(सुशील कुमार सिंह)

(निदेशक, वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन)
(साभार दैनिक जागरण )

जब कूटनीतिक कसौटी पर चीन को कसने की बारी आती है तो बीते सात दशकों की पड़ताल यह इशारा करती है कि इसमें चीनी अधिक और मिठास कम ही रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग चार वर्षो के कार्यकाल में चार बार चीन की यात्रा कर चुके हैं। इस उम्मीद में कि पड़ोसी से सामाजिक-सांस्कृतिक समरसता के साथ आर्थिक उपादेयता भी परवान चढ़ेगी, पर सीमा विवाद और चीन की सामरिक नीतियों ने दूरियों को कभी पाटने का अवसर ही नहीं दिया।

निश्चित तौर पर यह राहत की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बीच उन्हीं के शहर वुहान में दो दिवसीय अनौपचारिक वार्ता सकारात्मक माहौल में हुई और सही मोड़ पर रही। हालांकि यह दोनों देश के नेताओं के बीच एक ऐसी वार्ता थी जिसका न कोई निश्चित एजेंडा था और न ही किसी प्रकार की घोषणा पत्र जारी करने की औपचारिकता थी। चार मुद्दे पर सहमति बनी जिसमें सीमा पर शांति, अफगानिस्तान के साथ काम करने और विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करने समेत आतंक पर सहयोग शामिल था। गौरतलब है कि यह यात्रा दोनों देशों के बीच उस संतुलन को प्राप्त करने की कोशिश थी जो जून 2017 में डोकलाम विवाद के चलते उपजे थे और 73 दिन तनाव में गुजरे थे। डोकलाम विवाद कोई हल्का विवाद नहीं था, क्योंकि चीन ने भारत को उतना तो धमकाने का काम किया ही था जितना कि युद्ध के लिए जरूरी हो जाता है, पर यहां भारत ने बहुत संयम दिखाया था और यही भारत की मजबूती भी है।

मोदी ने अपने दौरे में संबंधों की बेहतरी के लिए जो पांच सूत्री एजेंडा पेश किया उसकी तुलना प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के 1954 के पंचशील से की जा रही है जिसमें समान दृष्टिकोण, बेहतर संवाद, मजबूत रिश्ता और साझा विचार समेत साझा समाधान शामिल है। ध्यान यहां यह भी देना है कि जब किसी भी देश की हकीकतें दो प्रकार की हो जाती हैं तो सुविधा के बजाय दुविधा बढ़ती है और भरोसा भी कमजोर होता है। चीन इस धारणा से बहुत अलग नहीं है। डोकलाम के समय चीन की हकीकतें कुछ और बयान कर रही थीं, पर अब शायद कुछ और। बावजूद इसके सावधान तो भारत को ही रहना पड़ेगा। हालांकि मोदी और चिनफिंग ने भारत-चीन सीमा पर शांति बहाल रखने का संकल्प लिया, परंतु इसका फायदा तब है जब चीन इस पर कायम रहे।

गौरतलब है कि 1954 के पंचशील के बाद भारत और चीन अपने समझौते से दोस्ती की मिसाल कायम कर रहे थे, पर 1962 में चीन की हकीकत कुछ और दिखी। चिनफिंग ने कहा है कि उनका देश मोदी के बताए पंचशील के नए सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर भारत के साथ सहयोग और काम करने को तैयार है। विचार अच्छे हैं, मगर अर्थ इसी रूप में रहे तो। इसमें कोई दुविधा नहीं कि भारत और चीन का संबंध प्रतिबद्धता और सहयोग पर आधारित है और इस दिशा में सहयोग की और जरूरत भी है। भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) से लेकर आतंकी मसूद अजहर समेत आतंकवाद जैसे मुद्दे पर चीन के सहयोग की जरूरत है, जबकि चीन को मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम (एमटीसीआर) समेत चिनफिंग के महत्वाकांक्षी योजना वन बेल्ट, वन रोड को सफल बनाने में भारत को साथ की आवश्यकता है। हालांकि वन बेल्ट, वन रोड के मामले में भारत पहले ही नाराजगी जता चुका है, क्योंकि यह परियोजना पाक अधिकृत कश्मीर से होकर जा रही है।

बहरहाल दोनों शीर्ष नेताओं की मुलाकात से क्या सीमा पर चीन की आक्रामकता घटेगी? क्या चीन डोकलाम जैसी स्थितियों से परहेज कर सकेगा। फेहरिस्त और बड़ी है, पर जब रिश्ते सुधारने होते हैं तो कुछ सवालों को नजरअंदाज करना ही होता है। असल में परस्पर परिपक्वता की यहां बहुत आवश्यकता है और पड़ोसी होने के अर्थ को चीन को तुलनात्मक रूप से अधिक समझना है। सभी जानते हैं कि दक्षिण चीन सागर में रणनीतिक मोर्चेबंदी के चलते चीन सतर्क है। भारत, अमेरिका, जापान जैसे देश का कई मोर्चे पर साथ होना भी चीन को अखरता है, जबकि शक्ति संतुलन के सिद्धांत में ये अंतर्निहित सिद्धांत माने जाते रहे हैं कि ताकत इधर की उधर होती रहती है। चीन यह जरूर चाहता है कि अमेरिका और जापान जैसे देशों के साथ भारत की सामरिक भागीदारी उसके विरुद्ध न हो, परंतु भारत भी यह चाहता है कि पाकिस्तान को चीन भारत के खिलाफ हथियार न बनाए। साथ ही भूटान, नेपाल तथा बांग्लादेश समेत हंिदू महासागर में स्थित मालदीव जैसे देशों के साथ वह उस स्थिति तक न जाय जहां से भारत के हित खतरे में पड़ते हों।

वैसे यह भी देखा जा रहा है कि अब देशों के बीच कूटनीति निजी संबंधों पर टिक गई है। यही कारण है कि मोदी-चिनफिंग पुराने आधारों से चीजें न तय करके आगे की परिस्थितियों के साथ काम कर रहे हैं। रणनीति के लिहाज से दोनों देशों के बीच परस्पर हो रहे आर्थिक गतिविधियों पर भी नजर डाली जाय तो तस्वीर यह इशारा करती है कि 84 अरब डॉलर का कारोबार दोनों देश आपस में कर रहे हैं, लेकिन यहां पर सर्वाधिक लाभ में चीन ही है। गौरतलब है कि 100 अरब डॉलर तक इसे पहुंचाने की आम सहमति है।

अंत में क्या ऐसी मुलाकातों से भारत वह सब हासिल कर सकता है जिसकी रुकावट चीन है। अगर चिनफिंग के इशारे को समङों तो उनके इस कथन में कि होती रहेंगी ऐसी मुलाकातें सहज पहलू लिए हुए है। शी चिनफिंग का यह कहना कि राष्ट्रीय विकास पर पूरा ध्यान देने, साझा फायदे के मुद्दे पर मदद बढ़ाने और स्थाई समृद्धि तथा वैश्विक शांति के लिए सकारात्मक सहयोग सहित तमाम बातें यही इशारा कर रही हैं कि मुलाकात का कोई नकारात्मक साइड इफेक्ट नहीं है, बल्कि ऐसी अनौपचारिक मुलाकातों से पटरी से हटे मुद्दे नजर में रहेंगे और हल करने के सार्थक प्रयास से जुड़े रहेंगे। संभव है ऐतिहासिक और अनौपचारिक चीन की इस यात्र को तुरंत तो नहीं, लेकिन वक्त के साथ लाभ में तब्दील होते देखा जा सकेगा।
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