(अनिल उपाध्याय)
काले धन के खिलाफ कार्रवाई के क्रम में सरकार ने दो लाख चौबीस हज़ार कंपनियों को रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज के रिकॉर्ड में से समाप्त कर दिया है। इसका मतलब है कि उनका अस्तित्व अब नहीं रहा और वह अब अपने कार्य को नहीं कर सकती। हकीकत यह है कि ये कंपनियां कार्य करती ही नहीं थीं और एक खोल के रूप में अस्तित्व में थीं, जिन्हें ‘‘शेल कंपनी ‘‘ कहा जाता है। इनमें से ज्यादातर कंपनियां अपना लेखा जोखा रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज को पिछले तीन साल से नहीं दे पायीं थीं। इस कमी को आधार बना कर इनको रिकॉर्ड में से समाप्त किया गया। इसके अलावा, लगभग उनके तीन लाख नौ हजार डायरेक्टर भी अयोग्य किए गए हैं।
यह संभव हुआ उन आंकड़ों का संज्ञान लेकर जो कि सरकार को नोटबंदी के उपरांत बैंकों से प्राप्त हुए। यह आंकड़े दर्शाते हैं कि लगभग 58000 खातों द्वारा 17000 करोड़ की रकम को अवैध रूप से जमा किया गया एवं निकाला गया। देश में अच्छे स्वतंत्र डायरेक्टर उपलब्ध नहीं है और फर्जी डायरेक्टरों की भरमार है। यह सब कुछ ऐसा है कि मानो शेर को जंगल में शिकार नहीं मिला हो और वह गांव पर हमला कर दे या किसी शिकारी की नजरों से अगर देखा जाए तो यह प्रक्रिया शुरू में चारे को डाल कर शिकार पकड़ने वाली प्रक्रिया थी, जो बाद में अब ढोल बजा के शिकार को मांद में से निकालने सरीखी है। मगर रास्ता चाहें जो भी अपनाया जाएं; असल बात तो टैक्स चोरी को रोकना एवं निष्क्रिय धन को आर्थिक विकास की मुख्यधारा में लाने की है। इस प्रयास में सरकार तरह-तरह के उपाय कर रही है। अभी हाल ही में एक बड़ी आईटी कंपनी को काफी बड़ा ठेका (लगभग 600 करोड़ रुपये का) सोशल मीडिया इंटेलिजेंस द्वारा कर चोरी का पता लगाने के लिए दिया गया है।
इतना सब प्रयास इसलिए करने पड़ रहे हैं कि ‘‘जुगाड़’ हम भारतीयों की नस-नस में है । स्टार्टअप या एप भी इसी ‘‘जुगाड़’ का प्रतिरूप हैं। अपनी इस प्रतिभा का प्रदर्शन नोटबंदी के दौरान लोगों ने बैंक वालों की मदद से खूब किया। कस्टमर को भगवान मानने की हिदायत वाले पोस्टर बैंकों में लगे ही हुए थे और इस बात को समझने में कहीं-कहीं बैंक वालों से भी भूल हुई की वे रातों-रात इनकम टैक्स अधिकारी बन चुके थे। खैर! जो हुआ सो हुआ, मगर अब जो आगे-आगे हो रहा है वह क्रांतिकारी ही कहा जाएगा। आज तक किसी ने कंपनियों से नहीं पूछा था, जब तक की वह कोई ऋण लेने किसी वित्तीय संस्था के पास न जाएं, कि आप के ‘‘मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन’ एवं ‘‘आर्टकिल्स ऑफ एसोसिएशन’ का पालन कर भी रही है कि नहीं कर रहीं। रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज की हैसियत एक जनम-मरण पंजीकरण कार्यालय से अधिक कभी महसूस नहीं की गई थी। परन्तु इस तरह का बड़ा कदम उठा कर सरकार ने इस ओर बरती जाने वाली उदासीनता को एक झटके में समाप्त किया है। वहीं, हमारे देश की दिलचस्प बात यह है कि यहां कई कानूनों का उद्देश्य कुछ और होता है मगर उनका इस्तेमाल किसी और ही एरिया में होने लगता है।
