वैश्विक भूख सूचकांक में 100वें स्थान पर भारत
70 साल की आज़ादी का हासिल : भूख और कुपोषण के क्षेत्र में महाशक्ति

मुकेश असीम

भारत में दो वर्ष तक की उम्र के 10% से भी कम बच्चों को पर्याप्त मात्रा में पोषक भोजन उपलब्ध होता है। माँ का दूध पीते बच्चों को जब साथ में दूसरे भोजन देने की उम्र होती है, उस वक़्त सिर्फ़ 42% बच्चों को ही ठोस भोजन उपलब्ध हो पाता है। 5 साल से कम उम्र के 35% बच्चे सामान्य से कम वज़न और 38% बच्चे सामान्य से कम क़द के हैं। 21% बच्चे तो अपने क़द के हिसाब से भी कम वज़न वाले अर्थात पूरी तरह कुपोषित हैं। कुपोषित बच्चों की संख्या 2005-06 के मुक़ाबले अब 1% बढ़ गयी है। ये सब निष्कर्ष थे 2015-16 के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के। दुनिया में मात्र तीन ही और देश – दक्षिणी सूडान, जिबूती और श्रीलंका – ऐसे हैं, जहाँ 20% से अधिक बच्चे पूरी तरह कुपोषित हैं।

इस स्थिति में यह क़तई आश्चर्य की बात नहीं कि जब इण्टरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट एवं अन्य कुछ संस्थाओं ने 2017 में दुनिया के 119 देशों में आवश्यक पोषक भोजन की उपलब्धता के आधार पर एक वैश्विक भूख सूचकांक तैयार किया, तो इन 119 देशों में भारत का स्थान 100 वाँ पाया गया। 2016 में यह स्थान 97 वाँ था। अर्थात एक साल में स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ, बल्कि यह और बदतर ही हुई है। 100वें स्थान पर भारत के साथ ही हैं रवाण्डा और जिबूती। इस भूख सूचकांक में भारत का स्कोर है 31.4% जिसका अर्थ होता है गम्भीर श्रेणी में भी बहुत ख़राब स्तर। भारत के ही पड़ोसी देशों में से नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका सभी का स्थान भारत से बेहतर है, सिर्फ़ पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान बदतर हालत में हैं। भारत की बराबरी के जिन ब्रिक्स देशों की बड़ी चर्चा होती है, उनमें ब्राजील, रूस, चीन, दक्षिण अफ़्रीका सभी भारत से काफ़ी ज़्यादा बेहतर स्थिति में हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि पिछले 30 सालों से नवउदारवादी नीतियों द्वारा भारत को जिस आर्थिक महाशक्ति बनाने का दावा किया जा रहा था, वह तो क्या बनती, उसके बजाय देश अब भूख और कुपोषण के क्षेत्र में महाशक्ति ज़रूर बन गया है।

वैसे यह कोई बिल्कुल नयी ख़बर भी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन (एफ़.ए.ओ.) की ग्लोबल हंगर रिपोर्ट 2015 के अनुसार भारत में कुल 19.46 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार थे, जो उससे पिछले 5 साल में 2.6% बढ़े थे अर्थात 5 साल पहले 18.99 करोड़ ही थे। ऐसे समझ सकते हैं कि पाकिस्तान की कुल जनसंख्या से भी 1.20 करोड़ ज़्यादा लोग भारत में कुपोषित हैं। यहाँ कुपोषण का मतलब सिर्फ़ कुछ दिन या समय भोजन की कमी झेलने से नहीं है, बल्कि उनसे है जिन्हें लगातार एक साल और उससे ज़्यादा अपनी दैनिक शारीरिक पोषण की ज़रूरत से कम भोजन मिलता है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में ग़रीबों के भोजन में मात्र किसी तरह जीवित रह सकने वाले पदार्थ ही शामिल हैं, क्योंकि खाद्य पदार्थों की बढ़ती महँगाई से ग़रीब लोग पोषक भोजन ख्रीदने में असमर्थ हो चुके हैं।

