो सिर धुनना होगा।

सब्जी-बाजार में ग्राहक अपना-अपना थैला लिये घूम रहे हैं। घंटे भर का समय लग गया, फिर भी विश्वास नहीं होता कि लूटे गए कि लूटा। दाल अंधेरे में छिपी मुस्कराती रही और बाहर बहस चलती रही। संतोषी देश ने सोचा आज बिना दाल की खा लो, कल दाल आ जाएगी। कभी-कभी वाक युद्ध का तापमान चढ़ते-चढ़ते लात-जूते तक पहुंच जाता है। जूते नहीं चलते, मगर बात की लात दिल में उतर जाती है। अपने-अपने क्षेत्र की हस्तियां अपना अनुभव लिये कुर्सियों पर बैठी हैं। जोर-जोर से तर्क-कुतर्क रखे जा रहे हैं। एंकर अपनी बात उठा कर खुद ही फंस जाता है। टीवी चैनल बहस का निष्कर्ष देश तक पहुंचाने की जल्दी में हैं। इधर बहस की तहस-नहस हो रही है। आटा गुंधा हुआ हो और आग जल रही हो तो रोटी सेंकना कौन नहीं चाहेगा। मगर वह है कौन, जो जेब भर कर बोलने के लिए भेज देता है।

बातों के संघर्ष में लोग पिस रहे हैं। सभी को मालूम है कि कोल्हू में केवल सरसों की घानी डाल देने से तेल नहीं निकल जाता। सूखी सरसों में तेल कहां से आएगा। गोपियों के आगे उद्धव की बहस की दुर्दशा होती जा रही है। रक्षा-सौदा हो, विदेश व्यापार हो, सीमा समझौता या अपराधियों की धर-पकड़ हो, बिना बहस के कोई फैसला नहीं हो पाता। बहस सक्रियता से हर मामले को उठाती है। ठोंकी पीठ जब उछल-उछल कर बोलती है, तब लगता है कि अपना पक्ष मजबूत रखना कितना जरूरी है। मरी-दबी समस्या में बहस कोरामिन का काम करती है।
आजादी के सत्तर साल होने को आए। मतदाताओं ने अनुभव खूब बटोरे। लोगों को मालूम है कि नाटक में सरल और सुरक्षित भूमिका ज्यादा प्रियकर होती है। इसलिए बात वही करो, जिसमें बचने की गुंजाइश हो। पहली बहस अभी सुस्ता भी नहीं पाती कि कहीं बम फूट जाता है। अपराधियों के भागने के बाद निगरानी कड़ी कर दी जाती है। बहस में गूंजते सवाल बम से भी तीखे हो जाते हैं।

आज का समय अनेक विडंबनाओं से भरा है। बहस वाली मेज फुटबॉल का मैदान बनती जा रही है। वाक युद्ध पूरे देश में गूंजता रहता है। कोई न कोई सवाल रोज उठ खड़े होते हैं। इतिहास उठा कर देख लीजिए, पानी से निकाली मछली की तरह तड़फड़ाते रहे सवाल और मछली हाथ से फिसल कर फिर पानी में वापस। कुछ दिन पहले नगर और गांव पर बहस गरमाई थी। प्रस्ताव आया था कि नगर खाली कर गांव लौटो। बहस का मुद््दा फिर उठा। मगर रोजी-रोटी की खोज में शहरों में आ बसे। नगर में मिश्रित संस्कृति आ बैठी। पर्व-त्योहार भाषा और रस्म-रिवाज सब..!

ग्रामीण विकास के लिए एक रुपया जब पंद्रह पैसे बन कर देहातों में पहुंचा तो सीधे-सच्चे लोग खुश हुए। कुछ ऊबड़-खाबड़ सड़कें ठीक हुर्इं। मिट्टी का तेल चार आने सस्ता हुआ। सस्ता कितना होना चाहिए, इस पर भी बहस छिड़ी। धीरे-धीरे शब्दों की खींचतान हमारे व्यवहार में घुल-मिल गई। छल वेश बदल कर आने लगा। सड़कें फोर लेन बनीं जरूर, पर दिल की धमनियां चौड़ी नहीं हुर्इं। तभी किस्मत की मारी असहिष्णुता धीरे से बहस में आ मिली। दिल का सिंहासन नहीं भाया तो मेज पर आ बैठी। गंभीर सहिष्णुता नाटक का जोकर बन गई। जिसे देखिए वही सहनशीलता की परिभाषा और सीमा निर्धारित कर रहा है। दो वाहनों की टक्कर में गलती का फैसला करने सहिष्णुता आ खड़ी होती है। फैसले के लिए सड़क पर बहस। लोग कहते हैं कि बहस कभी बासी नहीं होती, बस चतुराई से अपनी दिशा बदलती रहती है।

आजकल वाक्युद्ध के लिए नए-नए चेहरे कुर्सियों पर आ बैठते हैं। विचार कीजिए तो लगता है कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विषयों पर बहस जरूर होनी चाहिए। उनसे कई नई बातें उभर कर आती हैं। मगर बहस जब अहं की लड़ाई बन जाती है, तब एंकरों पर भी सवाल उठने लगते हैं। सवाल है कि बहस कुछ हासिल करने के लिए हो या सिर्फ टकराव के लिए!

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