इन्द्रजीत

मौजूदा दौर में देश की बहुत बड़ी ग़रीब किसान आबादी तबाही और बर्बादी झेल रही है। वैसे तो आमतौर पर ही पूँजीवादी समाज में वर्ग ध्रुवीकरण होता रहता है (यानि कि समाज में एक तरफ़ बदहाल, ग़रीब और कंगाल बढ़ते हैं तो दूसरी ओर छोटी सी संख्या के पास संसाधनों और धन-सम्पदा का अम्बार लगता जाता है) किन्तु 1991 में कांग्रेस नीत ‘यूपीए’ गठबन्धन के समय में लागू की गयी व भाजपा नीत ‘एनडीए’ गठबन्धन की सरकार के द्वारा अनुमोदित की गयी उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने ‘कोढ़ में खाज’ का काम किया है। यह अनायास ही नहीं है कि भारत में ग़रीबों और अमीरों के बीच आय असमानता 1922 के मुक़ाबले 2014 तक और भी ज़्यादा बढ़ गयी है। खेती के बाज़ारीकरण व कॉरपोरेटीकरण ने ग़रीब किसानों के उजड़ने की दर में बेतहाशा बढ़ोत्तरी की है। नेतृत्व की मंशाएँ चाहे जो हों किन्तु देश भर में किसानों का अच्छा ख़ासा हिस्सा आन्दोलनरत है, किसान यात्राएँ निकाली जा रही हैं, कहीं-कहीं पर सत्ता की लाठी-गोली का भी सामना किया जा रहा है। हाल ही में दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर विभिन्न किसान संगठनों और यूनियनों के साझा प्रदर्शन में लाखों किसानों का जमावड़ा हुआ, उससे पहले तमिलनाडु के किसानों ने भी जनता का ध्यान खींचा जोकि काफ़ी दिनों तक अपनी माँगों को लेकर दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर डेरा डाले रहे, जून माह में मध्यप्रदेश के मन्दसौर में किसान आन्दोलन उग्र हो गया तथा पुलिस की गोलियों से 6 किसानों को अपनी जान गँवानी पड़ी, सितम्बर माह में राजस्थान में 13 दिन तक किसानों का बड़ा आन्दोलन चला। कुल-मिलाकर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब से लेकर दक्षिण भारत तक किसानों के आन्दोलन किसी न किसी रूप में जारी रहे हैं। कभी-कभार चाहे अधिग्रहण की गयी ज़मीनों के रेट ज़्यादा लेने और पराली फूँकने के “अधिकार की रक्षा” के लिए भी आन्दोलन हुए हों किन्तु अधिकतर किसान आन्दोलनों में कृषि उत्पादों के लाभकारी मूल्य बढ़ाने, लागत मूल्य घटाने और कर्ज माफ़ी जैसे मुद्दों पर ज़ोर देखा गया है।

पूँजीवाद में छोटा माल उत्पादक हमेशा संकट में रहता है तथा यही चीज़ किसानी पर भी लागू होती है। जोत का आकार लगातार घटता जा रहा है, खेती के बाजारीकरण, कॉर्पोरेटीकरण के कारण से बड़ी पूँजी वाले धनी किसान और ‘एग्रो बिज़नेस’ कम्पनियाँ तो मुनाफ़ा कमा जाते हैं किन्तु छोटा और ग़रीब किसान अपनी लागत भी नहीं निकाल पाता। आर्थिक मन्दी से कराह रही पूँजीवादी व्यवस्था में सरकारों ने “कल्याणकारी राज्य” का चोला अब पूरी तरह से उतार फेंका है और खुले तौर पर देशी-विदेशी पूँजी की चाकरी हो रही है। पूँजीवादी राज्य की नीतियों को फिर से कल्याणकारी राज्य की तरफ मोड़ना आकाश कुसुम के समान है। निश्चय ही पिछले कुछ ही सालों के दौरान गुज्जर, जाट, पटेल, मराठा, कापू इत्यादि जातियों – जिनका बड़ा हिस्सा पुश्तैनी तौर पर खेती-किसानी से जुड़ा रहा है – के नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की माँग को लेकर उठे आन्दोलन भी किसानी के बीच पसरी घोर निराशा, असहायता, मायूसी और असुरक्षाबोध को ही दर्शाते हैं।

