मुकेश असीम
फ़रवरी 2017 के बजट में की गयी घोषणा के मुताबिक़ किसानों और कृषि उद्योगों के आपसी सम्बन्धों को गहरा करने हेतु केन्द्र सरकार के कृषि मन्त्रालय ने 23 दिसम्बर को कृषि उत्पादन और पशुपालन में काॅण्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न राज्यों द्वारा बनाये जाने वाले क़ानून का एक मॉडल मसौदा प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तावित क़ानून का मुख्य प्रावधान है कि किसान अपनी ज़मीन के मालिक रहते हुए समूहबद्ध होकर उत्पादक संघ या कम्पनी बना सकेंगे। ये संघ कृषि माल क्रेताओं से सीधे अग्रिम विक्रय क़रार कर सकेंगे, उन्हें मण्डियों/कृषि उपज समितियों के ज़रिये सौदा करना ज़रूरी नहीं होगा। ख़रीदारों के अतिरिक्त क़र्ज़ देने वाले बैंक, बीमा कम्पनी, अन्य कृषि सम्बन्धित कम्पनियाँ भी इस क़रार में भागीदार बन सकेंगी। यह व्यवस्था फ़सलों, पशु-मुर्गी-मछली-सूअर, आदि पालन, मधुमक्खी, रेशम, वन उत्पादों, आदि विभिन्न कृषि सम्बन्धी उद्योगों पर लागू होगी। माल क्रेता क़रार की शर्तों के अन्तर्गत उत्पादन प्रक्रिया में भी हिस्सेदारी और बीज, खाद, तकनीकी, यन्त्रों, प्रबन्धन, आदि की आपूर्ति कर सकेंगे अर्थात मालिकाना के बग़ैर पूरी प्रक्रिया को अपने हाथ में ले सकेंगे। कृषि आदि उत्पादों की प्रोसेसिंग (शोधन और प्रसंस्करण) – चाहे हाथ से हो या मशीनों, रसायनों, आदि से – भी इसके अन्तर्गत आयेगी अर्थात खेत में उत्पादन से कृषि और कृषि सम्बन्धित उद्योगों के उत्पादों के उपभोक्ता तक पहुँचने तक होने वाली सारी प्रक्रियाएँ। इन क़रारों के तहत कृषि उत्पादों की ख़रीदारी/व्यापार करने वाली कम्पनियों पर उत्पादों के स्टॉक, आदि की मौजूदा सीमाएँ आयद नहीं होंगी। इन क़रारों का पंजीकरण और इन्हें लागू कराने, सम्बन्धित विवाद निपटाने, नियम-प्रक्रियाएँ बनाने हेतु राज्य नियामक संस्थाएँ भी बनायेंगे जो इन क़रारों पर 0.3% तक शुल्क वसूल सकेगी।
इस मसौदे को तैयार करने वाली कमिटी ने इसके मक़सद और वजहों को भी स्पष्ट किया है। इसके अनुसार देश के 12 करोड़ किसान परिवारों में 86% छोटे (2 हेक्टेयर तक ज़मीन) तथा सीमान्त (1 हेक्टेयर तक) हैं और औसत किसान के पास 1.1 हेक्टेयर ज़मीन है। कृषि जोत के छोटे आकार ने इनके अस्तित्व को ही सन्देहास्पद बना दिया है क्योंकि इनकी उत्पादकता और कुशलता बहुत कम है। जब तक खेती का मूल चरित्र मात्र किसान परिवार की गुज़र-बसर था, उसके उत्पाद उनके उपभोग की ज़रूरतों को पूरा कर देते थे और बहुत कम अधिशेष उत्पाद ही माल के रूप में बाज़ार में आता था, तब तक उत्पादकता और कुशलता का सवाल ज़्यादा अहमियत नहीं रखता था। किन्तु आज अधिकांश कृषि उत्पादों का बाज़ार विक्रय वाले अधिशेष का अनुपात निरन्तर बढ़ रहा है और किसान परिवारों की खेती के उत्पाद से पूरी न होने वाली उपभोक्ता आवश्यकताएँ भी लगातार बढ़ती जा रही हैं। इसलिए कृषि जोत की उत्पादकता, कुशलता और लाभप्रदता का सवाल महत्वपूर्ण हो गया है।
मसौदे में आगे कहा गया है कि कृषि लागत और मूल्य आयोग के अनुमानों के अनुसार उत्पादन लागत साल दर साल बढ़ रही है जिससे किसानों की शुद्ध आय पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। इसलिए कृषि में निवेश और उत्पाद के बेहतर प्रबन्धन की आवश्यकता है, जिसका मुख्य निर्धारक उत्पादन/परिचालन का पैमाना है। अगर मालिकाना समाप्त किये बग़ैर ही छोटे व सीमान्त किसानों की जोतों को परिचालन की एक सामूहिक इकाई में जोड़ दिया जाये तो बड़े पैमाने के उत्पादन से होने वाली किफ़ायत का फ़ायदा उठाकर उनकी उत्पादकता और आय को बढ़ाया जा सकता है, जिसके लिए क़रार आधारित खेती या काॅण्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग एक बेहतर उपाय है।