यह स्थिति उस समय है जब पिछले 40 वर्ष से लगातार देश में खाद्यान्नों की उपज की कोई कमी नहीं है। पिछले कई सालों से तो सरकार हर वर्ष रिकॉर्ड उत्पादन की घोषणा करती आ रही है। खाद्यान्न का इतना स्टॉक है कि उसके भण्डारण की समुचित व्यवस्था तक नहीं हो पा रही है और लाखों टन खाद्यान्न उचित भण्डारण के अभाव में सड़-गल जाता है। असल में तो मुनाफ़े के लिए चलने वाली पूँजीवादी व्यवस्था में खाद्यान्न के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने या न होने का इससे कोई सम्बन्ध है ही नहीं कि वह समाज में सबको उपभोग के लिए भी उपलब्ध होगा। पूँजीवादी व्यवस्था में अन्न, दूध, सब्ज़ी, फल, अण्डे, मांस, आदि सभी पदार्थ किसे मिलेंगे और किसे नहीं, यह आवश्यकता और उपलब्ध मात्रा से निर्धारित नहीं होता, बल्कि इससे तय होता है कि किसी व्यक्ति की इन वस्तुओं को ख़रीदने की क्षमता अर्थात आमदनी है या नहीं। ये खाद्य पदार्थ अगर पर्याप्त मात्रा यहाँ तक कि प्रचुरता से भी उपलब्ध हों तब भी अगर किसी की आमदनी कम है तो ये चाहें सड़ जायें, जला या फेंक देने पड़ें इन्हें उन ग़रीब लोगों को नहीं दिया जाता जो इनकी कमी से भुखमरी का शिकार हों, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था मानवीय भावनाओं और ज़रूरतों से नहीं बल्कि मूल्य और मुनाफ़े के बाज़ार नियमों से चलती है। भण्डार में पड़े अनबिके अनाज को सस्ते दामों पर ग़रीब लोगों को उपलब्ध कराने से बाज़ार में दामों की गिरावट और अनाज तथा इसके उत्पादों के व्यापारियों के मुनाफ़े के कम होने का जोखिम हो जाता है, जिसे इस व्यवस्था में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

यही वजह है कि चाहे किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, रिकॉर्ड कृषि उत्पादन के बावजूद देश के आम लोगों को भोजन की उपलब्धता लगातार कम होती गयी है। अभी ग्रामीण इलाक़़ों के 80% और शहरी इलाक़़ों के 70% निवासियों को सब्ज़ी, फल, दूध, मांस-मछली, आदि पोषक पदार्थ की पर्याप्त मात्रा मिलना तो बहुत दूर की बात है, ऊर्जा की न्यूनतम दैनिक आवश्यकता अर्थात 2400 कैलोरी भी प्राप्त नहीं होती। हालत यह है कि भारत में किसी भी बीमारी के मुक़ाबले कुपोषण से अधिक लोग मरते हैं। नेशनल न्यूट्रिशन मॉनिटरिंग ब्यूरो, जिसे 2015 में बन्द ही कर दिया गया, के सर्वेक्षणों के अनुसार पिछले 40 वर्षों में ग्रामीण-शहरी सभी क्षेत्रों में अधिकांश जनता को मिलने वाले पोषक पदार्थों की मात्रा में लगातार कमी आयी है। यही देश के ‘आर्थिक महाशक्ति’ और ‘सबसे तेज़ वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था’ बनने के पीछे की असली कड़वी सच्चाई है।