30 दिसम्बर 2016 को जारी किये गए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (‘एनसीआरबी’) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में 12,602 किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्महत्या की थी जो कि साल 2014 में हुई आत्महत्याओं में 2 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी थी। सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से लेकर खेती में बड़ा पूँजी निवेश करने वाले धनी किसान, साहूकार, आढ़ती, सूदखोर, बड़ी-बड़ी एग्रो बिजनेस कम्पनियाँ और संगठित कृषि आधारित व्यापारी वर्ग तक बहुत सारे कारक मिलकर ग़रीब किसानों के परेशानी के कारण बनते हैं। ऐसे दौर में उजड़ते हुए किसान यानी सीमान्त, छोटे और ग़रीब किसान को बचाने के लिए जो माँगें उठायी जा रही हैं और जो नारे दिये जा रहे हैं उनकी पड़ताल ज़रूरी है। क्या उक्त माँगें और नारे ग़रीब किसानों का प्रतिनिधित्व करते हैं? यह विचारणीय मुद्दा है कि उजड़ते छोटे किसानों की असल माँगें क्या हो सकती हैं? चाहे कोई भी समस्या हो; उसके समाधान के लिए न केवल इतिहासबोध की ज़रूरत होती है बल्कि समाधान हेतु कोरी भावनाओं से काम नहीं चलता बल्कि हमारा चिंतन वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तथ्यों और तर्क की ठोस ज़मीन पर होना चाहिए।

