बीते माह राष्ट्रमंडल संसदीय संघ-भारत प्रक्षेत्र का पटना में आयोजित छठा सम्मेलन कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा। इस सम्मेलन में विभिन्न राज्यों की विधायिका के प्रतिनिधियों के अलावा राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की सभापति एवं महासचिव के अलावा दूसरे प्रक्षेत्रों के कई विदेशी प्रतिनिधि भी शामिल हुए। राष्ट्रमंडल देशों के विधायी निकायों का यह एक संगठन है जिसमें प्रचलित विधायी प्रणालियों के संबंध में विमर्श होता है। उनमें उत्तम प्रचलन अन्य को जानने, समझने एवं अपनाने का मौका मिलता है। इस संगठन का लक्ष्य प्रजातंत्र एवं इससे जुड़ी संस्थाओं को मजबूती प्रदान करना होता है। सम्मेलन में इसके अलावा विधायिका से जुड़े ज्वलंत एवं समसामयिक मुद्दों पर विमर्श होता है। पटना में आयोजित इस सम्मेलन में विमर्श के मुद्दों में सबसे महत्वपूर्ण था-‘विधायिका एवं न्यायपालिका लोकतंत्र के दो मजबूत स्तंभ।’ इस विषय पर सम्मेलन में पूरे एक दिन चर्चा हुई। लगभग 15 प्रतिनिधियों ने इस पर अपने विचार रखे जिसमें विधानसभाओं के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं विधायिका के अन्य प्रतिनिधिमंडल शामिल थे। इस विमर्श ने विधायिका एवं न्यायपालिका के आपसी संबंधों पर एक बार फिर से ध्यान खींचा है। प्रतिनिधियों की सर्वसम्मत राय थी कि संविधान की मूल भावना के अनुसार विधायिका और न्यायपालिका को एक दूसरे के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए एक दूसरे के अधिकारों के अतिक्रमण से बचना चाहिए।

एक बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि न्यायिक सक्रियता के इस काल में न्यायपालिका द्वारा विधायिका के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण से दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पैदा होती है। संविधान ने विधायिका एवं न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है और एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप का निषेध किया है। अनुच्छेद 121 एवं 211 जहां क्रमश: संसद अथवा विधानसभाओं द्वारा न्यायपालिका की कार्यशैली अथवा गतिविधियों की चर्चा को निषेध करता है वहीं अनुच्छेद 122 और 212 क्रमश: संसद या विधानसभाओं की कार्यवाही अथवा प्रक्रिया की विधि मान्यता पर न्यायपालिका द्वारा प्रश्न उठाने को निषेध करता है। हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा इन धाराओं को साथ-साथ अंकित करने की मंशा स्पष्ट है कि दोनों अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वतंत्र हैं और एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप निषिद्ध है। भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत है। हमारा संविधान न्यायपालिका को संविधान एवं मौलिक अधिकारों का रक्षक बताता है। न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत के तहत विधायिका द्वारा पारित अधिनियम की समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को प्राप्त है। इसके तहत न्यायपालिका किसी कानून के द्वारा संविधान के मूल ढांचे के हनन को रोकती है। दूसरे, संविधान के निर्वचन का अंतिम अधिकार भी न्यायपालिका के पास है।

न्यायिक नियुक्तियों के मामले को देखा जाए तो स्पष्ट है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी और यदि वह आवश्यक समझेंगे तो मुख्य न्यायाधीश या संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करेंगे, परंतु न्यायपालिका द्वारा निर्वचन के अंतिम अधिकार एवं न्यायिक समीक्षा के अधिकार का उपयोग कर न्यायाधीशों की नियुक्ति के अधिकार स्वयं हासिल कर लिए हैं। विश्व के किसी भी देश में यह व्यवस्था नहीं है कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें, लेकिन भारत में ऐसा ही है। न्यायिक सक्रियता से अवांछनीय स्थिति पैदा होती है। व्यावहारिक रूप से भारतीय संविधान में शक्तियों का पृथक्करण न होकर दायित्वों के पृथक्करण का सिद्धांत अपनाया गया है।

सरकार के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को अपने-अपने क्षेत्रों में स्वतंत्र एवं सर्वोच्च तो बनाया है, परंतु किसी को भी संप्रभु नहीं बनाते हुए अपने-अपने दायरे से बाहर नहीं जाने की अपेक्षा की गई है। इस प्रयोजन से लागू ‘नियंत्रण एवं संतुलन’ यानी चेक एंड बैलेंस का सिद्धांत भारतीय संविधान की खास विशेषता मानी जाती है। किसी अंग द्वारा संविधान की भावना के विपरीत कार्य करने की स्थिति में उसे नियंत्रित करने की व्यवस्था है और तीनों अंगों में संतुलन की अपेक्षा की गई है। यहां यह विचारणीय है कि विधायिका या कार्यपालिका द्वारा अपनी हद पार करने अथवा अपना दायित्व न निभाने की स्थिति में न्यायिक हस्तक्षेप की अवधारणा है, परंतु न्यायिक सक्रियता से उत्पन्न दूसरे अंगों के अधिकारों के अतिक्रमण के समय इसके नियंत्रण के प्रावधान का निहायत अभाव दिखता है। इसी कारण अतिक्रमण की स्थिति में विधायिका या कार्यपालिका के पास पीड़ा व्यक्त करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। न्यायिक सक्रियता से उत्पन्न होने वाली विसंगतियों का अंदेशा संविधान सभा के सदस्यों द्वारा उसी समय व्यक्त किया गया था।

संविधान सभा के विद्वान सदस्य ए कृष्णास्वामी अय्यर ने कहा था कि वैयक्तिक स्वतंत्रता की हिफाजत एवं संविधान के सही क्रियान्वयन हेतु एक स्वतंत्र न्यायपालिका की आवश्यकता है, परंतु न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत को इस हद तक नहीं बढ़ाया जाए कि न्यायपालिका उच्च-विधायिका या उच्च-कार्यपालिका के रूप में कार्य करने लगे। स्पष्ट है कि नियंत्रण के प्रावधान के अभाव में इस तरह की आशंका का उसी वक्त अनुमान लगा लिया गया था पर कुछ सदस्य न्यायपालिका द्वारा दूसरे अंगों के अधिकारों के अतिक्रमण की कल्पना भी नहीं करते थे। संविधान सभा के सदस्य केएम मुंशी ने साफ तौर पर यह कहा था कि न्यायपालिका कभी संसद पर अपना प्रभुत्व नहीं थोपेगी। किसी भी क्षेत्र में जवाबदेही एवं पारदर्शिता का सिद्धांत दुनिया भर में लागू है। भारत में कार्यपालिका एवं विधायिका के अलावा अन्य क्षेत्रों में इन सिद्धांतों को लागू करने के निर्देश न्यायपालिका द्वारा बराबर दिए गए हैं। यह भी सही है कि न्यायिक हस्तक्षेप के कारण कई बड़े-बड़े घोटाले उजागर हुए हैं और दोषी कानून की गिरफ्त में आए हैं, परंतु इसी जवाबदेही एवं पारदर्शिता के सिद्धांत को न्यायपालिका अपनी व्यवस्था एवं प्रणाली में क्यों नहीं लागू करना चाहती है, यह समझ से परे है।

