(राघवेंद्र झा)

आर्थिक नीति निर्माण के इतिहास में 25 अक्टूबर, 2017 का दिन एक खास अध्याय के तौर पर दर्ज होगा। इस दिन सरकार ने राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज देने का एलान किया जिसका मूल मकसद बुनियादी ढांचे में सरकारी खर्च बढ़ाना है। इसके साथ ही बैंकों के एनपीए की विकराल होती समस्या से मुक्ति के लिए व्यापक योजना की भी घोषणा हुई। आर्थिक वृद्धि की रफ्तार पिछले कुछ समय के दौरान भले ही थोड़ी सुस्त पड़ी हो, लेकिन मोदी सरकार के शुरुआती तीन वर्षो के दौरान दमदार सरकारी सुधारों के दम पर वृद्धि ने खासी रफ्तार पकड़ी जिसे और तेजी देने के लिए ही तगड़ी खुराक दी गई है। इस प्रोत्साहन से लघु अवधि की वृद्धि को जरूर पंख लगेंगे, लेकिन बड़ी चुनौती आठ फीसद की ऊंची वृद्धि में निरंतरता बनाए रखने की होगी।

आठ प्रतिशत की वृद्धि हासिल करने की राह में आने वाली चुनौतियों को सही तरह चिन्हित करना आवश्यक है। चुनौती रूपी एक अवरोध तो यही है किजहां निजी निवेश लड़खड़ा रहा है वहीं एमएसएमई क्षेत्र की वृद्धि भी सुस्त पड़ रही है। ये भले ही दो समस्याएं दिखती हों, लेकिन इसकी वजह कहीं न कहीं एक ही है और वह है पिछले कुछ अरसे से ब्याज दरों का ऊंचा होना। हैरानी की बात यह है कि विदेशी मुद्रा भंडार 400 अरब डॉलर से भी अधिक होने के बावजूद ब्याज दरों के मोर्चे पर कठिन स्थिति बनी हुई है। इस सिलसिले में वर्ष 2008-09 के विश्वव्यापी वित्तीय संकट पर गौर करना खासा उपयोगी होगा। हालांकि उस संकट के बाद भारत की आर्थिक वृद्धि की दर जरूर कुछ पस्त पड़ गई थी, लेकिन बावजूद इसके भारत उस महामंदी से काफी हद बचा ही रहा जिससे निपटने में अमेरिका और यूरोप को लंबे समय तक कड़ी मशक्कत करनी पड़ी। इसका मुख्य कारण यही था कि वित्तीय संकट का जन्म मुख्य रूप से वित्तीय क्षेत्र में हुआ और उससे लगे वित्तीय झटकों से निपटने में मुद्रास्फीति लक्ष्य तंत्र (आइटीएम) की भूमिका बेहद खराब रही।

भारत में उस समय ऐसा आइटीएम अस्तित्व में नहीं था और इसी वजह से वह कई दूसरे देशों की तुलना में संकट से कहीं बेहतर तरीके से निपटने में सफल भी रहा। हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जेफरी फ्रेंकल ने तो यहां तक कह दिया कि मुद्रास्फीति लक्ष्य तंत्र अपनी मौत खुद मर गया है, क्योंकि वित्तीय झटकों से सुरक्षा करने में वह सहायक नहीं।

यह अफसोस की बात है कि बाद में भारत ने भी आइटीएम अपना लिया और अब मौद्रिक नीति समिति यानी एमपीसी के रूप में उसे संस्थागत दर्जा भी दे दिया है। रघुराम राजन के दौर का अस्पष्ट आइटीएम हो या उर्जित पटेल के दौर का स्पष्ट आइटीएम, दोनों ही स्थितियों में उसका असर ब्याज दरों में बढ़ोतरी के रूप में ही देखने को मिला, भले ही मुद्रास्फीति दबाव को बढ़ाने में आपूर्ति की किल्लत अहम रही हो। आइटीएम को केवल मांग पक्ष पर ध्यान देना चाहिए। जब मुद्रास्फीति का दबाव आपूर्ति के मोर्चे से पड़ा हो तो आइटीएम ने ब्याज दरें बढ़ाकर एक तरह से आर्थिक वृद्धि को ही कमजोर करने का काम किया। मौद्रिक नीति निर्धारण की तीन अलग-अलग व्यवस्थाओं की तुलना से स्थिति स्पष्ट होगी। आइटीएम के अलावा दो अन्य व्यवस्थाएं हैं विनिमय दर लक्ष्य यानी ईआरटी और नॉमिनल जीडीपी (एनजीडीपी) लक्ष्य। इनका संबंध आपूर्ति के स्तर से ही है। प्रांजल भंडारी और जेफ्री फ्रेंकल ने आपूर्ति के स्तर पर विभिन्न तरह के झटकों की स्थिति में इन तीनों व्यवस्थाओं की पड़ताल की है।

कल्पना कीजिए कि मुद्रास्फीति दबाव बाढ़ या सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा के चलते प्रभावित हुई आपूर्ति से उत्पन्न हुआ हो। ऐसे में आइटीएम के तहत ब्याज दरें बढ़ा दी जाएंगी और इस तरह जीडीपी वृद्धि दर भी गिर जाएगी। विनिमय दर वाली व्यवस्था में स्थिर विनिमय दरें व्यापार संतुलन और जीडीपी वृद्धि में गिरावट को कुछ हद तक प्रभावित करेंगी। वहीं एनजीडीपी लक्ष्य वाली व्यवस्था में विनिमय दरों के समायोजन से आपूर्ति संकट के असर को व्यापार संतुलन में कमी और सुस्त आर्थिक वृद्धि के बीच बांट दिया जाता। ऐसे में एनजीडीपी शेष दोनों व्यवस्थाओं से बेहतर साबित होती है। अब मान लीजिए कि आयात कीमतें बढ़ जाती हैं जैसे कि अभी कच्चे तेल की कीमतों में हो रहा है। इस स्थिति में ईआरटी व्यवस्था के तहत मुद्रा में अवमूल्यन नहीं आएगा जिससे व्यापार घाटा बढ़ेगा और परिणामस्वरूप जीडीपी वृद्धि सिकुड़ जाएगी। वहीं सख्त आइटीएम में मुद्रा मुद्रा महंगी हो जाएगी जिसका व्यापार संतुलन और वृद्धि पर ईआरटी व्यवस्था से भी ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसी स्थिति में एनजीडीपी वाली व्यवस्था में आपूर्ति से जुड़े दुष्प्रभाव को ऊंची मुद्रास्फीति और सुस्त वृद्धि के बीच विभाजित कर दिया जाएगा न कि पूरा जोर वृद्धि को कमजोर करने पर होगा।

अब निर्यात कीमतों में गिरावट से उत्पन्न होने वाले आपूर्तिगत संकट की स्थिति पर विचार करते हैं। ऐसे में ईआरटी व्यवस्था में मुद्रा के साथ कुछ नहीं किया जा सकता। आइटीएम व्यवस्था में अवमूल्यन सीमित ही होगा, क्योंकि ऐसे अवमूल्यन से मुद्रास्फीति में इजाफा होगा। इस प्रकार व्यापार संतुलन और जीडीपी वृद्धि दर, दोनों पर बेहद प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसके उलट एनजीडीपी लक्ष्य में मुद्रा अवमूल्यन व्यापार संतुलन को साधने का काम करेगा और आर्थिक वृद्धि की आपूर्तिगत बाधा के असर को भी कम करने में मददगार होगा। इस तरह देखा जाए तो आपूर्ति के स्तर पर लगे झटके से निपटने में ईआरटी और आइटीएम की तुलना में एनजीडीपी वाली व्यवस्था कहीं अधिक कारगर साबित होती है।

भंडारी और फ्रेंकल ने भी यही साबित किया है। भारत के लिए मांग के मोर्चे पर लगे झटकों के अनुभवजन्य साक्ष्य दर्शाते हैं कि कीमतों पर ब्याज दरों का प्रभाव बहुत कमजोर होता है और उसमें खामियों की काफी गुंजाइश होती है। वहीं ब्याज दरों में कमी का सीधा फायदा यह होगा कि एमएसएमई क्षेत्र को किफायती दरों पर कर्ज मिलेगा जो आइटीएम तंत्र के तहत संभव नहीं है। तब यह क्षेत्र रोजगार के अधिक अवसर सृजित करने के साथ ही विनिर्माण क्षेत्र के लिए भी सूत्रधार की भूमिका निभा पाएगा। ऐसे में लचीली मौद्रिक नीति व्यवस्था के पक्ष में तमाम दलीलें दी जा सकती हैं। वैसे भी यह हैरानी की बात नहीं कि भारत में पहले चलन में रहा अपेक्षाकृत अल्पविकसित वित्तीय ढांचा एशियाई वित्तीय संकट और वैश्विक वित्तीय संकट जैसी बड़ी वित्तीय आपदाओं को मात देने में सफल रहा।(साभार दैनिक जागरण )
(लेखक ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)

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