पूँजीवादी व्यवस्था की आम गतिकी और किसान

आज की मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था भी समाज विकास के दौरान अस्तित्व में आयी ऐतिहासिक सीमाओं में बँधी एक मंजिल ही है। मुख्य तौर पर शोषित और शोषक में बँटे हमारे इस समाज में मज़दूर वर्ग और पूँजीपति वर्ग के अलावा अन्य वर्ग भी अस्तित्वमान हैं जिनकी स्थिति ऊपर-नीचे होती रहती है जैसे छोटे व्यापारी, दुकानदार, छोटे कारखानेदार, किसान, कारीगर इत्यादि। पूँजीवादी व्यवस्था चूँकि निजी स्वामित्व पर आधारित व्यवस्था है इसलिए उत्पादन मानवीय ज़रूरत की बजाय मुनाफ़े को केन्द्र में रख कर किया जाता है। मोटे तौर पर कहें तो समाज दो वर्गों में अधिकाधिक बँटता जाता है, पूँजीपति यानी कि पूँजी का स्वामी वर्ग और सर्वहारा यानि कि ऐसा वर्ग जिसके पास उत्पादन के कोई साधन नहीं है, यह वर्ग बाज़ार में अपनी मानसिक और शारीरिक श्रमशक्ति बेचकर ही जीवन यापन कर सकता है। अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए वैसे तो यह आज़ाद है किन्तु उसे कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में पूँजीवादी गुलामी में फँसना ही पड़ता है। पूँजी असल में कुछ और नहीं बल्कि ‘संचित श्रम’ ही है जिसे पूँजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग से निचोड़ता है और उसे मात्र इतना ही देता है जिससे उसका बस गुजारा भर हो सके और उसकी अगली नस्लें तैयार हो सकें। पूँजीवाद के तहत आदिम पूँजी संचय (इंग्लैण्ड की बाड़ेबन्दी मुहिम और एशिया-अफ्रीका-अमेरिका की औपनिवेशिक लूट इसके उदाहरण हैं जिनकी मदद से यूरोप की औद्योगिक क्रान्ति सम्भव हो सकी) और पूँजी संकेद्रण (यानी बड़ी पूँजी जब किसी न किसी तरीके से छोटी पूँजी को या तो समाहित कर लेती है, निगल जाती है या तबाह कर देती है) भी पूँजीवादी समाज की आम प्रवृत्तियाँ हैं। प्राक-पूँजीवादी यानी पूँजीवाद से पहले के समाजों में उत्पादन आम तौर पर जहाँ उपभोग के लिए और छोटे पैमाने पर होता था इसलिए उत्पादक किसान, दस्तकार या कारीगर कह सकता था कि उत्पाद पर उसका या कुछ ही लोगों का श्रम लगा है वहीं पूँजीवादी समाज में उत्पादन बहुत बड़े पैमाने पर होता है जिसमें सामूहिक श्रम का इस्तेमाल होता है। अब उत्पाद एक तरह से सामूहिक श्रम की पैदावार होता है, कई बार तो तैयार माल के पीछे प्रत्यक्ष तौर पर ही हज़ारों-हज़ार लोगों की मेहनत लगी होती है, तथा अप्रत्यक्ष तौर पर अन्य लोग उक्त उत्पाद में लगे लोगों की अन्य ज़रूरतें पूरी करते हैं। कहने का मतलब पैदा तो पूरा समाज मिलकर करता है किन्तु ‘क्या पैदा किया जाये?’ और ‘कितना पैदा किया जाये?’ यह निर्णय लेने का काम पूँजीपति वर्ग करता है और नियन्त्रण उसके हाथ में होता है। एक पूँजीपति भले ही उत्पादन अनुशासन के साथ करवाता हो किन्तु समूची व्यवस्था में उत्पादन पूरी तरह से अराजक तरीके से होता है। हरेक पूँजीपति बाज़ार पर कब्ज़ा चाहता है और उत्पादन ज़रूरत से बहुत ज़्यादा होता है। यही कारण है कि ”अतिउत्पादन” और बेरोज़गारी पूँजीवादी व्यवस्था के आम नियम हैं यानि एक तरफ़ मालों से भरे गोदाम तो दूसरी तरफ़ ज़रूरतमन्दों का हुजूम क्योंकि पूँजीवाद में आपकी माँग को माँग तभी माना जायेगा जब उसे पूरा करने के लिए आपकी जेब में पैसा भी हो! उत्पादन का सामाजिक स्वरूप और मालिकाने का निजी स्वरूप ही पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे प्रमुख अन्तर्विरोध होता है। पूँजीवाद में उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों का अन्तर्विरोध इसी रूप में अभिव्यक्त होता है तथा यही इस व्यवस्था को अन्त की तरफ़ ले जाता है। यानि कि समाज की क्रान्तिकारी ताकतें निजी सम्पत्ति पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करके सामूहिक मालिकाने पर आधारित समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करती हैं।
समाज में मौजूद सभी वर्ग अपने ऐतिहासिक योगदान के तौर पर ही प्रगतिशील और प्रतिगामी होते हैं, क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी होते हैं। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेताओं और अग्रणी शिक्षकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा लिखित कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र की निम्न पंक्तियों से इस बात को हम और आसानी से समझ सकते हैं, “निम्न मध्यम वर्ग के लोग–छोटे कारखानेदार, दुकानदार, दस्तकार और किसान–ये सब मध्यम वर्ग के अंश के रूप में अपने अस्तित्व को नष्ट होने से बचाने के लिए पूँजीपति वर्ग से लोहा लेते हैं। इसलिए वे क्रान्तिकारी नहीं, रूढ़िवादी हैं। इतना ही नहीं, चूँकि वे इतिहास के चक्र को पीछे की ओर घुमाने की कोशिश करते हैं, इसलिए वे प्रतिगामी हैं। अगर कहीं वे क्रान्तिकारी हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि उन्हें बहुत जल्द सर्वहारा वर्ग में मिल जाना है; चुनांचे वे अपने वर्तमान नहीं, बल्कि भविष्य के हितों की रक्षा करते हैं; अपने दृष्टिकोण को त्यागकर वे सर्वहारा का दृष्टिकोण अपना लेते हैं।”
कृषि की स्थिति भी पूँजीवाद के आम नियमों से स्वतन्त्र नहीं होती है। इसमें भी बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को तबाह-बर्बाद करती है। कृषक स्वयं एक माल उत्पादक होता है। वह बड़ा उत्पादक भी हो सकता है जिसके पास सैकड़ों हेक्टेयर कृषि योग्य जोत हो और वह छोटा भी हो सकता है जोकि अपनी एक-दो हेक्टेयर या बिलकुल नाममात्र की ज़मीन पर सपरिवार मेहनत करके मुश्किल से गुजारा भर कर पाता हो। इसलिए सबसे पहले तो यही सवाल खड़ा होता है कि क्या “किसान” प्रवर्ग में सभी किसानों को ‘एक लकड़ी हाँकना’ सम्भव हो सकता है। और यदि ऐसा है तो किसानों के तारणहार बनकर घूम रहे नेता या तो बहुत भोले हैं या फिर कहानी कुछ और ही है! किसानों और जवानों के नाम पर हमारे यहाँ पर जन-भावनाओं का काफ़ी दोहन होता रहा है। आज के अस्मितावादी और पहचान की राजनीति के दौरे-दौरा में किसान पहचान को महिमामण्डित करने वाले और ग़रीब किसानों के स्वघोषित हितैषी असल मायने में उनके कितने हितैषी हैं यह भी हम अपनी पड़ताल में स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।

लाभकारी मूल्य बढ़ाने और लागत मूल्य घटाने की माँग, किसके हित में है?