पहला, खुदरा बिक्री इतनी अधिक रही है कि उसने संस्थागत निवेशकों की खरीदारी को पीछे छोड़ दिया है। मार्च में निफ्टी सूचकांक 2.5 फीसदी गिर गया है जबकि खुदरा निवेशकों के रुझान को बेहतर तरीके से दर्शाने वाला निफ्टी स्मालकैप 250 सूचकांक 3.3 फीसदी गिरा है। पंजाब नैशनल बैंक घोटाले के बारे में नई जानकारियां सामने आने के बाद गारंटी पत्र (एलओयू) पर रोक जैसी तीव्र प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। इससे खुदरा निवेशकों की धारणा और अधिक प्रभावित हुई है। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर और वित्त मंत्रालय के बीच मतभेद होने के संकेतों ने भी घबराहट बढ़ाई है। दूसरा, रुपये में ऋण अदायगी से एफपीआई के दूर होने से बॉन्ड बाजार में और गिरावट की आशंका है। पिछले छह महीनों में तमाम बॉन्ड बाजारों का प्रतिफल बढ़ा है और प्रतिफल वक्र भी स्थिर हो चुका है। बॉन्ड भाव के बढऩे का मतलब है कि ऋण में निवेश करने वालों के लिए पूंजीगत नुकसान होगा। सपाट बॉन्ड वक्र होने से मंदी की भी आशंकाएं पैदा होती हैं। सामान्य तौर पर यह इक्विटी बाजार में गिरावट का प्रमुख संकेतक होता है।

बैंकिंग क्षेत्र के गहरे संकट में होने को लेकर कोई संदेह नहीं है और इसका आर्थिक प्रगति पर लंबे समय तक असर पड़ता भी लाजिमी है। वित्तीय क्षेत्र में संकट वैश्विक कारकों के असर से पैदा होने के कई वाकये हुए हैं। वित्तीय संकट हमेशा ही लंबे समय तक आर्थिक विकास को प्रभावित करता है। ऐसे में एलओयू जैसे सशक्त तरीके को बंद करने की कोशिश से निर्यातकों के लिए लागत बढऩी तय है। बाजार अब भी इस पहलू को नजरअंदाज कर सकता है कि बैंकों में 2.2 लाख करोड़ की अतिरिक्त पूंजी डालने से भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का बहीखाता नहीं सुधरेगा। वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा विधेयक के प्रावधान भी असली समस्याओं का समाधान करने की स्थिति में नहीं हैं। पिछले दो वर्षों से खुदरा निवेश बाजार में तेजी का अहम घटक रहा है। इसे परखने का सबसे अच्छा तरीका इक्विटी म्युचुअल फंड परिसंपत्तियों में प्रवाह है। लेकिन इसका बड़ा हिस्सा संस्थागत निवेश योजनाओं में लगा है। नया वित्त वर्ष शुरू होने और अप्रैल के आंकड़े आने के बाद बाजार धारणा में संभावित बदलाव का पता चल पाएगा।

*🔵बैंकिंग प्रणाली का गहराता संकट और बाजार पर दबाव*

पिछले पखवाड़े तेलुगू देशम पार्टी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से अलग हो जाने और बैंकिंग घोटाले का दायरा व्यापक होने से घबराए खुदरा निवेशकों ने जमकर बिकवाली की। तीन लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में हार और केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव जैसी खबरों के चलते सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी थोड़ा कमजोर नजर आने लगी। अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के संरक्षणवादी कर प्रस्तावों से वैश्विक व्यापार युद्ध छिडऩे की आशंका ने भी विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (एफपीआई) को कुछ हद तक डरा दिया है। लिहाजा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और विनिर्माण क्षेत्र के उत्साहजनक आंकड़े आने और खुदरा महंगाई दर में कमी का रुझान आने के बावजूद बाजार सूचकांकों में गिरावट देखी जा रही है।

बाजार में लंबे समय तक गिरावट का रुख बरकरार रहने के आसार दिख रहे हैं। तकनीकी संदर्भ में निफ्टी 200 कारोबारी दिवसों के औसत स्तर (डीएमए) से थोड़ा अधिक 10,150-10,200 अंकों के दायरे में रह सकता है। अगर यह 10,000 अंक के स्तर से भी नीचे खिसक जाता है तो फिर गिरावट का रुख लंबे समय तक कायम रह सकता है। खराब कारोबारी धारणा के चलते जनवरी के बेहतर औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) को भी तवज्जो नहीं दी गई। जनवरी 2017 की तुलना में जनवरी 2018 में आईआईपी 7.5 फीसदी की तेजी पर रहा है। फरवरी में खुदरा महंगाई में भी बढिय़ा सुधार हुआ है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा महंगाई फरवरी में 4.44 फीसदी रही जबकि जनवरी में यह 5.07 फीसदी थी। वैसे महंगाई कम होने से अप्रैल में ब्याज दरों के कम होने की संभावना कम हो जाती है।  आगामी वित्त वर्ष में विभिन्न राज्यों में विधानसभा चुनाव और अगले साल अप्रैल-मई में आम चुनाव होंगे। कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव जल्द ही होंगे। वहां का सियासी माहौल देश के राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे बदलावों से सीधे तौर पर प्रभावित होगा जिसका बाजार की उठापटक पर असर पडऩा तय है। मोटे तौर पर बाजार का रुख चुनावों में भाजपा को मिली हार-जीत पर निर्भर करेगा। भाजपा को मिलने वाली सीटों से ही यह तय होगा कि बाजार तेजी पकड़ता है या उसमें गिरावट आती है।

उत्तर प्रदेश के फूलपुर एवं गोरखपुर और बिहार के अररिया में हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा के खिलाफ गए। खासकर उत्तर प्रदेश में भाजपा के मजबूत गढ़ माने जाने वाले संसदीय क्षेत्रों में मिली हार ने बाजार की धारणा पर गहरी चोट पहुंचाई। अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन आगे भी रहता है तो उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए अपना तगड़ा आधार बनाए रख पाना खासा मुश्किल हो जाएगा। पुरानी सहयोगी तेदेपा के अलग हो जाने से भाजपा पर अपना गठबंधन बनाए रख पाने को लेकर आशंकाएं भी जताई जाने लगी हैं। अगर अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत नहीं मिलता है तो सहयोगी दलों की भूमिका अहम हो जाएगी। मार्च में निवेश का पैटर्न भी खासा रोचक रहा है। संस्थागत निवेशकों ने इक्विटी खरीदी हैं लेकिन बाजार गिरा है। यह अपने आप में अनूठी बात है। इस महीने की 16 तारीख तक घरेलू संस्थागत निवेशकों ने कुल 3.3 अरब रुपये के इक्विटी खरीदी थी जबकि विदेशी संस्थागत निवेशकों ने 63.8 अरब रुपये की खरीद की। इस दौरान विदेशी निवेशकों ने 106 अरब रुपये की बिकवाली भी की है। इन आंकड़ों के गहरे निहितार्थ हो सकते हैं।

*🔵कसौटी पर कानून*

देश में जाति के आधार पर भेदभाव के बर्ताव की खबरें आम रही हैं। इस तरह के सामाजिक बर्ताव से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को संरक्षण देने के लिए बाकायदा कानूनी व्यवस्था है। लेकिन हाल के दिनों में कुछ ऐसे आरोप लगाए गए कि इन कानूनों का सहारा लेकर कुछ निर्दोष लोगों को भी परेशान किया जाता है। इस संदर्भ में महाराष्ट्र के एक मामले में सुनवाई के बाद मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून के दुरुपयोग की शिकायतों के मद्देनजर अब ऐसे मामलों में गिरफ्तारी से पहले जांच जरूरी होगी और आरोपी को अग्रिम जमानत भी दी जा सकती है। मामला दर्ज करने से पहले उसके सही होने के आधार के बारे में डीएसपी स्तर का पुलिस अधिकारी प्रारंभिक जांच करेगा। यही नहीं, अगर आरोपी सरकारी अफसर है तो उसकी गिरफ्तारी से पहले उसके उच्च अधिकारी से अनुमति जरूरी होगी। जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों के दुरुपयोग की रोकथाम के मकसद से ये दिशा-निर्देश जारी किए हैं। अगर किसी कानून का लगातार बेजा इस्तेमाल होता हो तो इस तरह की व्यवस्था वाजिब है। लेकिन सवाल है कि हमारे देश के ज्यादातर लोग जिन सामाजिक मानदंडों और सोच के साथ जीते हैं, उसमें दमन-शोषण के शिकार समुदायों के लिए कानून के तहत इंसाफ का रास्ता क्या होगा!

