निजीकरण से दूर होगी बैंकिंग तंत्र की खामी

(आशुतोष त्रिपाठी)

देश के कॉरपोरेट इतिहास के सबसे बड़े घोटाले में से एक माने जा रहे पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के बारे में कोई भी राय कायम करने से पहले इससे संबंधित जानकारियां जुटा लेना बेहतर होगा। अब तक मिली जानकारी के मुताबिक इस पूरे मामले की शुरुआत 2011 में हुई और महज दो कर्मचारियों की मिलीभगत से मुंबई की एक शाखा में 114 अरब रुपये की धोखाधड़ी हुई है। फर्जी लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) को आधार बनाकर विदेशों में अन्य भारतीय बैंकों की शाखाओं से डॉलर में रकम स्थानांतरित की गई। ये एलओयू नीरव मोदी और उसके रिश्तेदारों की रत्न एवं आभूषण कंपनियों के खातों के लिए जारी किए गए थे। हालांकि इस बात में कोई दोराय नहीं है कि इस कथित घोटाले का व्यापक स्वरूप और आकार गहन जांच के बाद ही सामने आएगा।

बहरहाल इस मामले के सामने आने के साथ ही एक बार फिर देश की बैंकिंग प्रणाली की और खासकर सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली की खामियां खुलकर सामने आ गई हैं। हालांकि गौर से देखें तो देश में सार्वजनिक क्षेत्र का कोई भी बैंक इस समस्या से अछूता नहीं है। पीएनबी मामला दिखाता है कि सरकारी बैंकिंग क्षेत्र किस कदर दिक्कतों और व्यवस्थागत नाकामी का शिकार है। उनमें निगरानी और प्रक्रियाओं का पालन भी सही ढंग से नहीं हो रहा है। यह सारा कुछ बहुत व्यापक स्तर तक पनप चुका है। ऐसे में पूरी बैंकिंग प्रणाली को लेकर सवाल उठने लाजिमी हैं। पहला सवाल तो यह है कि सिर्फ दो कर्मचारी बैंक की आंतरिक और बाह्य निगरानी प्रणाली को धता बताने में कामयाब कैसे रहे? बैंकों की ऑडिटिंग करने वाले सीए पेशेवरों की भूमिका इस पूरे मामले में क्या रही? एक या दो दिन नहीं, बल्कि पूरे छह वर्ष तक यह धोखाधड़ी धड़ल्ले से कैसे चलती रही और पूरी व्यवस्था से छेड़छाड़ इतनी ही आसान है तो इसका समाधान क्या हो सकता है?

पंजाब नेशनल बैंक की ताजा घटना तंत्र और निगरानी व्यवस्था की विफलता का स्पष्ट प्रमाण है। ऐसे में भारत में बैंकों के नियामक यानी भारतीय रिजर्व बैंक को सक्षम बनाने की जरूरत पर जोर दिया जाना चाहिए। अगर बैंकिंग नियामक में एक विशिष्ट स्तर की क्षमताएं नहीं होंगी तो हमारी बैंकिंग यूं ही दिक्कतों से दो-चार होती रहेगी। फिलहाल बैंकिंग नियामक का काम मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने और मौद्रिक नीति निर्धारण जैसे कुछेक कार्यो तक सीमित है। ऐसे में राजनीतिक कार्यपालिका से भी यही उम्मीद की जानी चाहिए कि उनका काम आरबीआइ में अधिकारियों की नियुक्ति तक ही सीमित हो। जैसा कि आरबीआइ के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बीते दिनों कहा कि भारत को भारतीय रिजर्व बैंक को लोकतंत्र के पांचवें स्तंभ के तौर पर स्थापित करने की जरूरत है। यानी जिस तरह कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और पत्रकारिता जैसे चारों स्तंभ दूसरे के काम में दखल दिए बगैर अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं, उसी तर्ज पर बैंकिंग नियामक को भी अपने निर्णय खुद लेने की पूर्ण स्वायत्तता मिलनी चाहिए। दूसरा और अत्यंत महत्वपूर्ण समाधान देश में बैंकिंग प्रणाली की संरचना पर आधारित है। देश के बैंकिंग तंत्र में सरकारी बैंकों की हिस्सेदारी 70 फीसद से अधिक है।