2012 के न्यूट्रीशन ब्यूरो के ग्रामीण भारत के आखि़री सर्वे के अनुसार, 1979 के मुक़ाबले औसतन हर ग्रामीण को 550 कैलोरी ऊर्जा, 13 ग्राम प्रोटीन, 5 मिग्रा आइरन, 250 मिग्रा कैल्शियम और 500 मिग्रा विटामिन ए प्रतिदिन कम मिल रहा है। इसी तरह 3 वर्ष से कम की उम्र के बच्चों को 300 मिलीलीटर प्रतिदिन की आवश्यकता के मुक़ाबले औसतन 80 मिली दूध ही प्रतिदिन मिल पा रहा है। सर्वे यह भी बताता है कि जहाँ 1979 में औसतन दैनिक ज़रूरत के लायक़ प्रोटीन, ऊर्जा, कैल्शियम तथा आइरन उपलब्ध था, वहीं 2012 आते-आते सिर्फ़ कैल्शियम ही ज़रूरी मात्रा में मिल पा रहा है, जबकि प्रोटीन दैनिक ज़रूरत का 85%, ऊर्जा 75% तथा आइरन मात्र 50% ही उपलब्ध है। सिर्फ़ विटामिन ए ही एक ऐसा पोषक तत्व है, जिसकी मात्रा 1979 के 40% से बढ़कर 1997 में 55% हुई थी, लेकिन वह भी 2012 में घटकर दैनिक ज़रूरत का 50% ही रह गयी। इसी का नतीजा है कि सर्वे के अनुसार 35% ग्रामीण स्त्री-पुरुष कुपोषित हैं और 42% बच्चे मानक स्तर से कम वज़न वाले हैं। और यह तो पूरी आबादी का औसत आँकड़ा है, जनसंख्या के ग़रीब हिस्से में तो हालात और भी बेहद ख़राब हैं। आजीविका ब्यूरो नाम के संगठन द्वारा दक्षिण राजस्थान के गाँवों में किये गये एक सर्वे के अनुसार आधी माँओं को दाल नसीब नहीं हुई थी तथा एक तिहाई को सब्ज़ी नहीं मिली थी। फल, अण्डे या मांस तो ख़ैर किसी को भी मिलने का सवाल ही नहीं था। नतीजा, आधी माँएँ और उनके बच्चे कुपोषित थे।

इन हालात में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पिछले दिनों झारखण्ड के सिमडेगा से 11 साल की बच्ची सन्तोषी कुमारी के भात माँगते-माँगते भूख से दम तोड़ देने की अत्यन्त दुःखद ख़बर आयी, क्योंकि राशन कार्ड के लिए आधार को ज़रूरी बना देने का फ़ैसला मोदी सरकार ने दे दिया था। सन्तोषी का तो आधार भी बना हुआ था, पर बायोमेट्रिक सत्यापन की दिक़्क़त से वह राशन कार्ड से नहीं जुड़ पाया था और उसके परिवार का राशन कार्ड रद्द कर उन्हें पिछले 8 महीने से सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दर पर राशन देना बन्द कर दिया गया था। बाज़ार में राशन की कमी नहीं, लेकिन उन क़ीमतों पर उसका परिवार ख़रीद पाने में असमर्थ था। सिर्फ़ झारखण्ड में ही ऐसे 11 लाख से अधिक राशन कार्ड आधार से न जुड़ पाने के कारण फ़र्ज़ी बताकर रद्द कर दिये गये हैं। अन्य राज्यों में भी स्थिति यही है – सबसे ग़रीब, वृद्ध, बीमार, असहाय लोगों के राशन कार्ड रद्द, पेंशन बन्द क्योंकि इनके आधार नहीं बने हैं, बने हैं तो ये बायोमेट्रिक देने जाने में असमर्थ हैं, चले भी जायें तो श्रम, बुढ़ापे, बीमारी की वजह से उँगलियों के निशान बदल गये हैं, आधार डाटा से मेल नहीं खाते या उस दिन बिजली, मॉबाइल सिग्नल, इण्टरनेट नहीं होता। और हमारी ‘कल्याणकारी लोकतान्त्रिक’ हुकूमत बिना आधार लिंक हुए ऐसे लोगों को फ़र्ज़ी, धोखेबाज़, कामचोर, खैरात चाहने वाले मानती है और इनका राशन पानी, पेंशन बन्द कर देती है।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली की दरों पर राशन बन्द होने के कारण ग़रीब मज़दूरों की ऐसी मौतों की ख़बरें हर प्रदेश से आ रही हैं, पर इनकी असली तादाद तो ख़बरों से कई कई गुना ज़्यादा है। पर जिनकी ख़बर आती भी है उन्हें भी सरकारी अमला प्राकृतिक या बीमारी वजह बताकर भूख से होने वाली मौत की बात को झूठ ठहराने  में जुट जाता है, जैसे सन्तोषी की मृत्यु की वजह मलेरिया घोषित कर दिया गया है। वैसे तो बीमारियों से होने वाली अधिकांश मौतों की असली वजह भी भूख और कुपोषण ही है, क्योंकि भूख से कमज़ोर हुआ शरीर ही बीमारियों का शिकार ज़्यादा होता है। अनुमानों के अनुसार हर साल टीबी के 28 लाख नये मरीजों और 5 लाख मौतों में भी आधे से अधिक का असली कारण कुपोषण है और इनका इलाज सिर्फ़ दवाई से मुमकिन नहीं बल्कि साथ में पोषक भोजन से ही हो सकता है।