गौरतलब है कि पिछले साल महाराष्ट्र में कुछ संगठनों ने अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निवारण) कानून, 1989 के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग का दावा किया था। इसके बरक्स करीब नौ महीने पहले महाराष्ट्र पुलिस ने विस्तृत आंकड़ों के आधार पर सरकार को सूचित किया था कि यह कानून दलित समुदाय के अधिकारों की रक्षा करता है और इसका बेजा इस्तेमाल नहीं हो रहा है। पुलिस ने अपनी एक अन्य रिपोर्ट में यह भी बताया था कि ज्यादातर आरोपियों के बरी होने का कारण गवाह का अपने बयान से पलट जाना होता है। इसमें कोई शक नहीं है कि अगर किसी मुकदमे में गवाह अपने बयान पर कायम नहीं रह पाता और आरोपी बरी हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति को कानून के दुरुपयोग का मामला कहा जा सकता है। लेकिन यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि हाशिये पर जीने वाले दलित-वंचित समुदायों की सामाजिक हैसियत क्या होती है और उनके सामने अपने दमन-उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने के क्या विकल्प होते हैं, उन्हें चुप कराने के लिए आज भी समाज की वर्चस्वशाली जातियों के लोग किन तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं।

मंगलवार को ही सरकार ने लोकसभा में बताया कि अकेले 2016 में देश भर में दलितों के खिलाफ भेदभाव और अपमान से जुड़े चालीस हजार सात सौ चौहत्तर मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा, लगभग तीन महीने पहले जारी हुए राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2015 के मुकाबले 2016 में दलित समुदाय के खिलाफ अत्याचार और अपराध के मामलों में साढ़े पांच फीसद की बढ़ोतरी हुई। यह किसी से छिपा नहीं है कि सामाजिक विकास और कमजोर तबकों के बीच सशक्तीकरण की प्रक्रिया धीमी या आधी-अधूरी होने की वजह से आज भी जातिगत अपराधों की कई शिकायतें सामने नहीं आ पातीं। लेकिन पिछले कुछ सालों में बढ़ती जागरूकता के बीच अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग अब अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ संवैधानिक अधिकारों और कानूनों का सहारा लेने के लिए आगे आने लगे हैं। ऐसे में यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि इस कानून के दुरुपयोग की रोकथाम करते हुए दलित-वंचित जातियों और समुदायों के लोगों को इंसाफ मिलने में कोई अड़चन नहीं पैदा की जाए।

*🌸खुशमिजाजी को लगी नजर*

लीजिए , हमारी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था और आर्थिक विकास के तमाम दावों की खिल्ली उड़ाने और आईना दिखाने वाली एक और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट आ गई। संयुक्त राष्ट्र की ‘‘र्वल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट’ बता रही है कि खुशमिजाजी के मामले भारत का मुकाम दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों से ही नहीं बल्कि पाकिस्तान समेत तमाम छोटे-छोटे पड़ोसी देशों और युद्ध से त्रस्त फिलिस्तीन और अकाल ग्रस्त सोमालिया से भी पीछे हैं। हम भारतीयों का जीवन दर्शन रहा है-‘‘संतोषी सदा सुखी।’ हालात के मुताबिक खुद को ढाल लेने और अभाव में भी खुश रहने वाले समाज के तौर पर हमारी विश्वव्यापी पहचान रही है। लेकिन दुनिया को योग और अध्यात्म से परिचित कराने वाले इस देश की स्थिति में पिछले कुछ वर्षो में तेजी से बदलाव आया है।

संयुक्त राष्ट्र के ‘‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ की हर साल जारी होने वाली रिपोर्ट पिछले कुछ सालों से बताती आ रही है कि भारत के लोगों की खुशी और आत्म-संतोष के स्तर में लगातार गिरावट आती जा रही है। इस बदलाव की पुष्टि ‘‘र्वल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट-2018’ से भी होती है। यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र का एक संस्थान ‘‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट सॉल्यूशन नेटवर्क’ हर साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वे करके जारी करता है। इस बार सर्वे में शामिल 156 देशों में भारत का स्थान इतना नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। हैरान करने वाली बात यह है कि इस रिपोर्ट में पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान और नेपाल जैसे छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी प्रसन्नता के मामले मे भारत से ऊपर हैं। यह देखकर हम यह नहीं कह सकते कि संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में कुछ-न कुछ घपला किया है। संयुक्त राष्ट्र की मूल्यांकन पद्धति वैज्ञानिक होती है, इसलिए उसके निष्कर्ष आमतौर पर सही ही होते हैं।

अर्थशास्त्रियों की एक टीम समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्य, जीवित रहने की उम्र, दीर्घ की जीवन की प्रत्याशा, भरोसेमंदी, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, उदारता आदि पैमानों पर दुनिया के सारे देशों के नागरिकों के इस अहसास को नापती है कि वे कितने खुश हैं। इन पैमानों पर भारत पिछड़ा हुआ है। इसीलिए उसे दुखी देशों में ऊंचा स्थान मिला है। इस साल जो ‘‘र्वल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट’ जारी हुई है, उसके मुताबिक भारत उन चंद देशों में से है, जो नीचे की तरह खिसके हैं।

हालांकि भारत की यह स्थिति खुद में कोई चौंकाने वाली नहीं है। लेकिन यह बात जरूर गौरतलब है कि कई बड़े देशों की तरह हमारे देश के नीति-नियामक भी आज तक इस हकीकत को गले नहीं उतार पाए हैं कि देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) या विकास दर बढ़ा लेने भर से हम एक खुशहाल समाज नहीं बन जाएंगे। यह गुत्थी भी कम दिलचस्प नहीं है कि पाकिस्तान (75) और नेपाल (101) और बांग्लादेश (115) जैसे देश इस रिपोर्ट में आखिर हमसे ऊपर क्यों हैं, जिन्हें हम स्थायी तौर पर आपदाग्रस्त देशों में ही गिनते हैं। दिलचस्प बात है कि पांच साल पहले यानी 2013 की रिपोर्ट में भारत 111वें नंबर पर था। दरअसल, यह रिपोर्ट इस हकीकत को भी साफ तौर पर रेखांकित करती है कि केवल आर्थिक समृद्धि ही किसी समाज में खुशहाली नहीं ला सकती। इसीलिए आर्थिक समृद्धि के प्रतीक माने जाने वाले अमेरिका (18), ब्रिटेन (19) और संयुक्त अरब अमीरात (20) भी दुनिया के सबसे खुशहाल 10 देशों में अपनी जगह नहीं बना पाए हैं। ताजा रिपोर्ट में फिनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल मुल्क है। पिछले साल फिनलैंड इस सूची में पांचवें स्थान पर था।