हालाँकि इस मसौदे में बाज़ार भाव के जोखिम को कम करने हेतु व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से किसानों द्वारा प्रायोजक या उत्पाद क्रेता के साथ उत्पादन पूर्व मूल्य क़रार को इस क़ानून का मुख्य आधार बताया गया है, इस क़ानून के वास्तविक प्रावधान इससे कहीं अधिक व्यापक हैं। इस क़रार के अन्तर्गत प्रायोजक माल ख़रीदार तकनीक, कृषि पद्धति, फ़सल सम्बन्धी सभी आवश्यक यन्त्र, बीज, खाद जैसी आवश्यकताएँ व सेवाएँ और पेशेवर प्रबन्धन भी प्रदान कर सकता है। संक्षेप में कहा जाये तो एक पूर्व निश्चित रक़म के बदले में वह पूरे कृषि कार्य का संचालन अपने प्रबन्धन में सँभाल ले सकता है।
इस बात से तो कोई इंकार नहीं कर सकता कि छोटे और सीमान्त ही नहीं बहुत से मँझोले किसानों द्वारा की जाने वाली खेती भी आज पूरी तरह घाटे का सौदा है क्योंकि उनके उत्पादन की ऊँची लागत कृषि उत्पादों की बाज़ार क़ीमतों से अधिक पड़ती है। इसका कारण छोटे पैमाने के उत्पादन में प्रति इकाई अधिक श्रम का उपयोग, ज़रूरत के वक़्त ट्रैक्टर आदि यन्त्रों को ऊँचे भाड़े पर लेने की मज़बूरी और कम मिक़दार में उत्पादन सामग्री ख़रीदने पर ऊँचे दाम अर्थात कम पूँजी से पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में होने वाले सभी नुक़सान शामिल हैं। इसका नतीजा छोटे-सीमान्त किसानों के भारी क़र्ज़ में डूबने, उनके जीवन में भारी दुःख-तकलीफ़ और नतीजतन बढ़ती आत्महत्याओं के रूप में हम सबके सामने हैं। लेकिन क्या यह क़रार आधारित खेती इसका कोई समाधान प्रस्तुत कर सकती है?
भारत में अभी सामन्ती कृषि (अधिशेष सामन्ती शोषकों को सौंप बचे हिस्से से जीवनयापन करने के लिए उत्पादन) नहीं है। यहाँ कृषि में माल उत्पादन अर्थात बाज़ार में विनिमय के लिए उत्पादन ही प्रभावी है और विनिमय में प्राप्त धनराशि से ये किसान बाज़ार से उपभोग के लिए अन्य ज़रूरी माल ख़रीदते हैं जो पूँजीवादी उत्पादन पद्धति का आधार हैं। लेकिन भारतीय राज्य ने कृषि में उत्पादन के जैविक संघटन में पूँजी निवेश की गति को नियन्त्रित रखा है क्योंकि वह बड़े पैमाने के उत्पादन द्वारा कृषि की ज़रूरतों के लिए फ़ालतू हुई श्रम शक्ति को उद्योगों में खपा पाने की क्षमता नहीं रखता था। इसलिए छोटे पैमाने का कृषि उत्पादन अभी भी बहुत व्यापक है यद्यपि यह किसानों के बड़े हिस्से के लिए कंगाली का ही उत्पादन करता है क्योंकि छोटी पूँजी वाला उत्पादक बडी पूँजी वाले उत्पादक के मुकाबले अधिक लागत पर उत्पादन करता है और हानि में रहता है, यह हानि का नतीजा उसे ख़ुद अपने श्रम की क़ीमत भी न मिल पाने में अभिव्यक्त होती है। इसलिए बड़ी संख्या में सीमान्त किसान परिवार आज पूरी तरह श्रमिक बन चुके परिवारों से भी अधिक कंगाल हैं। ऐसे भी देखें तो अर्थव्यवस्था के 12% उत्पादन में 45% जनसंख्या लगी हो तो उसके हिस्से कंगाली के सिवा क्या आ सकता है। फिर छोटे पैमाने पर उत्पादन के कारण भारत में कृषि की उत्पादकता बहुत कम है – वैश्विक स्तर पर उत्पादन की आधी-तिहाई या और भी कम। इसी वजह से पिछले सालों में कृषि से पलायन तेज़ हुआ है।
