कमलेंद्र कंवर , (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक में स्थित विदेश मंत्रालय के उच्चाधिकारियों ने उस वक्त परिस्थितियों को भांपने में बड़ी चूक कर दी थी, जब उन्होंने नेपाल में हुए बीते आम चुनाव के दौरान केपी शर्मा ओली के प्रति बेरुखी दर्शाई थी। केपी ओली ने भी अपने चुनाव प्रचार अभियान में भारत-विरोधी रवैया अख्तियार किया था। कट्टर वामपंथी केपी ओली प्रचंड जनादेश हासिल करते हुए फरवरी के आखिर में नेपाल की सत्ता पर काबिज हो गए और जिसके बाद भारत ने उनके साथ नए सिरे से संबंध स्थापित करने की कोशिशें शुरू कीं। वैसे नेपाल भी भारत से दूर नहीं रह सकता। यह नेपाल की हम पर अति-निर्भरता का ही असर है कि नई दिल्ली के प्रति दुराव होने के बावजूद ओली प्रधानमंत्री पद पर काबिज होने के तुरंत बाद भारत यात्रा पर आए, ताकि दोनों देशों के रिश्तों पर जमती बर्फ को पिघलाया जा सके। चीन के प्रति झुकाव रखने वाले ओली ने अपनी हालिया तीन दिवसीय भारत यात्रा के दौरान कहा कि उनकी इस यात्रा का मकसद यही है कि दोनों देशों के मैत्रीपूर्ण संबंध मजबूत हों तथा परस्पर विश्वास और आपसी हित के आधार पर द्विपक्षीय संबंधों को एक नई दिशा मिले।

लेकिन यहां पर कहना होगा कि भारत ने अपनी अदूरदर्शी व गलत ढंग से विचारित नीति की वजह चीन को नेपाल में पांव जमाने का मौका दे दिया, जो कि इसका भरपूर दोहन करना चाहता है। अब तक नेपाल का 70 फीसदी आयात भारत से होता रहा है। लेकिन अब चीजें बदलने लगी हैं। नेपाल में चीन के बढ़ते कदमों के साथ आपसी व्यापार का एक बड़ा हिस्सा चीनियों की ओर खिसक सकता है और यह भारत का नुकसान ही होगा।

चीन पहले ही अपने महत्वाकांक्षी ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के लिए नेपाल का समर्थन हासिल कर चुका है और इस तरह उसने काठमांडू को भारत के विशिष्ट दायरे से बाहर कर दिया है। अब नेपाल की बाकी दुनिया तक पहुंच सिर्फ भारत के जरिए ही नहीं, बल्कि चीन और पाकिस्तान के जरिए भी उतनी ही या कहें कि कहीं अधिक हो सकेगी। इस तरह चीन की वजह से भारत और नेपाल के सहजीवी संबंधों पर असर पड़ा है। भारत को लगता है कि चीन जैसा कुटिल देश नेपाल को कर्ज के जाल में फंसाएगा, जैसा कि वह पाकिस्तान, मालदीव और श्रीलंका जैसे दूसरे पड़ोसी देशों के साथ कर रहा है। लेकिन इस वक्त ऐसा लगता नहीं कि नेपाल भारत की ऐसी आशंकाओं या चेतावनियों पर ध्यान देगा।

अब वह दौर नहीं रहा, जब भारत धौंस-डपट के जरिए नेपाल को सही रास्ते पर बनाए रख सकता था। अब ‘बिग ब्रदर वाला रवैया नहीं चलने वाला। ओली ने अपने पहले प्रधानमंत्रित्वकाल में कथित तौर पर भारत द्वारा की जा रही ‘आर्थिक नाकेबंदी को लेकर भारत के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया था। कहा यह भी गया कि भारत ने नेपाली कांग्रेस, माओवादियों और मधेसी ताकतों के साथ मिलकर ओली सरकार को गिराया। लेकिन अब माना जा रहा है कि मोदी सरकार हालात को समझ चुकी है क्योंकि उसने देख लिया है कि ओली का अपने देश की जनता पर कितना प्रभाव है, जो चुनाव नतीजों से जाहिर भी हुआ। इस वक्त दोनों ही पक्षों का रुख समझौतावादी नजर आ रहा है, लेकिन यह कब तक रहेगा, कह नहीं सकते।