‘‘र्वल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट’ में बताई गई भारत की स्थिति चौंकाती भी है और चिंतित भी करती है। आश्र्चय की बात यह भी है कि आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त भोग-विलास का जीवन जी रहे लोगों की तुलना में वे लोग अधिक खुशहाल दिखते हैं, जो अभावग्रस्त हैं। हालांकि अब ऐसे लोगों की तादाद लगातार इजाफा होता जा रहा है, जिनका यकीन ‘‘साई इतना दीजिए..‘‘के उदात्त कबीर दर्शन के बजाय ‘‘ये दिल मांगे मोर’ के वाचाल स्लोगन में हैं। कुछ समय पहले विश्व स्वास्य संगठन की आई एक अध्ययन रिपोर्ट में भी बताया गया था कि भारत दुनिया में सर्वाधिक अवसादग्रस्त लोगों का देश है, जहां हर तीसरा-चौथा व्यक्ति अवसाद के रोग से पीड़ित है। यह तय भी इस मिथक की कलई खोलता है कि विकास ही खुशहाली का वाहक है। संयुक्त राष्ट्र की ‘‘र्वल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट’ और विश्व स्वास्य संगठन का भारत को सर्वाधिक अवसादग्रस्त देश बताने वाला सर्वे इसी हकीकत की ओर इशारा करता है।

*✴️शुरुआत का वक्त*

सरकारी बैंक लगातार देश के नीति निर्माताओं के लिए समस्या का सबब बने हुए हैं। उनकी धीमी ऋण वृद्घि जहां निजी क्षेत्र के निवेश में सुधार की गति को धीमा कर रही है, वहीं हाल में सामने आए आभूषण कारोबारी नीरव मोदी को लेटर ऑफ अंडरटेकिंग (एलओयू) जारी करने संबंधी घोटाले ने इन बैंकों के संचालन से जुड़ी समस्या को एक बार फिर उजागर किया है। गौरतलब है कि निजी निवेश में सुधार देश की आर्थिक वृद्घि में सुधार से सीधे तौर पर संबंधित है। देश के बैंकिंग जगत के इतने बड़े हिस्से के सरकार के नियंत्रण में बने रहने देने के पक्ष में अब कोई व्यावहारिक या सैद्घांतिक दलील नहीं दी जा सकती है। तमाम उपाय किए जाने के बावजूद इन बैंकों के कामकाज में कतई सुधार नहीं हुआ है। इन बैंकों में ऋण को लेकर धोखाधड़ी या खराब निर्णय करने का सिलसिला जारी है। बैंकिंग व्यवस्था में सुधार के लिए ताजातरीन उपाय बैंक बोर्ड ब्यूरो के रूप में अपनाया गया लेकिन इस संकट की घड़ी में वह कमोबेश अनुपस्थित नजर आ रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार ने संभवत: उसे गंभीरता से लेना ही बंद कर दिया है। अब यह कमोबेश स्पष्ट हो चुका है कि सरकारी बैंकों का निजीकरण ही एकमात्र उचित उपाय है।

हालांकि बैंकों के निजीकरण की राह में कई बाधाएं हैं। मिसाल के तौर पर किसी भी सरकार के लिए इसके साथ ढेर सारा राजनीतिक जोखिम जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त बैंक खुद भी निजी क्षेत्र के लिए अधिग्रहण की दृष्टिï से कोई आकर्षक लक्ष्य नहीं हैं। उनमें से कई फंसे हुए कर्ज की समस्या से जूझ रहे हैं। इससे उनका मूल्यांकन कमजोर होता है। सरकार स्वाभाविक तौर पर इनकी अच्छी कीमत नहीं पाएगी और राजनीतिक मोर्चे पर विपक्ष सरकार पर हमला करेगा। कुछ बैंकों की तो मामूली कीमत भी मिल जाए तो गनीमत होगी। यह बात भी ध्यान देने लायक है कि कई बैंकों में कर्मचारियों की संख्या जरूरत से ज्यादा है या फिर कर्मचारी अयोग्य हैं। अधिग्रहण करने वालों के लिए इन अतिरिक्त कर्मचारियों की छंटनी करना आसान नहीं होगा। बैंक यूनियन ताकतवर हैं और उनका विरोध जारी है। उनका राजनीतिक प्रभाव भी है। अगर बड़े पैमाने पर निजीकरण किया गया तो हमें कम मूल्यांकन देखने को मिलेगा, खरीदारों की संख्या कम होगी और बैंक कर्मचारी संगठन तथा विपक्षी दल इसका विरोध करेंगे। यही वजह है कि हाल के दिनों में करदाताओं की मदद से सरकारी बैंकों को उबारने के कई प्रयास अवश्य हुए हैं लेकिन निजीकरण की दिशा में कोई पहल देखने को नहीं मिली है।

हालांकि इस गतिरोध को तोडऩे का एक तरीका है। सरकार अपने सबसे कमजोर बैंकों में से एक को निजीकरण के प्रयोग के लिए चुन सकती है। हकीकत में इसे एक ऐसे सरकारी बैंक के निजीकरण के रूप में सामने रखा जा सकता है जो बेहतर प्रदर्शन करने में नाकाम रहा। चूंकि यह एक विशिष्ट मामला होगा इसलिए राजनीतिक विरोध को भी खामोश किया जा सकता है। अगर यह बैंक बेहतर प्रदर्शन करता है तो इस सकारात्मक उदाहरण की मदद से भविष्य में निजीकरण की राह आसान की जा सकती है। संभावित अधिग्रहणकर्ता सरकारी बैंकों के अधिग्रहण के लिए सामने आ सकते हैं और उनकी बेहतर कीमत मिल सकती है। हर नया निजीकृत होता बैंक इस दलील को मजबूत बनाएगा। इससे विरोध कम होगा और मांग बढ़ेगी। किसी छोटे और कमजोर प्रदर्शन वाले सरकारी बैंक के निजीकरण के साथ इसकी शुरुआत की जा सकती है। सरकार को इस काम में अब और अधिक देरी नहीं करनी चाहिए। चरणबद्घ रूप में ही सही लेकिन इस प्रक्रिया की शुरुआत अब हो जानी चाहिए।

गवर्नर ने बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधनों का जिक्र करते हुए कहा कि सार्वजनिक बैंकों का नियमन सात बिंदुओं में अन्य बैंकों के नियमन से अलग होता है। रिजर्व बैंक सार्वजनिक बैंकों के बोर्ड के फैसलों को पलट नहीं सकता है। रिजर्व बैंक सार्वजनिक बैंकों के चेयरमैन और प्रबंध निदेशकों को न तो हटा सकता है और न ही इन बैंकों के विलय पर फैसला कर सकता है। बैंकिंग गतिविधियों के लिए रिजर्व बैंक से लाइसेंस लेने की जरूरत नहीं होने से सार्वजनिक बैंकों के लाइसेंस को निरस्त भी नहीं कर सकता है। रिजर्व बैंक सार्वजनिक बैंकों में तरलता बढ़ाने का भी फैसला नहीं कर सकता है।

