*⭕️भोजन का अधिकार : उपलब्धता,* सुलभता लेकिन स्थिरता नहीं
भोजन का अधिकार अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून (International Human Rights) द्वारा स्थापित सिद्धांत है। यह सदस्य राज्य के लिये खाद्य सुरक्षा के अधिकार के सम्मान, संरक्षण और पूर्ति हेतु दायित्व का निर्धारण करता है। खाद्य सुरक्षा के सामान्य सिद्धांत के अंतर्गत चार प्रमुख आयामों यथा – पहुँच, उपलब्धता, उपयोग और स्थिरता को शामिल किया जाता है। सार्वभौमिक मानवाधिकार घोषणापत्र (Universal Declaration of Human Rights) और आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध (International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights) के सदस्य के रूप में भारत पर भूख से मुक्त होने और पर्याप्त भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करने का दायित्व है।
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून
10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की समान्य सभा द्वारा मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत और घोषित किया गया। इस घोषणा से राष्ट्रों को मानवाधिकारों के संबंध में न केवल प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, बल्कि वे इन अधिकारों को अपने संविधान या अधिनियमों के द्वारा मान्यता देने तथा क्रियान्वित करने के लिये भी अग्रसर हुए।
संयुक्त राष्ट्र के अनुच्छेद 25 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे जीवन स्तर को प्राप्त करने का अधिकार है जो उसे और उसके परिवार के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिये पर्याप्त हो।
इसके अंतर्गत खाना, कपड़ा, मकान, चिकित्सा-संबंधी सुविधाएँ और आवश्यक सामाजिक सेवाओं को शामिल किया गया है।
सभी को बेकारी, बीमारी, असमर्थता, वैधव्य, बुढ़ापे या अन्य ऐसी किसी परिस्थिति में आजीविका का साधन न होने पर जो उसके काबू के बाहर हो, सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है।
इसके अनुसार, जच्चा और बच्चा को खास सहायता एवं सुविधा प्राप्त करने का अधिकार है। प्रत्येक बच्चे को चाहे वह विवाहित माता से जन्मा हो या अविवाहित से, समान सामाजिक संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है।
उपलब्धता से पहुँच तक
भारत में खाद्य सुरक्षा के मुद्दे को दो पीढ़ियों में विभाजित किया जा सकता है। इस संबंध में किया गया सीमांकन सटीकता से बहुत दूर है, जो इस बात को इंगित करता है कि किस प्रकार समय के साथ खाद्य सुरक्षा के विभिन्न तत्त्वों को दिये जाने वाले महत्त्व में परिवर्तन होता गया।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि स्वतंत्रता के बाद के वर्ष भारत के लिये बेहद अशांत रहे। जहाँ एक ओर बंगाल अकाल की यादें ताज़ा थी वहीं दूसरी ओर खाद्यान्न की कमी का डर निरंतर बना हुआ था। भूख को अपर्याप्त खाद्य उत्पादन का पर्याय माना जाता था।
यही कारण रहा कि वर्ष 1974 में विश्व खाद्य सम्मेलन (World Food Conference-WFC) द्वारा उत्पादन के संदर्भ में खाद्य सुरक्षा को परिभाषित किया गया। डब्लूएफसी के अनुसार, विश्व खाद्य आपूर्ति की हर समय पर्याप्त उपलब्धता ही खाद्य सुरक्षा होती है।
स्पष्ट रूप से इन सभी परिस्थितियों ने भारत को खाद्य उत्पादन की दर में बढ़ोत्तरी करने के लिये विवश किया। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये भारत ने हरित क्रांति को शुरू करने का दृढ़ संकल्प लिया। लेकिन इस निर्णय ने तब एक अजीब स्थिति को जन्म दिया, जब यह कार्यक्रम देश के कुछ हिस्सों में चावल और गेहूँ के उत्पादन में नाटकीय वृद्धि हासिल करने में सफल हो गया और इसके विनाशकारी पर्यावरणीय प्रभाव के चलते इसकी बहुत अधिक आलोचना की गई।
वर्तमान की खाद्य सुरक्षा की स्थितियों को समझने और उसके संदर्भ में कार्यवाही करने का आधार 1980 और 1990 के दशक की दो घटनाओं ने प्रदान किया। सर्वप्रथम, जब सुप्रीम कोर्ट ने नाटकीय रूप से उन अधिकारों के दायरे में विस्तार करने का निर्णय लिया जो नागरिक को राज्य के खिलाफ दावा करने में सक्षम बनाते हैं।
हालाँकि इसके अंतर्गत ‘भोजन के अधिकार’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया तथापि इसमें मानव गरिमा के अभिन्न अंग के रूप में मूल अधिकारों में भोजन का उल्लेख किया गया। दूसरी घटना, पहुँच की समस्या के स्थान पर अब उपलब्धता की समस्या मुख्य मुद्दा बनकर उभरी।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अध्यादेश एक ऐतिहासिक पहल है जिसके ज़रिये जनता को पोषण खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित की जा रही है। खाद्य सुरक्षा विधेयक का खास ज़ोर गरीब-से-गरीब व्यक्ति, महिलाओं और बच्चों की जरूरतें पूरी करने पर है।