भूख, कुपोषण के कारणों को समझने के लिए वर्ल्ड फ़ूड प्रोग्राम नामक संस्था द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार 2016 में विश्व में 80 करोड़ लोग गम्भीर रूप से भूख की स्थिति का शिकार हुए जबकि भोजन की उपलब्धता में कोई कमी नहीं थी। बल्कि 200 करोड़ लोगों के खाने लायक भोज्य पदार्थ बरबाद किये गये। फिर भी भूख की व्यापकता का कारण पाया गया ग़रीब लोगों के लिए भोजन की तुलनात्मक रूप से ऊँची, उनकी पहुँच से बाहर क़ीमतें। इसके लिए इस अध्ययन में दुनिया के कई देशों की क्रय क्षमता, प्रति व्यक्ति आय और वहाँ भोजन की बाज़ार क़ीमतों को देशों के जीडीपी स्तर के मुताबिक़ अमरीकी डॉलर में परिवर्तित कर तुलना की गयी तो पाया गया कि रोज़मर्रा के खाने के मूल्य ग़रीब देशों में तुलनात्मक रूप से बहुत ऊँचे और उनके ग़रीब लोगों की आय के मुक़ाबले कहीं बहुत ज़्यादा हैं। उदाहरण के तौर पर इस गणना के आधार पर दाल-सब्ज़ी के साथ चावल, कसावा, रोटी के सामान्य भोजन की एक थाली की बाज़ार क़ीमत न्यूयॉर्क में 1.20 डॉलर पायी गयी जो वहाँ के निवासियों की औसत दैनिक आय के 1% से भी कम है लेकिन वही थाली ग्वाटेमाला में 8, नेपाल में 27 और हैती में 72 डॉलर से अधिक पड़ेगी। सबसे ज़्यादा ख़राब स्थिति दक्षिणी सूडान की थी, जहाँ यह तुलनात्मक मूल्य 321 डॉलर बना जो वहाँ के निवासियों की औसत दैनिक आमदनी का डेढ़ गुना है। कोई आश्चर्य नहीं कि वैश्विक भूख सूचकांक में सबसे ख़राब पायदान पर यही दक्षिणी सूडान है।

वैश्विक भूख सूचकांक की इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि दुनिया भर में बढ़े कृषि उत्पादन और अनाज, आदि की पर्याप्त उपलब्धता के बावजूद भारत के साथ-साथ क़रीब 62 और भी देश हैं, जिनमें व्यापक भूख की स्थिति को गम्भीर या ख़तरनाक स्तर की माना गया है। इसका अर्थ है कि पूरे विश्व के पैमाने पर ही आर्थिक संकटग्रस्त पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और निरन्तर बढ़ती असमानता मेहनतकश जनता के एक बड़े हिस्से के जीवन में भयंकर तबाही और भुखमरी की स्थिति पैदा कर चुकी है, जिसका सर्वाधिक शिकार सबसे असहाय ग़रीब, वृद्ध, बीमार, बच्चे, महिलाएँ, आदि हो रहे हैं। इस तरह विश्व पूँजीवादी व्यवस्था आज मानवता के लिए पूरी तरह सर्वनाश की वजह बन चुकी है।

 

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017

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