ऐसे में रिजर्व बैंक के गवर्नर किस तरह के बदलाव के पक्ष में हैं? निजी बैंकों की तुलना में सार्वजनिक बैंकों की बाजार अनुशासन प्रणाली को कमजोर बताते हुए पटेल ने बैंकिंग नियमन अधिनियम में समुचित परिवर्तन करने का सुझाव दिया है। इस तरह सार्वजनिक बैंकों के नियमन में भी इन सात बिंदुओं में बदलाव कर रिजर्व बैंक को निजी बैंकों के नियमन जैसी शक्तियां दे दी जाएं। गवर्नर ने बैंकिंग नियमन अधिनियम में बदलाव को ‘सभी विकल्पों में सबसे सुगम’ बताया है।

सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण करना बेहद महत्त्वाकांक्षी कदम हो सकता है और अगले आम चुनाव में 14 महीने का समय बाकी रह जाने से ऐसा करना मोदी सरकार के लिए राजनीतिक तौर पर भी जोखिम वाला काम हो सकता है। गवर्नर ने सार्वजनिक बैंकों के नियमन में सुधार के लिए ऐसी जमीन तैयार की है जो राजनीतिक रूप से कम जोखिम वाली और लागू करने में भी अपेक्षाकृत सरल है। यह तभी पता चल पाएगा जब आने वाले महीनों में सरकार इस दिशा में अपने कदम आगे बढ़ाती है। उस समय तक सरकार और रिजर्व बैंक के बीच तनातनी की अटकलों पर लगाम लगाई जा सकती है।

*✴️तनातनी कहें या ग्लासनोस्त? सरकारी पहल से होगा तय*

बैंकिंग नियमन को स्वामित्व के लिहाज से तटस्थ बनाए जाने की जरूरत पर बल देने वाले भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल के बयान को रिजर्व बैंक और केंद्रीय वित्त मंत्रालय के बीच तनातनी मानना इसका सरलीकरण ही कहा जाएगा। पटेल ने पिछले हफ्ते जो कुछ कहा है उसकी अहमियत तनातनी से कहीं अधिक है। यह सच है कि पटेल का यह बयान केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली के उस बयान के बाद आया है जिसमें जेटली ने बैंक नियामक को ही पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) में हुए 129 अरब रुपये के गारंटी पत्र (एलओयू) घोटाले के लिए जिम्मेदार ठहराया था। जेटली ने यह भी कहा था कि रिजर्व बैंक को बैंकों की समुचित निगरानी के लिए एक तीसरी आंख रखने की जरूरत है।दोनों पक्षों से आए बयानों के बावजूद इसे तनातनी मानना ठीक नहीं होगा। इसके बजाय यह मोदी सरकार के तहत वित्तीय क्षेत्र में घटित हो रहे एक तरह के ग्लासनोस्त (सुधार) का परिचायक है। आम तौर पर तनातनी का नतीजा गतिरोध के रूप में सामने आता है जिसमें अमूमन राजनीतिक नेतृत्व ही विजेता बनकर उभरता है। लेकिन ग्लासनोस्त प्रक्रिया में नतीजा अलग होता है और सुधारों का एजेंडा रफ्तार पकड़ सकता है। आने वाले महीनों में वित्त मंत्रालय और आरबीआई में होने वाले बदलावों की प्रकृति ही यह बताएगी कि यह महज तनातनी है या फिर ग्लासनोस्त।

फिलहाल यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि यह कोई तनातनी नहीं है। भारत में केंद्रीय बैंक के गवर्नर शायद ही कोई ऐसा सार्वजनिक बयान देते हैं जो उन्हें सरकार या वित्त मंत्री के सामने खड़ा कर दे। आखिरकार रिजर्व बैंक गवर्नर की नियुक्ति केंद्र सरकार ही करती है और उसकी स्वायत्तता या स्वतंत्र हैसियत काफी हद तक इस बात से तय होती है कि वह सरकार की इच्छा होने तक ही अपने पद पर बना रह सकता है। अगर रिजर्व बैंक गवर्नर की सोच सरकार से अलग है तो वह आम तौर पर उसे सार्वजनिक नहीं करता है और अपने मतभेदों के बारे में वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री से मिलकर निजी तौर पर चर्चा करता है।लिहाजा यह मुमकिन है कि रिजर्व बैंक गवर्नर का गांधीनगर में दिया गया यह भाषण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के नियमन से संबंधित सुधारों को आगे बढ़ाने की कोशिश है। वित्त मंत्री का बैंक नियामक की भूमिका के बारे में स्पष्टवादी आकलन और रिजर्व बैंक गवर्नर का बैंक नियमन को स्वामित्व-तटस्थ बनाने के लिए जरूरी बदलाव करने की अहमियत पर बल देना असल में बैंक सुधारों पर अधिक चर्चा का माहौल बनाने की कवायद हो सकती है। इसके पीछे यह सोच होगी कि बैंकों के स्वामित्व में बदलाव की पहल का राजनीतिक प्रतिरोध पूरी तरह नगण्य नहीं तो कम हो सकता है।

फरवरी के मध्य में पीएनबी का एलओयू घोटाला उजागर होने के तत्काल बाद नियामक के सुशासन सुनिश्चित करने और विवेकपूर्ण कारोबारी तरीके अपनाने में नाकाम रहने की बातें कही जाने लगी थीं। लेकिन जल्द ही यह चर्चा सार्वजनिक बैंकों का स्वामित्व ढांचा बदलने की जरूरत पर केंद्रित हो गई। भारत में बैंकिंग प्रणाली का करीब 70 फीसदी हिस्सा सार्वजनिक बैंकों के ही पास है। वित्त मंत्री ने अपनी शुरुआती टिप्पणियों में सार्वजनिक बैंकों के निजीकरण की संभावना से इनकार नहीं किया था लेकिन यह भी कहा था कि अभी सियासी माहौल स्वामित्व ढांचे में ऐसे बदलाव के अनुकूल नहीं है।

तमाम विशेषज्ञ एवं बैंकर बैंकों के निजीकरण से जुड़े अच्छे-बुरे पहलुओं पर चर्चा करते रहे लेकिन रिजर्व बैंक गवर्नर ने इस पर कुछ नहीं कहा था। इस तरह बैंक स्वामित्व पर पिछले हफ्ते आया बयान इस बारे में उनकी पहली प्रतिक्रिया है। उन्होंने निजीकरण पर बात नहीं की। वह बैंकों को कारोबारी नियमों के मुताबिक चलाने की प्रतिबद्धता जताने के साथ ही एक कदम आगे भी बढ़ गए और बैंक नियमन को स्वामित्व से तटस्थ करने के लिए कानूनी सुधार करने की वकालत की। आखिर इस बयान का मतलब क्या है?

