(डॉ. भरत झुनझुनवाला)
पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले से स्पष्ट हो गया कि सरकारी तंत्र के निचले हिस्से में भ्रष्टाचार पहले की तरह फल-फूल रहा है। जानकार बताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने ऊंचे स्तर पर तमाम ईमानदार अधिकारियों को नियुक्त किया है। वित्त सचिव और पीएनबी के प्रबंध निदेशक भी ईमानदार ही होंगे, लेकिन क्या उनके नीचे के लोग भी वैसे ही हैं? एक वृतांत वर्तमान स्थिति को स्पष्ट करता है। किसी अधिकारी की नौकरी छूट गई तो उसने नौकर से कहा कि आज से रोटी बिना घी के खाएंगे। उन्होंने रूखी रोटी खाना शुरू किया, फिर भी मर्तबान से घी कम होता गया। नौकर से पूछा तो उसने जवाब दिया, ‘सर, नौकरी आपकी छूटी है, मेरी नहीं। मैं तो घी खा ही रहा हूं। लगता है उच्च अधिकारियों ने तो घूस लेना कम कर दिया है, परंतु निचले स्तर पर यह बुराई यथावत कायम है। जरूरत नौकरशाही के स्वरूप में परिवर्तन लाने की है।
इस दिशा में पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने 2005 में प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया था। आयोग ने अपनी रपट में मुख्यत: छिछली एवं मीठी बातें कही हैं जैसे हर विभाग में शिकायत पेटिका रखी जानी चाहिए। उसने यह जरूर कहा कि सरकारी कामकाज पर समाज की नजर रहनी चाहिए, लेकिन यह नजर कैसे रखी जाए, इस पर आयोग मौन रहा था। इसकी तुलना में पांचवें वेतन आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘प्रथम श्रेणी’ के अधिकारियों का हर पांच वर्ष पर बाहरी मूल्यांकन कराया जाना चाहिए। यह सुझाव सही दिशा में था, परंतु इससे भी आगे जाने की जरूरत है।
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है, ‘मंत्रियों, पुजारियों, सेनाध्यक्षों, द्वारपालों, हरम के प्रबंधकों, न्यायाधीशों, राजस्व अधिकारियों, सिपाहियों इत्यादि की निगरानी के लिए राजा को जासूस नियुक्त करने चाहिए। इन अधिकारियों के व्यक्तिगत जीवन पर भी जासूसों की नजर रहनी चाहिए।’
उन्होंने यह भी कहा है, ‘गृहस्थों को नियुक्त करना चाहिए कि वे नागरिकों की संख्या, उत्पादन का स्तर तथा सरकारी अधिकारियों द्वारा वसूल किए गए राजस्व का स्वतंत्र आकलन करें।’ इसी पुस्तक में लिखा गया है, ‘छद्म उपभोक्ताओं को भेजकर अधिकारियों की जांच करनी चाहिए।’ प्रधानमंत्री मोदी को भी कौटिल्य के इन उपायों का अनुपालन करना चाहिए। सरकारी कर्मियों के भ्रष्टाचार पर नियंत्रण को पुलिस, केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआइ, केंद्रीय सतर्कता आयोग यानी सीवीसी द्वारा कदम तब उठाए जाते हैं जब शिकायतकर्ता हस्ताक्षर करके रपट दर्ज करे। यदि आप भ्रष्टाचार से पीड़ित हैं और डर के मारे गुमनाम पत्र लिखते हैं तो ये संस्थाएं शिकायत का संज्ञान मुश्किल से ही लेती हैं। ये भी टालमटोल करती हैं। एक मामले में मैंने दो बार सीवीसी से शिकायत की तो उन्होंने आरोपी से जवाब लेकर मामला ही बंद कर दिया। मुझे न तो आरोपी द्वारा दिए गए उत्तर को बताया और न ही मुझे उनके द्वारा दिए गए उत्तर का प्रतिवाद करने का अवसर दिया।