जाहिर है इस क्षेत्र की ज्यादातर समस्याओं का संबंध उनसे ही होने की आशंका रहती है। समस्याओं में उनकी हिस्सेदारी असंगत रूप से ज्यादा है। निजी और विदेशी बैंकों की भी समस्याएं हैं, लेकिन उनका आकार बहुत छोटा है। वैसे भी वे अपना कारोबार चलाने के लिए सार्वजनिक संसाधनों पर निर्भर नहीं हैं। यही वजह है कि आज सार्वजनिक क्षेत्र के सभी 21 बैंकों का कुल बाजार पूंजीकरण निजी क्षेत्र के एक अकेले बैंक एचडीएफसी बैंक से कम है।

ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान पर गौर करना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि सरकार का काम कारोबार करना नहीं, बल्कि जनता की सेवा करना है। दरअसल 1969 में तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा बैंकों को गरीबों के दरवाजे तक पहुंचाने का तथाकथित समाजवादी उद्देश्य पूरी तरह विफल रहा है। इसके उलट राष्ट्रीयकरण का सीधा असर बैंकों और बैंकिंग क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों की कार्यपद्धति पर पड़ा है। सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों की कार्यपद्धति के अंतर को आम खाताधारक भी बखूबी समझता है। गरीब और किसान तबके के लोगों को आज भी अपनी जरूरतों के लिए सरकारी बैंकों के चक्कर काटने पड़ते हैं, जबकि अमीर लोगों के लिए बैंक बगैर किसी गारंटी के हजारों करोड़ रुपये का कर्ज देने के लिए तैयार बैठे दिखाई देते हैं। इसे ध्यान में रखते हुए सरकार के लिए एक रास्ता निजीकरण का हो सकता है यानी वह बैंकों के राष्ट्रीयकरण के फैसले को पलट दे और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से अपनी हिस्सेदारी बेचकर बैंकिंग के धंधे से बाहर का रास्ता ले।

इसके अलावा सरकार द्वारा 2015 में बैंकिंग क्षेत्र के लिए लागू की गई इंद्रधनुष योजना का प्रभावी क्रियान्वयन भी इस संकटकाल में एक समाधान साबित हो सकता है जिसके सात सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत नियुक्ति, बैंक बोर्ड ब्यूरो का गठन, पूंजीकरण, ऋण वसूली, सशक्तीकरण, जवाबदेही का ढांचा, प्रशासन संबंधी सुधारों का जिक्र था। हालांकि सरकार ने इस योजना के अंतर्गत कुछ प्रयास किए हैं। मसलन सरकार ने बैंकों की कार्यपद्धति सुधारने के लिए राजनीतिक स्तर पर होने वाली नियुक्तियों पर लगाम लगाई है।

देश के पूर्व सीएजी विनोद राय की अध्यक्षता में बैंक बोर्ड ब्यूरो का गठन किया है। करीब दो लाख करोड़ रुपये की पुनर्पूजीकरण योजना की घोषणा की गई और इसके अंतर्गत धन का आवंटन भी शुरू कर दिया गया है। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कार्यरत कर्मचारियों और अधिकारियों के वेतन को तर्कसंगत बनाने की दिशा में भी सरकार ने कदम बढ़ाया है, लेकिन मौजूदा संकट को देखते हुए ये उपाय नाकाफी मालूम पड़ते हैं। इसलिए बैंकों को उबारने के लिए सरकार को मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करते हुए व्यापक सुधारों की दिशा में बढ़ना होगा। शायद तभी जाकर हमारे बैंकों की नैया पार लगेगी।(साभार दैनिक जागरण )
(लेखक न्यूज पोर्टल इनशॉर्ट्स में एसोसिएट एडीटर हैं)

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