उदाहरण के लिए बीआईएफआर (बोर्ड फार इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंसियल रकिंस्ट्रक्शन) का उपयोग कंपनियों ने बीमार व्यवसाय को ठीक करने के लिए हुआ था। किंतु कंपनियों ने बोर्ड के अधिकारियों के साथ तालमेल मिला कर अपने आपको अन्य कानूनों के अंतर्गत वसूली प्रक्रियाओं से बचाने के लिए इसका उपयोग किया। सरकार ने इसका संज्ञान लिया और अब बोर्ड को समाप्त कर दिया गया है। इसी प्रकार ‘‘सिक्योरिटाइजेशन एंड रिस्कंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट्स (सरफेसी एक्ट) कानून’ एक नये प्रकार की फंडिंग प्रोडक्ट्स के उद्देश्य से किया गया था। मगर इस कानून का उपयोग रिकवरी के लिए ही हुआ। इधर भी कोई-न-कोई जुगाड़ एवं मिलीभगत के चलते ऋण वसूली में कोई खास सफलता हाथ नहीं लगी वरना जब ये कानून आया था तो लगता था अब बैंकों के ऋण वसूल हो जाया करेंगे मगर ऐसा नहीं हुआ।
आज पूरी पण्राली सक्रिय है। नये-नये कानून आ रहे हैं। हालांकि कुछ नये कानून अभी मीडिया का उतना ध्यान आकर्षित नहीं कर पा रहे जितना कि ‘‘जीएसटी’ ने किया। ऐसा ही एक कानून है ‘‘इन्सोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड’। दिलचस्प बात है कि इस कानून को ‘‘इज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के लिए लाया गया, मगर इसका पूरा इस्तेमाल सिर्फ रिकवरी के लिए ही किया जा रहा है। कॉर्पोरेट लेनदारों को इस कानून के अंतर्गत अधिकार दिए गए हैं और दीदार को भी अधिकार दिया गया है कि वह भी अपने व्यवसाय के न चलने की स्थिति में आसानी से व्यवसाय बंद कर सकते हैं। मगर एग्जिट मामलों की संख्या लगभग नगण्य है और दूसरे दाखिल मामलों की संख्या 18000 की संख्या को पार करती दिख रही है। यहां एक बात पर गौर करना आवश्यक होगा कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में इससे मिलते-जुलते कानूनों में, जैसे कि अमेरिका में सिर्फ देनदार को ही एग्जिट का अधिकार है। यहां सरकार ने चतुराई दिखाई ‘‘इज ऑफ डूइंग बिजनेस’ की रैंकिंग में छलांग भी लगा ली और बैंकों को एक हथियार भी पकड़ा दिया।
वैसे देखा जाए तो ऋण की वसूली ऋण देते वक्त ही सुनिश्चित की जाती है तो बैंकों को कानून ही कानून क्यों दिए जाते हैं रिकवरी के लिए? हम एक बात इस सब कानूनों के जंजाल में भूल रहे हैं कि ऋण की उगाही बिना कानूनी प्रक्रिया के सुनिश्चित की जानी चाहिए। ऐसा तभी संभव है जब ऋण देते समय बिजनेस की ताकत एवं प्रक्रिया में ईमानदारी एवं पारदर्शिता का कड़ाई से पालन हो। क्यों न इसके लिए एक स्वतंत्र संस्था हो जो केस को कभी भी जांच के लिए मंगा सके। कोर्ट सिर्फ पोस्टमॉर्टम के लिए ही न हों। मतलब यह कि न केवल फ्रॉड एवं भ्रष्टाचार के अपितु अच्छे खातों में भी ‘‘टेस्ट केसेस’ के तौर पर झांकने का अवसर मिले। आखिरकार अब सीवीसी ने 2001 से आज तक हुए फ्रॉडस की रिपोर्ट मांगी है। तीन करोड़ रुपये से ऊपर के इन फाड्रों की संख्या काफी ज्यादा होगी और इसके उद्देश्य क्या है, यह अभी स्पष्ट नहीं है। हालांकि ऊपरी तौर पर कहा जा रहा है कि एक पैटर्न की स्टडी के लिए यह डाटा मांगा जा रहा है मगर इसके कई और आयाम हैं।(RS)