ये संस्थाएं संगमरमर के किले में बैठी हैं। इनका आचरण कौटिल्य के फोर्मुले के ठीक विपरीत है। कौटिल्य कहते हैं कि जासूसों को छद्म उपभोक्ता बनकर अधिकारियों को परखना चाहिए। इसकी तुलना में ये संस्थाएं शिकायत प्राप्त करने पर भी ढीली रहती हैं। इनका आचरण चोर-चोर मौसेरे भाई जैसा है। यही कारण है कि सीबीआइ की कार्रवाई में मात्र तीन प्रतिशत मामलों में सजा हो पाती है। इसका समाधान है कि भ्रष्टाचार निवारण तंत्र में आम जनता की भागीदारी बनाई जाए। यही व्यवस्था पीएनबी जैसे सरकारी उपक्रमों में की जानी चाहिए। उत्तराखंड की एक जल विद्युत परियोजना को पीएनबी ने ऋण दे रखा था। मुझे मालूम हुआ कि कंपनी ने अतिरिक्त ऋण के लिए पीएनबी को अर्जी दी है। मैंने पीएनबी के लगभग 20 निदेशकों को व्यक्तिगत तौर पर पत्र लिखकर बताया कि परियोजना के पास वैध पर्यावरण स्वीकृति नहीं है और अतिरिक्त लोन न दिया जाए। पीएनबी ने मुझसे बातचीत करना भी उचित नही समझा। समयक्रम में परियोजना संकट में पड़ गई और पीएनबी द्वारा दिया गया ऋण खटाई में पड़ गया।
दरअसल सरकारी तंत्र द्वारा जनता को ‘अवरोधी’ माना जाता है, न कि सहयोगी। उसे कौटिल्य का जनभागीदारी का सुझाव पसंद नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि उच्च अधिकारियों का जनता द्वारा मूल्यांकन कराएं। उपभोक्ताओं से गुप्त मूल्यांकन कराया जा सकता है। एक वक्त मैं किसी विदेशी डोनर की तरफ से एक फाइव-स्टार एनजीओ का मूल्यांकन कर रहा था। उनके द्वारा दिए गए उत्तर चौंकाने वाले थे। पता लगा कि एनजीओ की नौकरशाही अनुदान के वितरण में व्यस्त रहती थी जबकि सदस्य चाहते थे कि वे सरकारी नीतियों में दखल दें। इसी प्रकार का मूल्यांकन भारतीय प्रबंधन संस्थान यानी आइआइएम के हमारे अध्यापकों का छात्रों द्वारा कराया जाता है। प्रत्येक सेमेस्टर के अंत में छात्रों से पूछा जाता था कि अध्यापक की कार्यशैली कैसी है?
यदि ऐसा मूल्यांकन पीएनबी के उपभोक्ताओं द्वारा अधिकारियों का कराया जाता तो भ्रष्ट अधिकारी पहले ही चिन्हित हो जाते। यही प्रक्रिया समूचे सरकारी तंत्र में लागू करने की जरूरत है। प्रशासनिक आयोग ने यह भी कहा था कि ‘आज की लचर व्यवस्था में सरकारी कर्मियों के लिए भ्रष्टाचार में लाभ ज्यादा और जोखिम कम है। भ्रष्टाचार के दोषियों पर कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए।’ ऐसी बातें निष्प्रभावी रही हैं। इसका एक कारण यह है कि सरकारी कर्मियों द्वारा व्यक्तिगत हकों की लड़ाई अदालतों में लड़ी जाती है। इसी वजह से उच्च अधिकारी इनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाई करने में हिचकते हैं। इसका उपाय है कि इनके मौलिक अधिकार स्थगित किए जाएं। संविधान की धारा 33 में सैन्य कर्मियों के मौलिक अधिकार निरस्त किए जा सकते हैं। ऐसे ही समूचे सरकारी तंत्र के मौलिक अधिकार निरस्त होने पर उच्च अधिकारी इनके भ्रष्टाचार पर कार्रवाई करने में कम हिचकेंगे।
यह कहा जा सकता है कि सरकारी कर्मियों के मौलिक अधिकार निरस्त करने से कार्यपालिका अग हो जाएगी और विधायिका की मनमानी का प्रतिरोध नहीं कर सकेगी, लेकिन जनप्रतिनिधि तो प्रत्येक पांच वषों के बाद जनता के समक्ष वोट मांगने को खड़े होते हैं। जनता अक्सर उन्हें हटाती भी है। इसकी तुलना में कार्यपालिका की जवाबदेही केवल सीबीआइ एवं सीवीसी जैसे मौसेरे भाइयों के प्रति होती है। हमारे सामने विचित्र परिस्थिति है। जो पांच वषों बाद जनता के प्रति जवाबदेह होता है उस पर अंकुश उस व्यक्ति द्वारा लगाया जाता है जो अपने मौसेरे भाइयों के अतिरिक्त किसी को जवाबदेह नही होता। हमें स्वीकार करना चाहिए कि कार्यपालिका ने विधायिका पर अंकुश लगाने के स्थान पर विधायिका के साथ मिलकर जनता को लूटा है। इस दिखावटी अंकुश को त्यागकर हम कार्यपालिका के मौलिक अधिकारों को निरस्त करें और विधायिका की जनता के प्रति जिम्मेदारी को सुदृढ़ बनाएं। यदि पीएनबी के कर्मियों के विरुद्ध वित्त मंत्री कठोर कार्रवाई करें जिसे न्यायालय में चुनौती न दी जा सके तो ऐसे घोटाले कम होंगे।(साभार दैनिक जागरण )
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं)