आनन्द

झूठ को सच बनाने के लिए समाज में अफ़वाहें फैलाना दुनिया के सभी फ़ासिस्टों का अहम राजनीतिक हथकण्डा रहा है। हमारे देश के हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट भी समाज के रग़-रग़ में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत का ज़हर फैलाने और दंगे भड़काने में इस हथकण्डे का जमकर इस्तेमाल करते आए हैं। संघ परिवार के निक्करधारी अफ़वाहबाज पहले मुहाँ-मुहीं अफ़वाहें फैलाते थे, लेकिन उसकी एक भौगोलिक सीमा होती थी और वह बहुत ज़्यादा समय तक चल नहीं पाता था। लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान हुई सूचना क्रान्ति ने संघियों के अफ़वाहतंत्र में नई-नई तकनीकें जोड़ी हैं जिसकी वजह से अफ़वाह फैलाने की तमाम भौगोलिक और समय की सीमाएँ लाँघी जा चुकी हैं और समूचा भारतीय समाज अफ़वाहों के सूनामी की चपेट में आ गया है। पहले टेलीफ़ोन फिर इंटरनेट और उसके बाद सोशल मीडिया और स्मार्ट फ़ोन तथा व्हाट्सएप के आने से संघ परिवार का यह संगठित अफ़वाह तंत्र दिन दूनी और रात चौगुनी रफ़्तार से फल-फूल रहा है। सोशल मीडिया और व्हाट्सएप के ज़रिये फैलायी जा रही तस्वीरों और वीडियो की वजह से दंगे और साम्प्रदायिक वारदातें तो हो ही रही हैं, साथ ही समूचे समाज में, ख़ासकर अल्पसंख्यक तबके के बीच, एक निरन्तर भय का माहौल क़ायम करने में इन डिजिटल तकनीकों द्वारा फैलाई जा रही ज़हरीली सामग्री की बहुत बड़ी भूमिका रही है। इसके अतिर‍िक्त सरकार अपने फिसड्डीपन को छिपाने के लिए और उपलब्धियों को बढ़ाचढ़ाकर पेश करने में फ़ेक न्यूज़ का इस्तेमाल कर रही है।

इंटरनेट, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप के ज़रिये समाज में झूठी ख़बरों को फैलाने की यह परिघटना, जिसे फ़ेक न्यूज़ के नाम से जाना जाता है, दुनिया भर में भयावह रूप अख़्तियार करती जा रही है। अमेरिका में पि‍छले राष्ट्रपति चुनावों में ट्रम्प के अभियानकर्ताओं ने फ़ेक न्यूज़ का जमकर इस्तेमाल करते हुए अप्रवासियों, मुस्लिमों और लातिन लोगों व अश्वेतों के ख़िलाफ़ नफ़रत का माहौल बनाया जिसने ट्रम्प की जीत में अहम भूमिका निभायी। इसी तरह से यूरोप के तमाम देशों में भी अप्रवासियों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने में फ़ेक न्यूज़ का जमकर इस्तेेमाल किया जा रहा है। ब्रिटेन में यूरोपीय संघ से अलग होने के लिए हुए जनमतसंग्रह के दौरान भी फ़ेक न्यूज़ का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया। लेकिन भारत में फ़ेक न्यूज़ की परिघटना जिस क़दर फैल रही है उसकी मिसाल दुनिया में शायद ही किसी और देश में देखने को मिले। इसकी वजह यह है कि भारत में अधिकांश फ़ेक न्यूज़ संघ जैसे काडर आधारित फ़ासिस्ट संगठन के द्वारा संगठित तरीके से फैलाया जा रहा है जिसकी पहुँच देश के कोने-कोने तक है।

यूँ फैलाया जाता है फ़ेक न्यूज़ के ज़रिये नफ़रत का ज़हर!

राजनीतिक प्रोपगैण्डा के लिए सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने में भारतीय जनता पार्टी की आईटी सेल किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में सबसे आगे रही है। भाजपा की आईटी सेल के अतिरिक्त संघ परिवार ने ऑनलाइन ट्रोल्स की एक पूरी फ़ौज खड़ी कर रखी है जो फ़र्जी ख़बरों को फ़ेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप के ज़रिये पलक झपकते ही पूरे देश में फैला देते हैं। इन फ़र्जी ख़बरों का मुख्य स्रोत hindutva.info, dainikhindu.org और postcard news जैसी वेबसाइटें हैं जो लगातार ख़बरों को बढ़ाचढ़ाकर, उन्हें सन्दर्भ से काटकर और सच में झूठ मिलाकर भड़काऊ और सनसनीखेज शीर्षक वाले लेखों तस्वीरों और वीडियो के माध्य‍म से फ़ेक न्यूज़ तैयार करती हैं। इन वेबसाइटों से I Support Indian Army, I Support Narendra Modi, I Support Rohit Sardana जैसे नामों वाले ढेरों फ़ेसबुक पेज जुड़े होते हैं जिनके ज़रिये रोज़ लाखों की संख्या में इन वेबसाइटों पर जाते हैं। ग़ौरतलब है कि इन वेबसाइटों को चलाने वाले अपनी वेबसाइटों पर विज्ञापन लगाकर जमकर कमाई भी कर रहे हैं। वे औपचारिक रूप से भले ही किसी संगठन से न जुड़े हों लेकिन वे खुद को राष्ट्रवादी और मोदी समर्थक बताते हैं।

इसके अतिरिक्त ऑनलाइन ट्रोल्स की फ़ौज ट्विटर पर भी रोज़ किसी न किसी मुद्दे को संगठित रूप से ट्रेंड कराती है। ये ट्रोल्स प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और वामपन्थी विचार रखने वालों को सरेआम भद्दी गालि‍याँ देते हैं, जान से मारने की धमकी देते हैं और महिलाओं को बलात्कार तक की धमकी देने से भी नहीं चूकते। मज़े की बात ये है कि इनमें से कई ट्रोल्स को नरेन्द्र मोदी ट्विटर पर फ़ॉलो भी करते हैं और इन ट्रोल्स के साथ समय-समय पर चाय-पार्टी भी करते हैं। सम्बित पात्रा, शाइना एनसी, परेश रावल, बाबुल सुप्रियो और कैलाश विजयवर्गीय जैसे भाजपा के नेता भी कई बार ट्विटर के ज़रिये बेशर्मी से फ़ेक न्यूज़ फैलाते हुए रंगे हाथों पकड़े जा चुके हैं। यही नहीं अभिजीत, अनुपम खेर, वीरेन्द्र सहवाग और गौतम गम्भीर जैसे सेलिब्रिटी भी ट्रोल्स की तरह आचरण करते हुए पाये गये हैं। सबसे ख़तरनाक बात तो यह है कि ज़ी न्यूज, रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ जैसे बिकाऊ टीवी चैनल भी शर्मनाक ढंग से फ़ेक न्यूज़ प्रसार‍ित करते हैं जिससे फ़ेक न्यूज़ मुख्यधारा की ख़बर बन जाती है। वेबसाइट, ट्विटर और फ़ेसबुक के अलावा फ़ेक न्यूज़ फैलाने का सबसे बड़ा ज़रिया व्हाट्सएप है। बल्कि यूँ कहा जाना चाहिए कि व्हाट्सएप फ़ेक न्यूज़ फैलाने का सबसे बड़ा माध्यम है क्योंकि जहाँ वेबसाइट, फ़ेसबुक और ट्विटर के ज़रिये फैलाने वाले फ़ेक न्यूज़ की पहुँच अधिकांशत: बड़े शहरों के मध्यवर्ग तक सीमित रहती है, वहीं व्हाट्सएप के ज़रिये फैलाये जाने वाले फ़ेक न्यूज़ की पहुँच निम्न मध्यवर्ग और मज़दूर वर्ग तथा छोटे-छोटे शहरों से लेकर कस्बों और गाँवों तक है।

क्योंं फैल रहा है इतनी तेज़ी से फ़ेक न्यूज़?

पिछले कुछ वर्षों में भारत में मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट का ज़बर्दस्त विस्तार हुआ है। टेलीकॉम विन‍ियामक प्राधिकरण ऑफ़ इंडिया, ट्राई के अनुसार भारत में इस समय 1 अरब से अधिक मोबाइल फ़ोन उपयोग में हैं जिसमें स्मार्टफ़ोन की संख्या 30 करोड़ से अधिक है। एक हालिया अध्ययन के मुताबिक जून 2017 तक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 45 करोड़ के आँकड़े को पार कर गयी। शहरी भारत के लगभग 45 करोड़ लोगों में से लगभग 27 करोड़ (60%) लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते है, वहीं ग्रामीण भारत में रहने वाली लगभग 20 करोड़ में से तकरीबन 16 करोड़ लोग (17%) इंटरनेट का इस्ते माल करते हैं। यह अध्ययन यह भी बताता है कि शहरों में 77% इंटरनेट उपयोगकर्ता और गाँवों में 92% इंटरनेट उपयोगकर्ता इंटरनेट कनेक्ट करने के लिए मोबाइल का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि कम्प्यूटर, लैपटॉप और आईपैड की तुलना में स्माेर्टफ़ोन सस्ते दामों में उपलब्ध है और छोटे शहरों व गाँवों में इंटरनेट की गति भी बहुत धीमे होती है। (स्रोत: http://www.livemint.com/Industry/QWzIOYEsfQJknXhC3HiuVI/NumberofInternetusersinIndiacouldcross450millionby.html)

उपरोक्त आँकड़ों से समझा जा सकता है कि हाल के वर्षों में फ़ेक न्यूज़ की परिघटना के तेज़ी से फैलने के कारण क्या है और यह भी कि वेबसाइट, फ़ेसबुक ओर ट्विटर के मुक़ाबले व्हाट्सएप की पहुँच क्यों ज़्यादा है। इस समय व्हाट्सएप का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या 16 करोड़, फ़ेसबुक का इस्तेमाल करने वालों की संख्या 15 करोड़ और ट्विटर का इस्तेमाल करने वालों की संख्या 2.2 करोड़ है। रिलायंस जियो जैसी कम्पनी के बाज़ार में उतरने के बाद मोबाइल डेटा की दरों में आयी ज़बर्दस्त गिरावट की वजह से फ़ेक न्यूज़ फैलने की रफ़्तार में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक इंटरनेट का इस्तेमाल करने वाले लोगों में से 41% सोशल मीडिया को ऑनलाइन ख़बरों का मुख्य स्रोत मानते हैं और 56% लोग सोशल मीडिया पर ख़बरें साझा करते हैं (तिवारी 2015)। राजनीतिक चेतना में कमी की वजह से लोग सोशल मीडिया या व्हाट्सएप पर प्राप्त ख़बर को सच मान बैठते हैं और उनके पीछे की घृणित फ़ासिस्ट साज़िश को नहीं समझ पाते। 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगे, 2015 में दादरी में अख़लाक़ की पीट-पीट कर हत्या, 2016 के छपरा दंगे, 2017 के बसीरहाट दंगे इन सबमें सोशल मीडिया और व्हाट्सएप के ज़रिये फैलायी गयी फ़ेक न्यूज़ की बहुत बड़ी भूमिका रही।

कैसे किया जा सकता है फ़ेक न्यूज़ की इस

सूनामी का सामना?

वैसे तो भारत में फ़ेक न्यूज़ का पर्दाफ़ाश करने में AltNews, SM Hoax Slayer और Boomlive जैसी वेबसाइटें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं, लेकिन उनकी सीमा यह है कि उनकी पहुँच महानगरों के कुलीन तबकों तक ही सीमित है। इन वेबसाइटों द्वारा फ़ेक न्यूज़ पकड़े जाने के बावजूद फ़ेक न्यूज़ अपना काम कर चुकी होती है क्योंकि आम लोगों के बीच यह बात पहुँच ही नहीं पाती कि जो ख़बरें वे पढ़ रहे होते हैं वे फ़र्जी हैं। हालाँकि गूगल और फ़ेसबुक जैसी कम्पनियाँ फ़ेक न्यूज़ पकड़ने के लिए कुछ एल्गोरिद्म विकस‍ित कर रही हैं, लेकिन यह तकनीकी समाधान फ़ेक न्यू़ज़ से निपटने में कारगर नहीं हो सकता है क्योंकि समस्या तकनीकी न होकर राजनीतिक है। गूगल द्वारा इस्तेमाल की गई ऐसी ही एक एल्गोरिद्म का नतीजा यह हुआ कि उससे वामपन्थ से जुड़ी वेबसाइटों पर जाने वाली ट्रैफ़िक कम हो गया। ऐसा इसलिए क्योंकि इस एल्गोरिद्म में किसी ख़बर या लेख की सत्यता मुख्य धारा की मीडिया से तुलना करके परखी जाती थी। चूँकि मुख्य धारा की मीडिया में वामपन्थ से जुड़ी ख़बरे कम होती हैं, इसलिए इस एल्गोरिद्म की वजह से वामपन्थी वेबसाइटों और ब्लॉगों को बहुत नुकसान हुआ क्योंकि गूगल सर्च में ये वेबसाइटें बहुत पीछे आने लगीं। ज़ाहिर है कि यह एक राजनीतिक प्रश्न है, न कि तकनीकी।

ऐसे में फ़ेक न्यूज़ के ख़िलाफ़ प्रभावी मुहिम के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि उसका पर्दाफ़ाश करके उसे आम लोगों तक ले जाया जाए। जि‍स प्रकार फ़ेक न्यूूज संगठित तरीके से फैलाया जाता है उसी प्रकार उसका भण्डाफोड़ भी संगठित रूप से ही किया जा सकता है। ये काम क्रान्तिकारी संगठनों का है क्यों कि 21वीं सदी में इंटरनेट और सोशल मीडिया भी वर्ग संघर्ष का अहम मोर्चा है। ज़ाहिर है कि इसके लिए तमाम रचनात्मक माध्यमों से क्रान्तिकारी संगठनों को आम लोगों के बीच सामाजिक आधार बढ़ाने की ज़रूरत है।

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