पर नियन्त्रित गति के बावजूद भी कृषि में पूँजी निवेश और यन्त्रीकरण की प्रक्रिया निरन्तर तेज़ हुई है – कृषि अब पारिवारिक श्रम और हल-बैल पर आधारित नहीं है। दूसरे, सभी किसानों के लिए खेती अलाभकारी नहीं है। धनी किसानों द्वारा पूँजी निवेश और यन्त्रों के उपयोग से बड़ी जोतों पर की जाने वाली खेती बड़े पैमाने के उत्पादन की किफ़ायत और प्रति इकाई उत्पादन की कम लागत के कारण लाभप्रद है। इसीलिए बड़े भूपतियों, अमीर किसानों के साथ ही ज़मीन की कि़स्म, सिंचाई, अन्य संरचनात्मक सुविधाओं, आदि की उपलब्धता के आधार पर प्रति हेक्टेयर 60 हज़ार से सवा-डेढ़ लाख रुपये प्रति वर्ष पर ज़मीन किराये पर लेने वाले ग्रामीण कृषि व्यावसायियों का एक वर्ग भी अस्तित्व में आया है। यह तबक़ा श्रमिकों की श्रम शक्ति ख़रीद कर लाभप्रद खेती करता है, साथ ही छोटे-सीमान्त किसानों और बाज़ार के बीच का बिचौलिया बनकर भी लाभ कमाता है; सरकारी समर्थन मूल्यों का लाभ भी यही तबक़ा लेता है (हाल की रिपोर्टों के अनुसार किसानों का मात्र 5-6% हिस्सा ही सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य का प्रयोग कर पाता है)।
अब भारतीय पूँजीवादी राज्य छोटे-सीमान्त किसानों को ज़मीन के मालिकाने को छोड़ पाने के सांस्कृतिक प्रतिरोध को बाईपास करके इस पहले ही धीमी गति से परन्तु निरन्तर जारी प्रक्रिया को तेज़ और औपचारिक बनाने के लिए क़ानूनी प्रावधान कर रहा है। इन क़रारों के अन्तर्गत होने वाली कृषि प्रभावी रूप से व्यवसायी कॉर्पोरेट खेती ही होगी जिसमें इन छोटे ज़मीन मालिकों को ज़मीन का कुछ किराया ही प्राप्त होगा या ख़ुद श्रम शक्ति बेचने पर मज़दूरी भी। लेकिन अधिक पूँजी निवेश और उन्नत यन्त्रों के प्रयोग से श्रम शक्ति की ज़रूरत भी बहुत कम हो जायेगी तथा ये मुख्यतः अन्य उद्योगों में श्रमिक बनने के लिए मुक्त हो जायेंगे।
इस प्रकार कृषि में भी उत्पादन के सामाजिकीकरण का दरवाज़ा पूरी तरह खुल जायेगा, पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के नियम से कृषि में भी पूँजी और उत्पादन का केन्द्रीकरण तेज़ होगा तथा वर्ग विभाजन स्पष्ट हो जायेगा। पूँजी निवेश और उन्नत तकनीक के उपयोग से उत्पादकता तो बढ़ेगी किन्तु उसी से अति उत्पादन और संकट के दौर भी आयेंगे; और हर दौर में तुलनात्मक रूप से छोटे उत्पादकों के विनाश के द्वारा और अधिक इजारेदारी स्थापित होगी जैसे आज अमेरिका में 200-400 एकड़ वाले पारिवारिक किसान भी बड़े पैमाने पर औद्योगिक कृषि के आगे बरबाद हो आत्महत्या कर रहे हैं।
इस प्रकार बड़े पैमाने पर छोटे, सीमान्त एवं मँझोले किसानों का सर्वहाराकरण होगा। गाँवों से धनी किसानों और एग्रो बिज़नेस द्वारा इनका बलपूर्वक उजाड़ा जाना एक बेहद दर्दनाक और तकलीफ़देह प्रक्रिया होने वाली है। मगर पूँजीवाद में समाज के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया तो यही है – उत्पादन के सामाजिकीकरण-केन्द्रीकरण द्वारा किसानों के सर्वहारा-करण का मुकाबला पीछे जाकर छोटे पैमाने के कुटीर उत्पादन की रूमानियत में नहीं बल्कि आगे बढ़कर निजी सम्पत्ति के उन्मूलन और सामूहिक स्वामित्व में सामूहिक आवश्यकताओं के लिए उत्पादन की समाजवादी व्यवस्था में ही है जिसमें कृषि भूमि का राष्ट्रीयकरण कर सामूहिक और राजकीय खेती की व्यवस्था स्थापित कर पूरे समाज की आवश्यकता के लिए उत्पादन होगा। गाँवों से उजाड़े जाते इन किसानों को अपने हित ख़ुद को सिर्फ़ कंगाली की जि़न्दगी देते ज़मीन के छोटे टुकड़ों में नहीं बल्कि मज़दूर वर्ग के साथ मिलकर निजी स्वामित्व की पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था को उखाड़ फेंकने में देखने होंगे।
मज़दूर बिगुल, जनवरी 2018