पिछले दो-तीन दशकों से किसान आन्दोलनों में उठायी जाने वाली सबसे प्रमुखतम दो माँगें हैं; पहली है फ़सल का लाभकारी मूल्य बढ़ाने की माँग और दूसरी है कृषि में होने वाली लागत को कम करने की माँग। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों में भी उक्त दोनों ही माँगों को स्थान दिया गया है। सन 2004 में तत्कालीन कांग्रेस नीत ‘यूपीए’ सरकार के कार्यकाल में मोनकोम्पू साम्बासिवन स्वामीनाथन की अध्यक्षता में अनाज की आपूर्ति को सुनिश्चित करने लिए व किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के मकसद से बनी ‘नेशनल कमीशन ऑन फार्मर्स’ ने अपनी पाँच रिपोर्टें सरकार के सामने पेश की थीं। आयोग के द्वारा अन्तिम व पाँचवीं रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 को सौंपी गयी थी। सरकारों द्वारा ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (‘एमएसपी’) औसत लागत से 50 प्रतिशत अधिक करने और कर्ज माफ़ी समेत लागत मूल्य कम करने के अलावा आयोग द्वारा की गयी सिफारिशों में भूमि सुधार, सिंचाई, खाद्य सुरक्षा, किसान आत्महत्याओं के समाधान, राज्य स्तरीय किसान आयोग बनाने, सेहत सुविधाओं से लेकर वित्त-बीमा की स्थिति सुनिश्चित करने पर बल दिया गया था।

निश्चय ही देश की काफ़ी बड़ी आबादी कृषि से जुड़ी है किन्तु औसत जोत का आकार छोटा होने के कारण प्रति व्यक्ति उत्पादकता बेहद कम है, बहुत बड़ी आबादी तो मजबूरी में खेती-किसानी में उलझी हुई है जिसके पास कोई वैकल्पिक रोज़गार नहीं है। 2005-06 की कृषि गणना के अनुसार हरित क्रान्ति के अग्रणी राज्यों में से एक हरियाणा में 67 प्रतिशत भूमि मालिकों के पास 2 हेक्टेयर से कम और 48 प्रतिशत के पास 1 हेक्टेयर से भी कम कृषि भूमि थी। देश के स्तर पर देखा जाये तो 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे व 2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के क़रीब 18 करोड़ परिवारों में से 54 प्रतिशत श्रमिक हैं, 30 प्रतिशत खेती, 14 प्रतिशत सरकारी/ग़ैर सरकारी नौकरी, 1.6 प्रतिशत गैर कृषि कारोबार से जुड़े हैं। सिर्फ़ खेती पर निर्भर 30 प्रतिशत आबादी में 85 प्रतिशत सीमान्त और छोटे किसान हैं जिनके पास क्रमशः एक से दो हेक्टेयर और एक हेक्टेयर से कम ज़मीन है। ऊपर के मध्यम और बड़े 15 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि योग्य ज़मीन का क़रीब 56 प्रतिशत है। हम सिर्फ़ किसानों की ही बात करें तो स्थिति साफ़-साफ़ दिखायी देती है कि उनका बहुत बड़ा हिस्सा रसातल में है तथा छोटी जोत होने के कारण न केवल इस हिस्से की उत्पादन लागत औसत से अधिक आती है बल्कि पूँजी के आभाव में यही हिस्सा कर्ज के बोझ तले भी दबा रहता है। 2013 के सैम्पल सर्वे के अनुसार केवल 13 प्रतिशत किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य, लाभकारी दामों का फ़ायदा उठा पाते हैं और भाजपा के आने के बाद तो यह आँकड़ा 6 प्रतिशत तक पहुँचा है। इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि औसत उत्पादन लागत में आने वाले खर्च का फर्क ही है, ज़ाहिर सी बात है अपनी निजी कृषि मशीनों-उपकरणों, बड़ी जोत और धनबल के आधार पर बने रसूख के कारण धनी किसानों की कृषि लागत भी कम आयेगी जबकि हर समय कर्ज के बोझ तले दबे और किराये पर उपकरण-मशीनें लेकर खेती में लगे ग़रीब किसानों की कृषि लागत अधिक आयेगी! और यदि सही पड़ताल के साथ देखा जाये तो यह बात भी स्पष्ट है कि सीमान्त व छोटे किसान के लिए सिर्फ़ कृषि पर निर्भर रहकर अपनी आजीविका तक कमा पाना ख़ासा मुश्किल काम है, इसीलिए परिवार के किसी न किसी सदस्य को गैर कृषि व्यवसाय या नौकरी-चाकरी में खुद को लगाना पड़ता है। हरियाणा के गाँव देहात में खेती के बारे में पहले कहा जाता था कि ‘कुँए की माटी कुँए पै ए लाग ज्याया करै’ (यानि कुँए की मिट्टी कुँए पर ही लग जाती है!) पर अब कहा जाता है कि ‘एकली खेती तै तो गुजाराए कोन्या होणा’ (अकेली खेती से गुजारा सम्भव नहीं है!)। ‘उत्तम खेती; मध्यम व्यापार, नक़द चाकरी; भीख द्वार’ जैसी कहावतें दशकों तक देश के बहुत बड़े क्षेत्र में चलती रही है किन्तु आज स्थिति यह है कि बेटे हेतु चपरासी की नौकरी के लिए ही एक ग़रीब किसान अपनी जमीन का टुकड़ा गहने/रेहन रखने या फिर बेचने तक के लिए तैयार बैठा है! पर्याप्त पूँजी और संसाधन नहीं होने के कारण न केवल कृषि बल्कि सामूहिक चरागाहों के समाप्त हो जाने के साथ ही छोटे पैमाने का पशुपालन भी आज घाटे का सौदा बन चुके हैं। एक हालिया सर्वे के अनुसार पक्का रोज़गार मिलने की ऐवज में ग़रीब किसानों का 61 प्रतिशत हिस्सा खुशी-खुशी खेती छोड़ने के लिए तैयार बैठा है!

