*प्रश्न: पेट्रोल डीजल की कीमतों में दैनिक संशोधन की नीति के संभावित प्रभावों पर चर्चा करते हुए बताएँ कि अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कम होती कीमतों के बावजूद भारत में पेट्रोल डीजल के कीमतों में लगातार हो रही वृद्धि को कैसे कम किया जा सकता है?*

 

पेट्रोल और डीजल के दामों में हो रही वृद्धि के कारण बढ़ते विरोध के बावजूद सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों से संबंधित अपनी नई नीति में बदलाव की किसी भी संभावना से इनकार किया है। गौरतलब है कि इस साल 16 जून से पूरे देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतें दैनिक आधार पर तय की जा रही हैं, जबकि पहले ऐसा प्रत्येक 15 दिन पर किया जाता था।

*पृष्ठभूमि*

इस वर्ष 16 जून से पूरे देश में पेट्रोल और डीजल की कीमतों को दैनिक आधार पर संशोधित किया जा रहा है। इससे पहले लगभग प्रत्येक 15 दिन के बाद यह संशोधन किया जाता था। यदि इन 15 दिनों में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कोई परिवर्तन देखने को मिला तो उसके अनुरूप आवश्यक कदम नहीं उठाया जा सकता।
यही कारण है कि दैनिक आधार पर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें तय करने की नीति पर अमल करते हुए भारत, अमेरिका जैसे विकसित देशों की कतार में जा खड़ा हुआ है। लेकिन, मूल प्रश्न यह है कि जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें नहीं बढ़ रही हैं तो भारत में पेट्रोल की कीमतें क्यों आसमान छू रही हैं?
चिंताजनक परिस्थितियाँ
पेट्रोल और डीजल की कीमतों का भारत में लगातार वृद्धि के खिलाफ आज एक व्यापक आक्रोश देखा जा रहा है। दरअसल, यह तर्क किसी के गले उतर ही नहीं सकता कि जब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतों में भारी वृद्धि हुई ही नहीं है तो फिर भारत में लोगों को ज़्यादा मूल्य क्यों चुकाने पड़ रहे हैं?
जब सरकार ने तेल की कीमत बाज़ार के हवाले कर दी यानी बाज़ार के अनुसार इसकी कीमतें तय होंगी तो फिर यह बाज़ार के अनुसार हैं क्यों नहीं? आखिर इस वृद्धि के पीछे अर्थशास्त्र का कौन-सा सिद्धांत काम रहा है?
यदि कीमतें बाज़ार के अनुसार निर्धारित हों तो फिर पेट्रोल 70 से 82 रुपए एवं डीजल 58 से 60 रुपए प्रति लीटर मिलने का कोई कारण ही नहीं होना चाहिये।
16 जून, 2017 से सरकार ने प्रतिदिन के आधार पर तेलों के मूल्य तय करने का सूत्र आरंभ किया। इसे तेल के क्षेत्र में बहुत बड़ा सुधार बताया गया। किंतु यह सुधार उपभोक्ताओं पर भारी पड़ रहा है। वास्तव में पेट्रोल-डीजल के दामों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।

*आँकड़ों का गणित*

वर्तमान परिदृश्य को नज़र में रखते हुए विचार करें तो अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतों में पिछले तीन महीने में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, हालाँकि यह वृद्धि इतनी कम है कि भारत के लोगों को आराम से सस्ता तेल दिया जा सकता है।
विदित हो कि एक जुलाई, 2014 को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल का भाव 112 डॉलर प्रति बैरल था और तब दिल्ली में पेट्रोल 73.60 रुपए प्रति लीटर बिक रहा था। जब कच्चे तेल की कीमतें गिरकर 106 डालर प्रति बैरल पर आ गई तो भारत में पेट्रोल 68.51 रुपए प्रति लीटर मिल रहा था।
यहाँ तक तो सब ठीक नज़र आता है, लेकिन वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल का दाम 54 डॉलर प्रति बैरल के आसपास है। ऐसे में पेट्रोल एवं डीजल की कीमतें इतनी बढ़ी हुई नहीं होनी चाहिये थीं। दरअसल, पिछले तीन वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की कीमतें लगभग 50 प्रतिशत तक गिर गई हैं।
क्या है सरकार का पक्ष?
विदित हो कि पिछले तीन सालों में पेट्रोलियम उत्पादों से होने वाली राजस्व वसूली में 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2014-15 में कुल राजस्व वसूली 3 लाख 32 हज़ार 620 करोड़ रुपए थी। 2016-17 में यह बढ़कर 5 लाख 24 हज़ार 304 करोड़ रुपए हो गई। वहीं वर्तमान वित्त वर्ष की पहली तिमाही में ही पेट्रोलियम उत्पादों से होने वाली कुल वसूली 1 लाख 24 हज़ार 508 करोड़ रुपए है।
इस संबंध में सरकार का तर्क यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर जो भी शुल्क लिया जाता है वह विकास कार्यों में खर्च होता है। करीब 42 प्रतिशत उत्पाद शुल्क राज्यों को आधारभूत ढाँचा और अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिये दिया जाता है। हालाँकि किसी ऐसे सुधार जिससे लोगों की जेब पर अनावश्यक बोझ बढ़े, को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन सरकार का तर्क भी उचित है।
*आगे की राह*