नई दिल्ली की ओर से एक अच्छा निर्णय यह लिया गया कि भारत नेपाल की नदियों को जलमार्ग के रूप में विकसित करने में मदद करेगा। उसके ये जलमार्ग भारतीय जलमार्गों से भी जुड़ेंगे, जिससे नेपाल को समुद्र तक अतिरिक्त प्रवेशमार्ग मिलेगा। इस पहल से ऐसी कनेक्टिविटी निर्मित होने के अलावा माल की आवाजाही में भी मदद मिलेगी। इसके अलावा रक्सौल और काठमांडू घाटी के बीच विद्युतीकृत रेल संपर्क से भी बेहतर कनेक्टिविटी व व्यापार को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। इस बारे में व्यापक प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार की जा रही है, जिसके आधार पर इसके क्रियान्वयन और फंडिंग संबंधी कार्य-योजनाओं को अंतिम रूप दिया जाएगा। भारत पहले ही भारत-नेपाल क्रॉस बॉर्डर रेल लिंक परियोजनाओं के प्रथम चरण पर काम कर रहा है। उम्मीद है कि इसके तहत रेलवे लाइनों को जयनगर से जनकपुर/कुर्था और जोगबानी से बिराटनगर कस्टम यार्ड तक बढ़ाने का काम इस साल के अंत तक पूरा हो जाएगा। इसके अलावा भारत-नेपाल रेल लिंक परियोजनाओं के दूसरे चरण में न्यू जलपाईगुड़ी-काकड़भिट्टा, नौतनवा-भैराहवा और नेपालगंज रोड-नेपालगंज को जोड़ने के लिए चल रहा फाइनल लोकेशन सर्वे का काम भी जल्द ही पूरा हो जाएगा।

कृषि के क्षेत्र में भारत ऑर्गेनिक फार्मिंग व मृदा स्वास्थ्य सुधार संबंधी एक पायलट प्रोजेक्ट भी चलाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड मुहैया कराने की अपनी सरकार की पहल के बारे में ओली को बताया और कहा कि इसे नेपाल में भी अपनाया जा सकता है। फिलहाल नेपाल का जोर इस बात पर है कि पंचेश्वर (बहुउद्देश्यीय जलविद्युत परियोजना) और महाकाली जैसी परियोजनाओं को प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाए, जो लंबे समय से अटकी हैं। भारत बीते कुछ समय से इनसे अपने हाथ खींच रहा था, लेकिन अब कहीं ज्यादा स्पष्ट राजनीतिक सोच के साथ इस बात की उम्मीद है कि लंबे समय से अटकी इन परियोजनाओं के काम में तेजी आएगी।

ओली ने भारत यात्रा पर आते हुए भारत के साथ आपसी संबंधों को सामान्य करने की कोशिश की है, लेकिन इसमें अवरोध भी आएंगे। ऐसी किसी भी कोशिश जिससे यह लगे कि भारत नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना चाहता है, उसके बदले में चीन नेपाल को भारत से दूर करने की हर मुमकिन कोशिश करेगा। चीन अपने भू-सामरिक लक्ष्यों के तहत ऐसी योजना पर काम कर रहा है, जिससे पड़ोसी देशों में भारत के समर्थक आधार में सेंध लगाते हुए इसे कमजोर कर दिया जाए। पाकिस्तान को अपना विश्वस्त मोहरा बनाने की कोशिशों में सफल होने के बाद अब वह श्रीलंका और मालदीव जैसे देशों से भी नजदीकियां बढ़ाने में जुटा है।

ऐसी सूरत में भारत को देरसबेर चीन को यह दिखाना ही होगा कि वह अपने क्षेत्र में चीनी दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं कर सकता और न ही करेगा। इस दिशा में भारत का नेपाल के ओली शासन के प्रति समझौतावादी रवैया अख्तियार करना एक अच्छी शुरुआत कही जा सकती है। चीन नेपाल को हर तरह से अपने झांसे में लेना चाहेगा और नेपाल उससे तभी बच सकता है, जब भारत और अमेरिका जैसे देशों का उसे पूरा समर्थन मिले। भारत को अपने सामरिक हितों का ख्याल रखते हुए नेपाल की नई सरकार के साथ दोस्ताना संबंधों को एक नए मुकाम पर ले जाना होगा, ताकि इस पड़ोसी मुल्क को चीन पर निर्भर होने से बचाया जा सके।

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