दूसरे पहलू से यदि देखा जाये तो आमतौर पर सीमान्त और छोटा किसान जितनी कृषि पैदावार मण्डी में बेचता है उससे कहीं ज़्यादा साल भर में ख़रीद लेता है। जैसे एक छोटा और सीमान्त किसान गेहूँ, सरसों, बाजरा, धान जैसी फसलों का गुजारे लायक रखने के बाद एक हिस्सा मण्डी में बेच भले ही ले किन्तु उसे साल भर अन्य कृषि उत्पाद जैसे दालें, चीनी, चावल, पत्ती, तेल, गुड़, तम्बाकू, फल-सब्जी, पशुओं के लिए खल-बिनोला इत्यादि से लेकर वे उत्पाद जिनमें कच्चे माल के तौर पर कृषि उत्पादों का इस्तेमाल होता है खरीदने ही पड़ेंगे। कहना नहीं होगा कि यदि फसलों के दाम लागत से 50 प्रतिशत अधिक तय होते हैं तो केवल वे उन्हीं फसलों के तो होने से रहे जिन्हें छोटी किसानी का 85 प्रतिशत हिस्सा मण्डी तक पहुँचाता है बल्कि ये बढ़े हुए “लाभकारी” दाम तो सभी फसलों पर ही लागू होंगे। या नहीं? तो, अब यह सवाल उठना लाज़िमी है कि फसलों के लाभकारी दाम बढ़ाने की माँग किसके हितों में जाती है? निश्चय ही महँगाई में सहायक भूमिका निभाने वाली यह माँग खेत मज़दूरों, औद्योगिक मज़दूरों समेत अन्य मज़दूरों के साथ-साथ शहरी गरीबों के ख़िलाफ़ तो है ही बल्कि उक्त माँग असल में खुद ग़रीब किसानों के हितों के भी ख़िलाफ़ जाती है। यह अनायास ही नहीं है कि कांग्रेस नीत ‘यूपीए’ सरकार के शासन काल में जब समर्थन मूल्यों में तुलनात्मक रूप से वृद्धि की गयी थी तब बदले में बेहिसाब बढ़ी महँगाई ने ग़रीब आबादी की कमर तोड़ने का ही काम किया था। और वहीं दूसरी तरफ़ 2003 से 2013 के 10 वर्षों में कृषि उत्पाद में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई किन्तु इसी दौरान किसानों पर कर्ज 24 प्रतिशत बढ़ गया।

