मेट्रो ट्रेन बिजली से चलने वाली ऐसी रेल प्रणाली है, जिसका प्राथमिक उद्देश शहर के भीतर तक ही दैनिक यात्रा करने वाले नौकरीपेशा लोगो को तेज सार्वजनिक परिवहन की सेवा देना है. भीड़भाड़ वाले शहरों में सार्वजनिक परिवहन की तेजी से बढ़ती मांग के बावजूद, भारत में मेट्रो ट्रेनों का नेटवर्क अन्य उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में बहुत कम है.इसी कारण नई Metro Rail Policy बनाई गई. किसी भी मेट्रो प्रोजेक्ट को मंजूरी देने से

पहले निम्न बातो को सुनिश्चित किया जाएगा:
क्या वैकल्पिक विश्लेष्ण की मांग क्षमता, लागत और क्रियान्‍वयन सहजता की दृष्टि से मेट्रो की वजह बीआरटीएस (बस रैपिड ट्रांजिट सिस्‍टम) या क्षेत्रीय रेल ज्यादा बहेतर रहेगी?

नये संस्थान/ प्राधिकरण बनाए जाएंगे जो:
यात्री किराये में नियमित रूप से संशोधन करेंगे ताकि मेट्रो आर्थिक रूप से भी सरकार तथा निजी ओपरेटर के लिए फायदेमंद रहे, न की
केवल चुनावी लोकलुभावन का एक जरिया. आवाजाही संबंधी फीडर सेवा, पैदल-साइकिल के रास्‍ता सहित की व्‍यापक योजना तैयार करेंगे, ताकि मेट्रो रेल का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित हो सके।
यात्री किराये से अलावा अन्य तरीको से भी अधिकतम आमदनी हो सके इसके लिए राज्यों को कदम उठाने होंगे.eg- मेट्रो स्टेशनों पर विज्ञापनों, केन्टीन के लिए जगह को लीज पर देने आदि के लिए जरूरी नियम कानून बनाने होंगे. जमीन सम्पादन, पर्यावरण तथा अन्य सभी अनुमतिया प्राप्त करने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की रहेगी.

नई नीति: निवेश के मॉडल

नई नीति के अनुसार, निम्न तीन विकल्‍पों में से किसी भी विकल्‍प का उपयोग करके मेट्रो परियोजनाएं शुरू कर सकते है। केन्‍द्र एवं राज्‍य सरकारों के बीच 50:50 प्रतिशत आधार पर इक्विटी साझेदारी (Joint Venture) मॉडल के जरिए। जिसमे निजी क्षेत्र द्वारा संचालन और रखरखाव किया जाएगा. सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) जिसमे केन्द्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा वायाबिलिटी गैप फंडिंग यानी कम पड़ती धनराशि का इंतजाम किया जाएगा.
सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) जिसमे परियोजना लागत का 10 प्रतिशत एकमुश्‍त केन्‍द्रीय सहायता (grant) के रूप में दिया जाएगा. इन परियोजनाओ के लिए कारपोरेट बांण्‍ड जारी करने की छूट भी नई नीति में दी है.

आलोचना/मूल्यांकन
मेट्रो प्रोजेक्ट में भारी मात्रा में निवेश के बावजूद भी, मुनाफा दिखने से पहेले की अवधि काफी लंबी रहती है इसलिए निजी निवेशक / कम्पनिया इस क्षेत्र के प्रति उदासीन रहते है. अत: मेट्रो रेल निर्माण के लिए, सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) की अपेक्षा इंजीनियरिंग, क्रय और निर्माण (EPC) मॉडल ज्यादा उपयुक्त है. इस से पहले दिल्ली मेट्रो, बेंगलूरु मेट्रो इत्यादि भी इ.पी.सी. मॉडल से ही क्रियान्वित हुए है. लेकिन हमने ये भी संज्ञान में लेना चाहिए की यात्री किराए व मांग के हिसाब से मेट्रो ट्रेन ज्यादातर बड़े शहरों के लिए ही उपयुक्त है. और बड़े शहर में से ज्यादातर तो पहले से ही स्मार्ट सिटी के लिए चयनित हो चुके है, जहा केंद्र, राज्य और स्थानिक संस्थान मिलकर स्मार्ट सिटी योजना के अंतर्गत रु.1 लाख करोड़ निवेश करेंगे. अब चूँकि प्रति किलोमीटर मेट्रो निर्माण का खर्च रु.300 करोड़ के करीब रहता है. इसी कारण, नई नीति में निजी निवेश पर भार दिया गया है.

किन्तु, यदी मेट्रो के लिए जारी किये गये कारपोरेट बांण्‍ड में बड़े निवेशकों ने उदासीनता दिखाई, तो हो सकता है क्रेंद सरकार सार्वजनिक बैंकों / बिमा कम्पनीओ पर इनमे निवेश के लिए दबाव डाले. इसमें मध्यमवर्गीय लोगो का वित्तीय दमन (financial repression) होने की आशंका है. यात्री किराए तय करने लिए स्वतंत्र संस्था का प्रावधान है, लेकिन यदि चुनावी लोकलुभावन के मद्दे नजर, किराए न बढाए गये, या फिर मिडिया व् न्यायपालिका की सक्रियता के डर से यदि पीपीपी करारनामो में सुधार न किये गये तो संभव है की निजी निवेशक/संचालक मुनाफे/भुगतान में देरी के डर से प्रोजेक्ट से अलग हो जाए. इस परिस्थितिमें द्वि-तुलन पत्र की समस्या (Twin balancesheet problem) और विकृत स्वरूप धारण कर सकती है.

निष्कर्ष
सतत विकास लक्ष्यों के अंतर्गत राष्ट्रों को बुनियादी ढांचे में नवीनता बढ़ाने, तथा सुरक्षित और टिकाऊ शहरों का निर्माण करने की जिम्मेदारी दी गई है। इस संदर्भ में, मेट्रो ट्रेनें सार्वजनिक परिवहन के महत्वपूर्ण तरीकों में से हैं। नई नीति में इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रावधान इस प्रकार से बनाए गये है की अकेले सार्वजनिक क्षेत्र को पूरा वित्तीय बोझ सहन न करना पड़े।

यधपि आलोचकों और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि मेट्रो ट्रेनों जैसी मुनाफे से पहेले लंबी अवधि वाली अवसंरचना को सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा वित्त पोषित करना ही उपयुक्त है, किन्तु उपरोक्त विघ्नों को देखते

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