*⭕️समस्या का सबब बनरहा है इंटरनेट?*

अजित बालकृष्णन

दुनिया भर में डिजिटल साम्राज्यवाद के खिलाफ तमाम आवाज उठ रही हैं। इससे निकलने की क्या राह हो सकती है। इस संबंध में विस्तार से जानकारी दे रहे हैं अजित बालकृष्णन

पिछले दिनों जब मैंने सम्मानित और प्रतिष्ठिïत ब्रिटिश समाचार पत्र द टेलीग्राफ में यह खबर पढ़ी कि जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति एमेनुएल मैक्रां डिजिटल साम्राज्यवाद के खिलाफ चेतावनी जारी कर रहे हैं तो मुझे सहसा यकीन नहीं हुआ। यह खबर कुछ सप्ताह पहले दावोस में आयोजित विश्व आर्थिक मंच से आई थी। वहां दोनों नेताओं ने यूरोप के शेष देशों को यह चेतावनी दी थी कि वे डिजिटल साम्राज्यवाद के खिलाफ संयुक्त बचाव की तैयारी करें। चेतावनी यह थी कि अमेरिकी कारोबारी दिग्गजों और चीन के बीच सूचना क्रांति को लेकर जो जंग छिड़ी थी उसमें यूरोपीय संघ के हित कहीं बहुत पीछे छूट सकते थे?इस खबर को पढऩे के बाद मुझे अपने आप को यह यकीन दिलाने में काफी वक्त लगा कि यह सपना या मेरे मन की कल्पना नहीं बल्कि हकीकत थी। फ्रांस जो कुछ अरसा पहले तक दुनिया के सबसे बड़े उपनिवेशवादी देशों में से एक था, वह दूसरों को नई तरह के उपनिवेशवाद के खिलाफ चेतावनी दे रहा था। वहीं जर्मनी, जिसने 20वीं सदी का शुरुआती हिस्सा दो विश्वयुद्घों में बिताया वह दुनिया को साम्राज्यवाद के खिलाफ चेतावनी दे रहा था?

यह बयान उस वक्त सामने आया है जब यूरोपीय आयोग ने गूगल पर 2.7 अरब डॉलर का जुर्माना लगाया है। यह जुर्माना गूगल शॉपिंग सर्च के दौरान किए गए मानक उल्लंघन से संबंधित है। यूरोपीय संघ के अनुसार गूगल ने निहायत व्यवस्थित ढंग से अपनी तुलनात्मक शॉपिंग सेवा को प्रमुखता प्रदान की जबकि प्रतिद्वंद्वी शॉपिंग सेवाओं को उसने अपने खोज परिणामों में सही ढंग से नहीं दिखाया है। इसके चलते प्रतिद्वंद्वी तुलनात्मक शॉपिंग सेवाएं औसतन गूगल के खोज नतीजों में चौथे पन्ने पर नजर आतीं।अन्य कंपनियां तो और भी नीचे नजर आती हैं। इस बीच एक अन्य चौंकाने वाली घटना सामने आई है। इंटरनेट को पैदा करने और दुनिया भर में उसे प्रसारित करने वाले देश अमेरिका में कम से कम आधा मुल्क इस बात पर यकीन करता है कि पिछले राष्ट्रपति चुनाव जिसमें डॉनल्ड ट्रंप जीते, उसमें रूस ने इंटरनेट की मदद से प्रभावशाली हस्तक्षेप किया। यह हस्तक्षेप डॉनल्ड ट्रंप के पक्ष में किया गया था, वरना हिलेरी क्लिंटन आज अमेरिकी राष्ट्रपति होतीं।

उधर एक बुरी खबर यह भी है कि श्रीलंका में बौद्घ और मुस्लिम एक दूसरे के खिलाफ जंग छेड़े हुए हैं। देश में चरमपंथी ङ्क्षहसा को काबू करने के लिए सरकारी अधिकारियों ने कुछ सोशल नेटवर्क वेबसाइटों को बंद करने के आदेश दिए हैं। इस आदेश से फेसबुक, इंस्टाग्राम, वाइबर और व्हाट्सऐप जैसी सोशल साइटें खासतौर पर प्रभावित हुई हैं। यह जानकारी देने वाली वेबसाइट एंगैजेट का यह भी कहना है कि अतीत में तुर्की ने भी यही काम किया था। उसने भी ट्वीट्स पर सेंसरशिप लागू की थी और सोशल मीडिया को समाज के लिए खराब बताते हुए इसकी जमकर आलोचना की थी। पिछले साल के अंत में कॉन्गो ने भी विरोध प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिए इंटरनेट और एसएमएस की सेवाओं पर रोक लगाई थी। उस घटना के बमुश्किल एक दिन बाद ही ईरान के अधिकारियों ने इंस्टाग्राम और टेलीग्राम जैसी सोशल मीडिया सेवाओं पर रोक लगा दी थी।

मैं आंखे मल-मल कर इन बातों का तात्पर्य समझने का प्रयास कर रहा था। क्या इन जगहों पर वाक स्वतंत्रता को दबाया जा रहा था जैसा कि एंगैजेट की ओर से अटकल लगाई जा रही थी, या फिर यह दुनिया के अलग-अलग देशों में यह विरोध प्रदर्शन समाज का अत्यधिक पश्चिमीकृत छोटा सा तबका कर रहा था। या फिर क्या संचार के कुछ चैनलों की मौजूदगी के चलते समाज के कुछ तबकों का विरोध प्रदर्शन बाकी की तुलना में कहीं अधिक मुखर और तेज हो जाता है।

भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग भी भारत मैट्रीमोनी द्वारा लगातार एक दशक से किए जा रहे प्रयासों के बाद जागा और उसने कहा कि गूगल ने अपनी रसूखदार स्थिति का दुरुपयोग किया और उसने गूगल पर जुर्माना लगाया। यह जुर्माना वर्ष 2015 तक के तीन वर्ष तक गूगल के औसत भारतीय राजस्व का 5 फीसदी तय किया गया। यह राशि करीब 1.35 अरब रुपये ठहरती है। यह राशि 60 दिन के भीतर जमा करनी है। प्रतिस्पर्धा आयोग ने कहा कि कंपनी को खोज के मामले में पूर्वग्रह से ग्रस्त होकर काम करते पाया गया और ऐसा करके वह अपने प्रतिस्पर्धियों और उपयोगकर्ताओं दोनों को ही नुकसान पहुंचाने का काम कर रही थी। टिम बर्नर्स ली जिन्होंने वल्र्ड वाइड वेब (डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू) का आविष्कार किया उन्होंने इन तमाम गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए गत सप्ताह ब्रिटेन के समाचार पत्र द गार्जियन में लिखा, ‘वेब का इस्तेमाल हथियार के रूप में किया जा सकता है और इस पर रोक लगाने के लिए हम बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों पर निर्भर नहीं रह सकते। चुनिंदा कंपनियों का विचारों के साझा होने की प्रक्रिया पर नियंत्रण करना बहुत खतरनाक है। ऐसे में एक नियामक की जरूरत पड़ सकती है। ये दबदबे वाले मंच प्रतिस्पर्धियों के लिए मुश्किल खड़ी करके अपनी स्थिति को मजबूत बनाने में सक्षम हैं। वे स्टार्टअप के रूप में चुनौती देने वाले उपक्रमों को खरीद लेते हैं, नवाचारों पर वे नियंत्रण कर लेते हैं और उद्योग जगत की शीर्ष प्रतिभाओं को भी वे अपने यहां नियुक्त कर लेते हैं। अगर इसमें उनके यूजर डेटा के कारण उनको मिलने वाली बढ़त को शामिल कर दिया जाए तो यही आशा करनी चाहिए कि आने वाले 20 साल पिछले 20 सालों की तुलना में कम नवाचार वाले होंगे।’

वह कहते हैं, ‘आज मैं हम सभी को चुनौती देना चाहता हूं कि हम वेब को लेकर कहीं अधिक महती आकांक्षाएं पालें। मैं चाहता हूं कि वेब हमारी आकांक्षाओं को परिलक्षित करे और हमारे सपनों को पूरा करें, बजाय कि हमारे भय को बढ़ाने और हमारे बीच के भेद को गहरा करने के। अब जरूरत इस बात की है कि हम कारोबारी, प्रौद्योगिकी, सरकार, नागरिक समाज, कला और अकादमिक जगत के श्रेष्ठ मस्तिष्क को अपने साथ जोड़ें और वेब के भविष्य से उपजी चुनौतियों का सामना करें। वेब फाउंडेशन में हम सभी इस मिशन में अपनी-अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार हैं ताकि ऐसा वेब बना सकें जैसा हम चाहते हैं। इसे संभव बनाने के लिए हमें मिलकर काम करना चाहिए