खेती किसानी में लागत मूल्य कम करने की माँग को देखा जाये तो पहली बात तो यही स्पष्ट है कि धनी और ग़रीब किसान दोनों का ही औसत खर्च यानी कि लागत अलग-अलग आती है, जिसपर हम थोड़ी सी बात ऊपर कर आये हैं। दूसरा, लागत मूल्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ‘मज़दूरी’ भी होती है। धनी किसान और एग्रो बिज़नेस कम्पनियाँ मज़दूरों की श्रम शक्ति का सीधे इस्तेमाल करती हैं और कृषि मशीनरी निर्माण में लगी श्रमिक आबादी भी श्रमशक्ति बेचकर ही ज़िन्दा रहती है। राजनीतिक अर्थशास्त्र का प्राथमिक ज्ञान हासिल व्यक्ति भी इस बात को भली प्रकार से समझ सकता है कि कृषि की लागत कीमतों को कम तभी किया जा सकता है जब कृषि की आगत लागतों (‘इनपुट कॉस्ट’) को कम किया जाये। और आमतौर पर कम यह तभी हो सकती हैं जब कृषि व सम्बन्धित उद्यमों में लगे श्रमिकों की या तो मज़दूरी घटायी जाये, या उतनी ही मज़दूरी में अधिक घण्टे काम लिया जाये या फिर श्रम की सघनता बढ़ायी जाये। सरकारों से साँठ-गाँठ करके कृषि क्षेत्र में लगी खाद-बीज, ‘एग्रो-बिज़नेस’ और बैंक-बीमा कम्पनियाँ खुद ही धनी किसानों के पूँजी निवेश का एक माध्यम हैं। निश्चय ही सरकारें इनकी लूट और अन्धेरगर्दी पर आँच नहीं आने देंगी। यह बात भी स्पष्ट ही है कि कृषि मशीनों का ज़्यादा इस्तेमाल तो धनी किसान यानि ‘कुलक फार्मर’ ही करते हैं, सीमान्त और छोटे किसान तो कृषि उपकरणों और मशीनरी को भाड़े-किराये पर ही लेते हैं। इस प्रकार से लागत मूल्यों में कमी की माँग भी समाज के ‘किस तबके के पक्ष में’ जायेगी और ‘किस तबके के विरुद्ध’ यह स्पष्ट है।

किसान आन्दोलनों के घोषणापत्रों में एक माँग ‘कर्ज माफ़ी’ की भी रहती है। यही नहीं विभिन्न चुनावी मदारी कर्ज माफ़ी का मुद्दा उछालकर किसानों के वोट भी बटोरते रहे हैं। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें पेश किये जाने के बाद से ही यदि देखा जाये तो कई बार अलग-अलग मौकों पर बिजली बिलों से लेकर, कर्ज माफ़ होते रहे हैं किन्तु ग़रीब किसान फिर-फिर कर्ज के बोझ तले खुद को दबा हुआ पाते हैं। इसलिए समस्या के असल कारण कहीं और हैं। तथा कर्ज केवल ग़रीब किसान ही नहीं लेते बल्कि धनी किसान भी लेते हैं जिसे वे माफ़ी के दौरान सीधे तौर पर निगल जाते हैं और शुद्ध मुनाफ़ा कमाते हैं। कर्ज माफ़ी का टोना-टोटका और झाड़-फूंक तात्कालिक तौर पर भले ही राहत देती प्रतीत होती हो किन्तु दूरगामी तौर पर यह भी छलावा मात्र ही है। पूँजीवादी व्यवस्था की गतिकी ही ऐसी है कि इसमें ग़रीब किसानों की हालत बद से बदतर होती जाती है तथा इनका एक हिस्सा लगातार उजड़कर उजरती मज़दूर यानी अपनी मेहनत बेचकर ज़िन्दा रहने वाले मज़दूर वर्ग में शामिल होता रहता है। फिर कर्ज में दी जाने वाली राशि भी सरकारें जनता से ही तो निचोड़ती हैं।

आज के समय खासतौर पर लाभकारी मूल्य बढ़ाने और लागत मूल्य घटाने की माँगों के समर्थन में विपक्षी पार्टियाँ (केवल तभी जब वे विपक्ष में हों), चुनावी तथा संशोधनवादी वामपन्थी पार्टियों से जुड़े किसान संगठन, एनजीओ की राजनीति करने वाले, किसान जातियों में वोट बैंक तलाशने वाले (और फिर चुनाव के समय मोटी थैली की तरफ़ लुढ़क जाने वाले) क्षेत्रीय गुट, भारत में क्रान्ति की जनवादी और नवजनवादी मंजिल मानने वाले वामपन्थी संगठन और ‘अहो ग्राम्य जीवन’ बोलकर रुदालियों की भूमिका में आ जाने वाले अस्मितावादी बुद्धिजीवी लगभग एकजुट हैं! किसान आन्दोलनों की मौजूदा स्थिति और इनकी माँगों का वर्गचरित्र निश्चय ही समाज के प्रबुद्ध, चिन्तनशील और प्रगतिशील तत्त्वों को सोचने के लिए विवश करते हैं।

आज के दौर में भूमि सुधारों की प्रासंगिकता और भूमिहीनों व ग़रीब किसानों के लिए सही राजनीतिक नारे का सवाल

