विपक्ष संसद से लेकर सड़क तक चाहे जितना शोर मचा ले, लेकिन सच्चई यह कि देश में बेरोजगारी की समस्या एकाएक उत्पन्न नहीं हुई है बल्कि यह दशकों से चली आ रही नीतिगत खामियों का नतीजा है। हर हाथ को काम मुहैया कराने के मामले में सरकारें फिसड्डी सिद्ध होती रहीं। इसके चलते उन्हें लानत-मलानत भी खूब ङोलनी पड़ती है। मौजूदा सरकार कुछ इसी दौर से गुजर रही है। मोदी ने 2013 में आगरा की एक चुनावी रैली में वायदा किया था कि भाजपा की सरकार बनने पर वह प्रतिवर्ष एक करोड़ लोगों को रोजगार मुहैया कराएंगे। मगर मोदी के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में रोजगार देने का मामला कुछ लाख तक सिमट कर रह गया। 2017 में मोदी सरकार ने बुनियादी ढांचा, निर्माण और व्यापार समेत आठ प्रमुख क्षेत्रों में सिर्फ 2 लाख 31 हजार नौकरियां दीं जबकि 2015 में यही आंकड़ा एक लाख 55 हजार पर सिमटा रहा। हालांकि 2014 में 4 लाख 21 हजार लोगों को नौकरी मिली थी। बता दें कि जब कांग्रेस नीत संप्रग दूसरी बार सत्ता में आई तब डॉ.मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 2009 में ही दस लाख से अधिक नौकरियां दी गई थीं। दो सरकारों का यह तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि अब तक मोदी सरकार कांग्रेस के एक साल के आंकड़े को भी नहीं छू पाई है।

याद दिला दें कि 2014 के लोकसभा के चुनावी घोषणापत्र में रोजगार भाजपा का मुख्य एजेंडा था। जिस प्रकार रोजगार को लेकर सरकार कमजोर दिखाई दे रही है उससे तो यही लगता है कि रोजगार बढ़ाना तो दूर लाखों की संख्या में रिक्त पड़े पदों को ही भर दें तो भी गनीमत है। सरकारी और गैर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 6 हजार से अधिक पद खाली हैं। आइआइटी, आइआइएम और एनआइटी में भी हजारों की संख्या में पद रिक्त हैं जबकि अन्य इंजीनियरिंग कॉलेज 27 फीसद शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। 12 लाख स्कूली शिक्षकों की भर्ती जरूरी है। सवाल है सरकार इन अहम रिक्तियों को भरे बिना रोजगार को लेकर चिंता मुक्त कैसे हो सकती है? जिसकी वजह से विपक्ष और बेरोजगार युवा सरकार पर निशाना साध रहे हैं। मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाएं बेशक नागरिकों पर केंद्रित हों, लेकिन मोदी सरकार जिसका लगभग चार साल का कार्यकाल हो रहा है, वायदे पूरे करने में विफल रही है। सरकार ने मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप और स्टैंडअप इंडिया के लिए पूरी ताकत झोंकी दी, लेकिन वहां भी रोजगार की स्थिति संतोषजनक नहीं है। संयुक्त राष्ट्र श्रम संगठन की रिपोर्ट निराश करती है।

रिपोर्ट बताती है कि 2017 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 2016 की तुलना में बढ़ी है जबकि 2018 में भी यह क्रम जारी रहेगा। रोजगार मिलने की रफ्तार धीमी है। जाहिर है इससे असंतोष बढ़ रहा है। वैसे मोदी सरकार इस दिशा में काम नहीं कर रही है, यह कहना ठीक नहीं होगा। रोजगार के अवसर बढ़े इसके लिए सरकार ने कौशल विकास मंत्रलय बनाया। तीसरे और चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरियों में धांधली न हो इसके लिए साक्षात्कार भी समाप्त कर दिया। बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और सीएमआइआइ के अनुसार मनरेगा के तहत रोजगार हासिल करने वाले परिवारों की संख्या 83 लाख से बढ़कर 1 करोड़ 67 लाख हो गई। इससे यह साफ हो गया है कि ग्रामीण इलाकों में रोजगार मुहैया कराने का सरकार का जोर सफल हुआ है, पर पढ़े-लिखे युवाओं की स्थिति खराब हुई है।

एक टेलीविजन साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना कि पकौड़े बेचने वाले भी बेरोजगार नहीं हैं, इस पर सरकार न चाहते हुए भी बेरोजगारी को लेकर घिर गई है। 65 फीसद युवाओं वाले इस देश में शिक्षा और कौशल के स्तर पर रोजगार मुहैया न करा पाना ऊपर से पकौड़े जैसे उदाहरण देना उचित तो नहीं है। 1साल 2027 तक भारत सर्वाधिक श्रम बल वाला देश होगा। अर्थव्यवस्था की गति बरकरार रखने के लिए रेाजगार के मोर्चे पर खरा उतरना होगा। भारत सरकार के अनुसार 2022 तक 24 क्षेत्र में 11 करोड़ अतिरिक्त मानव संसाधन की जरूरत होगी। इसके लिए पेशवर और कुशल मानव संसाधन का होना जरूरी है। सर्वे कहते हैं कि शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी की स्थिति काफी खराब है। 18 से 29 वर्ष के शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी दर 10.2 फीसद जबकि अशिक्षितों में 2.2 फीसद है। ग्रेजुएट में बेरोजगारी का दर 18.4 प्रतिशत पर पहुंच गई है। भविष्य में अधिक से अधिक शिक्षित युवा श्रम संसाधन में तब्दील हों तभी बात बनेगी। यदि खपत नहीं हुई तो असंतोष का बढ़ना स्वाभाविक है। इस लिहाजा से अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट भी चिंतित करती है। भारत में हर साल लगभग तीन करोड़ छात्र स्नातक पाठ्यक्रमों में दाखिला लेते हैं। 40 लाख के आसपास परास्नातक में नामांकन कराते हैं। जाहिर है एक बड़ी खेप हर साल यहां भी तैयार हो रही है जो रोजगार की उम्मीद रखती है। पीएचडी करने वालों हालत

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