इस संबंध में सरकार का तर्क यह है कि पेट्रोलियम उत्पादों पर जो भी शुल्क लिया जाता है वह विकास कार्यों में खर्च होता है। करीब 42 प्रतिशत उत्पाद शुल्क राज्यों को आधारभूत ढाँचा और अन्य कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिये दिया जाता है। हालाँकि किसी ऐसे सुधार जिससे लोगों की जेब पर अनावश्यक बोझ बढ़े, को लेकर विवाद हो सकता है, लेकिन सरकार का तर्क भी उचित है।
*आगे की राह*

हमारे सामने यक्ष प्रश्न यह है कि इस समस्या का समाधान कैसे हो? पेट्रोलियम उत्पादों की मूल्य वृद्धि का सबसे बड़ा कारण तेलों पर लगने वाला शुल्क माना जाता है। इसमें केन्द्र का उत्पाद शुल्क अलग होता और राज्यों का वैट भी अलग से लगाया जाता है।
राज्यों के बारे में कहा जाता है वे पेट्रोलियम उत्पादों पर जितना कर वसूलते हैं वह अति है। उदाहरण के लिये महाराष्ट्र द्वारा पेट्रोल पर 47.64 प्रतिशत का वैट शुल्क लगाया जाता है।
पेट्रोलियम उत्पादों के दाम घटाने का एक रास्ता यह है कि केन्द्र उत्पाद शुल्क में कमी लाए तथा राज्य भी अपने वैट शुल्कों में कमी करें।
राज्यों ने तेलों को जीएसटी में लाने का विरोध किया था, क्योंकि वे पेट्रोल एवं डीजल से होने वाली कमाई नहीं छोड़ना चाहते थे। दरअसल वैट में राज्यों द्वारा मनमाफिक शुल्क आरोपित किया जा सकता है, लेकिन यदि इन उत्पादों को जीएसटी के अंतर्गत ला दिया गया तो एक समान दरें लागू हो जाने के कारण वे ऐसा नहीं कर पाएंगे। अतः कीमतों पर नियंत्रण के लिये इन्हें जीएसटी के अंतर्गत लाना एक उत्तम विचार है।
गौरतलब है कि अब तेल कंपनियों का घाटा भी खत्म हो चुका है और आज वो मुनाफा कमा रही हैं। इन परिस्थितियों में सरकारों को पेट्रोलियम उत्पादों पर मनमाफिक शुल्क आरोपित कर खज़ाना भरने के बजाय आर्थिक सुधारों पर ध्यान देना चाहिये।

*निष्कर्ष*

दरअसल, पेट्रोल और डीजल की कीमतों में त्वरित परिवर्तन की आशंका लगातार बनी रहती है। यदि ईंधन की कीमतों को सम्मिलित करते हुए तैयार किये गए मुद्रास्फीति के आँकड़ों के आधार पर मौद्रिक नीतियों का निर्माण किया जाए तो बदलती कीमतों के आधार पर नीतियों में भी बदलाव लाना होगा और मौद्रिक नीतियों में साप्ताहिक या अर्द्धमासिक बदलाव लाया जाना व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता।
लेकिन, यदि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें लगातार आसमान छू रही हों तो यह अर्थव्यवस्था में माँग एवं उत्पादन चक्र को व्यापक समय के लिये बुरी तरह से प्रभावित करती है और फिर इससे मुद्रास्फीति में भी वृद्धि देखने को मिलती है। अतः यह उचित समय है कि इस बारे में कुछ व्यावहारिक प्रयास किये जाएँ।

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