क्रान्तिकारी तरीके से भूमि सुधार की माँग बेशक एक दौर की प्रगतिशील माँग हो सकती थी। किन्तु बदली हुई परिस्थितियों में अन्तर्विरोध पलट जाया करते हैं, माँगें बदल जाया करती हैं और वर्ग अन्तर्विरोध और राजनीतिक माँगें पलट जाया करती हैं। भारत में पूँजीवाद नीचे से (यानि फ्रांस, अमेरिका और कुछ अन्य देशों की तरह क्रान्तिकारी रास्ते से) विकसित होकर नहीं आया बल्कि ऊपर से विकसित हुआ मतलब कि पहले पूँजीपति वर्ग ने सत्ता में भागीदारी की अथवा उसके पास सत्ता समझौते के द्वारा हस्तान्तरित होकर आयी (जैसा कि प्रशा, तुर्की और एक हद तक रूस में हुआ)। भारत के नवसत्तासीन पूँजीपति वर्ग के पास न तो सामन्ती तत्वों से सीधे दो-दो हाथ करने का माद्दा था तथा न ही उसके पास ऐतिहासिक तौर पर पुनर्जागरण-प्रबोधन के रूप में जनवाद और मानववाद की कोई क्रान्तिकारी विरासत ही थी। यही नहीं क्रान्तिकारी तरीके से भूमि सुधार का वायदा करके भी कांग्रेस पलट गयी। आज़ादी से पहले औपनिवेशिक शासक वर्ग ने देशी सामन्त वर्ग की मदद से कृषि में मौटे तौर पर ज़मींदारी, रैयतवाड़ी और महालवाड़ी भूमि सम्बन्धों को लागू किया था जिनकी अपनी-अपनी विशिष्टताएँ थीं। भारत के पूँजीपति वर्ग ने समझौता-दबाव-समझौता की नीतियों पर चलते हुए सत्ता हथियाने के बाद धीरे-धीरे भूमि सम्बन्धों के पूँजीवादी रूपान्तरण का रास्ता साफ़ किया। इस प्रकार से न तो ज़मींदारी भूमि व्यवस्था या स्थाई बन्दोबस्त वाले इलाकों में दलित जातियों को कुछ मिला बल्कि महालवाड़ी और रैयतवाड़ी वाले इलाकों में भी व्यापक दलित आबादी भूमिहीन ही बनी रही। आज़ादी से पहले तुलनात्मक रूप से देखा जाये तो भी दलित जातियों की बहुसंख्यक आबादी घोर ग़रीबी झेल रही थी बेशक बेहद कम उत्पादकता के चलते किसानों के बहुसंख्यक के हालात भी कोई बेहतर नहीं थे किन्तु इनकी स्थिति दलित जातियों की तुलना में तो इक्कीस ही थी। जैलदारों, नम्बरदारों, साहूकारों के तौर पर उसी समय आज की कुलक (धनी किसान की) राजनीति के बीज भी मोटे तौर पर देखे जा सकते हैं। हरित क्रान्ति के दौर में और फिर उदारीकरण की नीतियों ने तो किसानों के बीच ही होने वाले वर्ग ध्रुवीकरण को बेहद तीखा कर दिया है। बहरहाल मुद्दे की बात यह है कि नवस्वाधीन देश में पूँजीवादी सत्ता ने सामन्ती तत्वों को वर्ग रूपान्तरण करने और खुद को पूँजीवादी कुलक फार्मरों में तब्दील करने का पूरा मौका मिला, उन्हें जब्त ज़मीन की ऐवज में ‘प्रिवी पर्स’ के रूप में मोटी धनराशी दी गयी, पूँजी निवेश का मौका दिया गया और सत्ता व्यवस्था का भागीदार बनाया गया। कृषि में ऊपर से होने वाले सुधारों में पूँजीवादी रूपान्तरण इसी तरह से होता है। इस प्रकार से उत्पादन सम्बन्धों में पूँजीवादी रूपान्तरण होने के बाद पुराने सूत्रीकरण और सिद्धान्त किसी काम के नहीं रह जाते क्योंकि सामाजिक यथार्थ आगे बढ़ जाता है। इसीलिए बदली हुई परिस्थितियों को समझकर ही सिद्धान्तों का विकास किया जाता है तथा संघर्ष की रणनीति और रणकौशल विकसित किये जाते हैं। जनवादी और नवजनवादी क्रान्ति के रास्ते पर 1960 के दशक में ही सवाल खड़े करने के पर्याप्त तर्क मौजूद थे किन्तु उसके बाद 1980 का दशक आते-आते तो भारतीय अर्थव्यवस्था में पूँजीवादी विकास को बड़ी ही आसानी से रेखांकित किया जा सकता था। उदारीकरण-निजीकरण के पिछले 27 सालों के दौरान जिस द्रुत गति से भारतीय समाज के अन्दर तक पूँजी की घुसपैठ हुई है इसे कोई राजनीतिक रूप से मोतियाबिन्द का शिकार ही नकार सकता है। पहली बात तो अब ज़मीन है भी कितनी जिसके वितरण की बात की जाती है दूसरा जो 85 प्रतिशत सीमान्त और छोटी किसानी तबाही और बर्बादी झेल रही है उसके हालात क्या सच्चाई से रूबरू कराने के लिए पर्याप्त नहीं है? यह वास्तविकता है कि पूँजी के आभाव में तथा बड़ी पूँजी के सामने लाचार ग़रीब किसान आबादी को अपनी जगह जमीन से उजड़कर फिर से भूमिहीन की श्रेणी में आने में ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा! ज़मीन के छोटे से टुकड़े की भूख पैदा करना निश्चय ही आज एक प्रतिगामी कदम होगा। आज के हालात में अन्य मेहनतकश तबकों की तरह ही ग़रीब किसानों के अन्तर्विरोध भी मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के साथ ही हैं। आज नहीं तो कल ग़रीब किसानों का उजड़ना तय है, यही समाज का नियम है इसे टाला नहीं जा सकता! इसलिए संघर्ष की हमारी माँगें और नारे न केवल तर्कसम्मत होने चाहियें बल्कि उनके नीचे इतिहास बोध और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ज़मीन भी हो।