*🌸पुतिन की जीत*

रूस की जनता ने व्लादिमिर पुतिन को चौथी बार देश की सत्ता संभालने के लिए भारी जनादेश देकर यह संदेश दिया है कि उनके नेतृत्व को लेकर उसके दिलो-दिमाग में कहीं कोई संशय नहीं है। पुतिन ने राष्ट्रपति चुनाव ऐसे वक्त में जीता है, जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका सहित पश्चिमी मुल्कों के साथ उनकी एक तरह से स्पष्ट और जबर्दस्त टकराव की स्थिति चल रही है। लेकिन उनके रुख से साफ है कि वे किसी भी ताकत के सामने झुके नहीं हैं, न कोई ऐसा समझौता किया है जो दुनिया में रूस के कमजोर पड़ने का संकेत देता हो। इसी से पुतिन की छवि एक कठोर और दृढ़ निश्चय वाले वैश्विक नेता की बनी है। पुतिन ने रूसी जनता के मन में भरोसे का एक स्थिर भाव पैदा किया है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति चुनाव में पुतिन को इस बार छिहत्तर फीसद से भी ज्यादा वोट मिले, जबकि 2012 के चुनाव में उन्हें तिरसठ फीसद वोट मिले थे। सन 2000 में जब पुतिन पहली बार देश के राष्ट्रपति बने थे तब उन्हें तिरपन फीसद वोट मिले थे। जाहिर है, रूस में पुतिन की लोकप्रियता में लगातार इजाफा ही हुआ है। सोवियत संघ के विखंडन के बाद लंबे समय तक रूस में जो उथल-पुथल की स्थिति रही, उससे रूस को बाहर निकालने में पुतिन का बड़ा योगदान माना जाता है। इस बीच पुतिन ने न सिर्फ घरेलू मोर्चों, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी अपनी धाक कायम की है। इसीलिए वे रूसी जनता के लिए एक बार फिर नायक बने हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रपति के तौर पर चौथा कार्यकाल पुतिन के लिए बड़ी चुनौतियों से भरा है। इस वक्त सीरिया अमेरिका और रूस के बीच प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन गया है। सीरिया को लेकर कोई भी पक्ष झुकने को तैयार नहीं है। पूरी दुनिया मान चुकी है कि सोवियत संघ खत्म होने के बाद रूस महाशक्ति नहीं रह गया। अमेरिका को लग रहा है कि अगर सीरिया मामले में वह रूस के सामने कमजोर पड़ा तो सारी दुनिया की नजर में रूस फिर से महाशक्ति का दर्जा हासिल कर सकता है। फिलहाल सीरिया में जो हालत है और टकराव के जिस तरह मोर्चे खुले हुए हैं, उसके लिहाज से देखें तो पुतिन के चौथे कार्यकाल का शुरुआती दौर काफी महत्त्वपूर्ण होगा। हाल में ब्रिटेन में पूर्व रूसी जासूस की हत्या के मामले में भी रूस और ब्रिटेन के बीच जिस तरह का टकराव पैदा हो गया है, वह शीतयुद्ध के एक और दौर की आशंका को जन्म देता है। ब्रिटेन और रूस दोनों ने एक-दूसरे के राजनयिकों को बाहर निकाल दिया है। इस मुद्दे पर यूरोपीय संघ के कई देश और अमेरिका ब्रिटेन के साथ हैं। ऐसे में रूस को इस द्वंद्व से निकालना पुतिन के लिए एक बड़ी कूटनीतिक चुनौती है।

पुतिन ऐसे वक्त में चौथी बार राष्ट्रपति चुने गए हैं जब पड़ोसी देश चीन में राष्ट्रपति शी चिनफिंग के जीवन भर के लिए अपने पद पर बने रहने का रास्ता साफ कर दिया गया है। यों रूस और चीन के बीच बढ़ती नजदीकी से सबसे ज्यादा चिंतित अमेरिका ही है। इसके अलावा, पाकिस्तान से भी रिश्ते बना कर पुतिन ने संकेत दिया है कि जरूरत पड़ने पर एशियाई क्षेत्र में चीन-पाकिस्तान और रूस का गठजोड़ बन सकता है। फिलहाल भारत और रूस के रिश्ते तो मजबूत हैं। लेकिन भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कैसे हैं, इससे रूस अनजान नहीं है। भारत के विरोध के बावजूद पिछले साल रूस ने पाकिस्तान के साथ सैन्य अभ्यास किया। ऐसे में पुतिन एशिया में क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखते हुए रूस को फिर से महाशक्ति के रूप में कैसे स्थापित कर पाते हैं, यह देखने वाली बात होगी!

*✴️क्यों लगातार छूमंतर हो रही हैं हमारी खुशियां*

महेश भारद्वाज, वरिष्ठ अधिकारी, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग

बहुत सारे गम इसलिए होते हैं कि खुशी गैर-हाजिर होती है। जीवन में खुशी कैसे हाजिरी दे, इसका मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र काफी जटिल है। इधर दिल्ली सरकार ने स्कूलों में हैप्पीनेस को एक विषय के रूप में पढ़ाने की कवायद पिछले महीने से शुरू की है। सीबीएसई यानी केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी बच्चों के कंधों पर से बोझ कम करने के प्रति गंभीर है। हिंसा की बढ़ती वारदातों और खबरों के बीच बच्चे कैसे खुश रहें, यह एक गंभीर मसला बन चुका है। खुशी का यह संकट बच्चों तक सीमित नहीं है, बल्कि मानव जाति के लिए चुनौती बनकर उभर रहा है। पूरी दुनिया ही इस मुद्दे को लेकर चिंतित दिखाई दे रही है।

कोई देश कितना खुश है, कितना कम या ज्यादा खुश है, संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे मापने का बाकायदा एक पैमाना ही बना दिया है। इसी पैमाने पर संघ के 193 सदस्य देशों में खुशी के स्तर को मापने के लिए 2012 से लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘वल्र्ड हैप्पीनेस इंडेक्स’ को तैयार करने में जिन मानदंडों का ध्यान रखा जाता है, उनमें प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी, जनता को उपलब्ध सामाजिक और संस्थागत समर्थन, अनुमानित स्वास्थ्यपूर्ण आयु, सामाजिक आजादी, समाज में व्याप्त आपसी भरोसा व उदारता और उस देश में भ्रष्टाचार के बारे में लोगों की राय जैसे कई मसले शामिल हैं। इसी के साथ हर साल पूरी दुनिया ने 20 मार्च को ‘वल्र्ड हैप्पीनेस डे’ भी मनाना शुरू कर दिया है।