ग़रीब किसानों के दूरगामी हित किन माँगों के लिए संघर्ष करने में हैं?

ग़रीब किसानों के असल हित आज पूरी तरह से मज़दूरों-मेहनतकशों के हितों के साथ जुड़े हुए हैं। एक ऐसी समाज व्यवस्था ही उन्हें उनके दुखों से छुटकारा दिला सकती है जिसमें उत्पादन के साधनों पर मेहनतकशों का नियन्त्रण हो तथा उत्पादन समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर हो न कि निजी मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर। छोटा लगने वाला कोई भी रास्ता मंजिल तक पहुँचने की दूरी को और भी बढ़ा सकता है। यह बात हम तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट कर आये हैं कि लाभकारी मूल्य बढ़ाने और लागत मूल्य घटाने की माँगें असल में ग़रीब किसान आबादी की सही-सही आर्थिक-राजनीतिक माँगें हो ही नहीं सकती। थोड़ी सी बातचीत के बाद ग़रीब किसान इस बात को अपने सहज बोध से समझ भी लेते हैं कि प्रत्येक फसल के साथ उन्हें दो-चार हज़ार रुपये ज़्यादा मिल भी जायेंगे तो इससे स्थिति में कोई गुणात्मक फर्क नहीं पड़ने वाला बल्कि महँगाई बढ़ाकर ब्याज समेत इन्हीं की जेब से ये पैसे वापस निकाल लिए जायेंगें। बेरोज़गारी की मार झेल रहे ग़रीब किसानों के बेटे-बेटियों का गुज़ारा थोड़ी सी ज़मीन में नहीं होने वाला यह बात भी साफ़ है। इसलिए तर्क के आधार पर सोचा जाना चाहिए और अपने सही वर्ग हितों की पहचान की जानी चाहिए। बेरोज़गारी, बढ़ती महँगाई, सबके लिए शिक्षा और चिकित्सा सुविधा, पूँजीवादी लूट का खात्मा, दमन-शोषण का खात्मा आदि वे मुद्दे होंगे जिनके आधार पर व्यापक जनता को एकजुट किया जा सकता है। यही नहीं इन्हीं माँगों के आधार पर ही अन्य जातियों के गरीबों के साथ पुश्तैनी तौर पर खेती-किसानी से जुड़ी जातियों के बहुसंख्यकों की एकजुटता भी बनेगी। जायज माँगों के लिए एकजुट संघर्ष की प्रक्रिया में ही आपसी भाईचारा और एकता और भी मज़बूत होंगे। पहचान की राजनीति करने वालों, अस्मितावादी एनजीओ मार्का धन्धेबाजों और धनी किसानों की माँगों को लेकर ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने वाली किसान यूनियनों से ग़रीब किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है। इस बात को जितना जल्दी समझ लिए जाये उतना ही न केवल समाज के लिए बेहतर होगा बल्कि यह खुद ग़रीब किसानों के लिए भी बेहतर होगा।

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