आखिर ऐसा क्या हो गया कि खुशियों को लेकर चिंता विश्व व्यापी होने लगी है? अमेरिका के लिए तो सवाल और भी गहरा है, जो अमीर भी होता जा रहा है और खुशियों से दूर भी। भारत अगर इस क्षेत्र में पीछे है, तो उसके अपने कारण हैं। कहा जा सकता है कि कुछ कमी तो हैप्पीनेस को मापने के फॉर्मूले में भी है। इसमें रखे गए मानदंड पाश्चात्य विकसित देशों की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर निर्धारित किए गए हैं। ऊपरी पायदान वाले देशों में संसाधनों पर जनसंख्या का किसी प्रकार का दबाव नहीं है, जिसे भारत जैसे विकासशील देशों में प्रमुखता से देखा जा सकता है। जहां फिनलैंड कुदरती सुरक्षा, बच्चों की देखभाल, अच्छे स्कूल और मुफ्त चिकित्सा सुविधाओं की वजह से अव्वल नंबर पर है, वहीं अमेरिका आमदनी बढ़ने के बावजूद मोटापे, ड्रग्स की लत, तनाव के कारण सूचकांक में लगातार नीचे जा रहा है। इस लिहाज से भारत में स्वीडन वाली सुविधाएं तो महज चंद लोगों और बड़े शहरों तक सीमित हैं और अमेरिका वाली स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। बल्कि अभी तो आबादी के बड़े हिस्से को पेट भर भोजन और पीने का साफ पानी तक मयस्सर नहीं हो पा रहा है। जीडीपी में जरूर इजाफा हो रहा है, पर वह पर्याप्त नहीं है। ऊपर से राजधानी दिल्ली सहित देश के बड़े शहरों मे साफ हवा तक को लेकर हो रही चिंता ने हैप्पीनेस के विचार के होश उड़ा दिए हैं। हां, आबादी की अनुमानित औसत आयु अवश्य बढ़ी है, लेकिन उसके स्वास्थ्य और स्वास्थ्य-सुविधाओं को लेकर हालत में कोई खास बदलाव नहीं आया है। भ्रष्टाचार की चिंता तो स्थाई सी लगती है।

भारत में खुशियों में कमी की असल जड़ है संसाधनों की कमी, जिसके चलते कहीं पहले वाली पीढ़ियों ने, तो कहीं मौजूदा पीढ़ी ने अपने जीवन में अभाव देखे हैं और इससे लोगों में संचय करने की भावना तीव्रतर होती गई, जो बाद में सामाजिक मूल्यों के रूप में स्थापित हो गई। यहां लोग तीन पीढ़ियों तक की चिंता में लगे रहते हैं, भले ही खुद का जीवन कितना ही नारकीय क्यों न बना रहे। सामाजिक उत्तरदायित्व के मद्देनजर आने वाली पीढ़ी के लिए संवेदनशील होना कोई खराब बात नहीं है। यह राष्ट्र-निर्माण के लिए जरूरी भी है। फिर भी वर्तमान और भविष्य की जरूरतों के बीच कोई रेखा तो खींचनी ही होगी। यह भी कहा जाता है कि खुशियों की चिंता से पहले जनता को भरपेट खाना देने की चिंता जरूरी है। नीतियां, आर्थिक स्थिति, संसाधन और सेहत वगैरह अपने आप में कोई खुशी नहीं है, लेकिन मिलकर उसकी जरूरी शर्त तो हैं ही।

*⭕️जोखिम में बच्चे*

 

उम्मीद की जाती है कि कोई भी समाज सभ्य होने के साथ-साथ अपने बीच के उन तबकों के जीवन की स्थितियां सहज और सुरक्षित बनाने के लिए तमाम इंतजाम करेगा, जो कई वजहों से जोखिम या असुरक्षा के बीच जीते हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी का सफर करते हमारे बच्चे अगर कई तरह के खतरों से जूझ रहे हैं तो निश्चित रूप से यह चिंताजनक है और हमारी विकास-नीतियों पर सवाल उठाता है। यों बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराध लंबे समय से सामाजिक चिंता का विषय रहे हैं। लेकिन तमाम अध्ययनों में इन अपराधों का ग्राफ बढ़ने के बावजूद इस दिशा में शायद कुछ ऐसा नहीं किया जा सका है, जिससे हालात में सुधार हो। हालांकि सामाजिक संगठनों से लेकर सरकार की ओर से इस मुद्दे पर अनेक बार चिंता जताई गई, समस्या के समाधान के लिए ठोस कदम उठाने के दावे किए गए। मगर इस दौरान आपराधिक घटनाओं के शिकार होने वाले मासूमों की संख्या में कमी आने के बजाय और बढ़ोतरी ही होती गई। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2015 के मुकाबले 2016 में बच्चों के प्रति अपराध के मामलों में ग्यारह फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इनमें भी कुल अपराधों के आधे से ज्यादा सिर्फ पांच बड़े राज्यों- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दिल्ली और पश्चिम बंगाल में हुए। सबसे ज्यादा मामले अपहरण और उसके बाद बलात्कार के पाए गए।

जाहिर है, कमजोर स्थिति में होने की वजह से बच्चे पहले ही आपराधिक मानसिकता के लोगों के निशाने पर ज्यादा होते हैं। फिर व्यवस्थागत कमियों का फायदा भी अपराधी उठाते हैं। विडंबना यह है कि चार से पंद्रह साल उम्र के जो मासूम बच्चे अभी तक समाज और दुनिया को ठीक से नहीं समझ पाते, वे आमतौर पर मानव तस्करों के जाल में फंस जाते हैं। इनमें भी लड़कियां ज्यादा जोखिम में होती हैं। एक आंकड़े के मुताबिक गायब होने वाले बच्चों में सत्तर फीसद से ज्यादा लड़कियां होती हैं। अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि बच्चों को मानव तस्करी का शिकार बनाने वाले गिरोह छोटी बच्चियों को देह व्यापार की आग में धकेल देते हैं। घरेलू नौकरों से लेकर बाल मजदूरी के ठिकानों पर बेच दिए जाने के अलावा यह लड़कियों के लिए दोहरी त्रासदी का जाल होता है। इन अपराधों की दुनिया और उसके संचालकों की गतिविधियां कोई दबी-ढकी नहीं रही हैं। लेकिन सवाल है कि हमारे देश में नागरिकों की सुरक्षा में लगा व्यापक तंत्र अबोध बच्चों को अपराधियों के जाल से क्यों नहीं बचा पाता! आपराधिक मानसिकता वालों के चंगुल में फंसने से इतर मासूम बच्चों के लिए आसपास के इलाकों के साथ उनका अपना घर भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं होता।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़ों के मुताबिक 2016 में ही देश भर में करीब एक लाख बच्चे यौन अपराधों के शिकार हुए। बच्चों के खिलाफ अपराधों में यौन शोषण एक ऐसा जटिल पहलू है, जिसमें ज्यादातर अपराधी पीड़ित बच्चे के संबंधी या परिचित ही होते हैं। लोकलाज की वजह से ऐसे बहुत सारे मामले सामने नहीं आ पाते। फिर आमतौर पर ऐसे आरोपी बच्चों के कोमल मन-मस्तिष्क का फायदा उठाते हैं और उन्हें डरा-धमका कर चुप रहने पर मजबूर कर देते हैं। जाहिर है, बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों के कई पहलू हैं, जिनसे निपटने के लिए कानूनी सख्ती के साथ-साथ सामाजिक जागरूकता के लिए भी अभियान चलाने की जरूरत है। अक्सर हम देश के विकास को आंकड़ों की चकाचौंध से आंकते हैं। लेकिन अगर चमकती तस्वीर के पर्दे के पीछे अंधेरे में अपराध के शिकार बच्चे कराह रहे हों, तो उस विकास की बुनियाद मजबूत नहीं हो सकती!

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