वैश्विक इतिहास का काला पृष्ठ:-
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“गोवा इक्वीजिशन” सुनने पर
यह आपको लग सकता है कि यह कोई नवीन तकनीक थी जो गोवा में ईसाई दस्युयों ने अपनाया था। जी नहीं, ऐसा नहीं है इसाईयित का जन्म ही हुआ है बर्बर डकैती और गुलामी को अपनाकर।
रोमन सम्राट कांस्टेनटाइन -2 ने 313 में आदेश दिया कि कोई नया रोमन मंदिर नहीं बनाया जा सकता और न ही जर्जर हो रहे रोमन मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया जा सकता है। जो रोमन विधि से पूजा करता पाया जाए उसका कत्ल कर दिया जाय और उसकी संपत्ति पर कब्जा कर लिया जाय। पादरियों ने इस हत्या और लूट में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और इसको क्रूसेड का नाम दिया। जिन डकैत पादरियों की इस क्रूसेड यानि डकैती में मृत्यु हो गयी उन्ही को कालांतर में सेंट की पदवी दी गयी। इक्विसिसन का यही अर्थ है। 313 AD में कांस्टेनटाइन -2 ने जब इसाइयित को अपनाकर राजधर्म घोषित किया तो ठीक यही अमानुषिक और वहशी आदेश पारित किया गया था। सेक्युलर रोमन संस्कृति के वाहकों के विरुद्ध और मात्र 80 वर्षो में 385 आते आते वे उनके समस्तं पूजघरो और रोमन संस्कृति को ध्वस्त करने में सफल रहे।यह उनका आजमाया हुवा नुस्खा था। यही काम उन्होंने अमेरिका में किया था। अमेरिकन इंडियंस द्वारा लिखित एक पुस्तक Genocide in the name of God by Stevens Leonard Jacobs आयी है जिसमे इन क्रूर फनाटिक असभ्य लुटेरों के कृत्य का खुलासा किया गया है। भारत के 98 प्रतिशत लोग तो Inquisition शब्द से भी अपरिचित हैं। रोमन संस्कृति भी आतंक लूट और स्लेवरी पर थी लेकिन वह सेक्युलर संस्कृति थी। इसाइयित की तरह फनाटिक नहीं थी। Roman civilization was based on plunder slavery and military power – Angus Madison ( Economic Historian in 2001 AD)भारत के लोगों को यह घुट्टी पिलाई गयी कि सभी धर्म एक ही हैं और उन्होंने उसे गटक भी लिया।समय की मांग है कि सभी विश्विद्यालयों में पाश्चात्य दर्शन के नाम पर पढ़ाये जा रहे कूडे को कूड़ेदान में डालकर उसकी जगह बाइबिल और कुरान का दर्शन पढ़ाया जाय।
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डॉ० त्रिभुवन सिंह
हिंदी में हम जिसे रक्तपिपासु, या खून का प्यासा कहते हैं, उसके लिए अंग्रेजी में ड्रेकुला कहना बिल्कुल चल जाएगा। ड्रेकुला, एक साहित्यकार ब्रेम स्टोकर (Bram Stoker) की परिकल्पना थी जिसे उसने एक सचमुच के राजा के राज्य और नाम के आधार पर तैयार किया था। फिल्मों में ड्रेकुला खासे प्रसिद्ध हैं, कई नामी गिरामी फिल्म निर्माताओं और कलाकारों ने इस पिशाच पर फ़िल्में बनाई हैं। इस सारी प्रक्रिया में जो गायब हो गया, वो था असली काउंट व्लाद टेपेस (Vlad Tepes) जिसके राज्य ट्रांसिल्वेनिया पर ये कहानी लिखी गई थी।
ट्रांसिल्वानिया आज एक छोटा सा रोमानिया का इलाका है जहाँ सिघिसोअरा के किले में 1431 में एक लड़के का जन्म हुआ। ये ट्रांसिल्वानिया के गवर्नर व्लाद डाकुल का बेटा था। काउंट डाकुल आर्डर ऑफ़ ट्यूटनिक नाइट्स के सदस्य थे। इस दल ट्यूटनिक नाइट्स का गठन इसाई हितों की रक्षा के लिए हुआ था। अरब हमलों से लगातार हारते रोमानिया के इसाई समुदाय की रक्षा के लिए इसका गठन हुआ था। ऑट्टोमन साम्राज्य के खिलाफ जंगों में व्लाद डाकुल ने काफी बहादुरी दिखाई थी। सन 1437 की शुरुआत में जब वो प्रिंस बने तो उनके दो बेटों को अरब लोगों ने बंधक रखा ताकि वो क्रूसेड में मुहम्मडेन समुदाय के खिलाफ ईसाईयों की मदद ना करें।इस तरह 1442 में व्लाद टेपेस और उनके छोटे भाई राडू, सुल्तान मुराद (द्वित्तीय) के पास इस्तांबुल से अरब सैन्य अभियानों में काम करते रहे और उन्हें 1448 में जब छोड़ा गया तो साथ के साथ उन्हें उनके पिता की हत्या की खबर भी दी गई। 1447 में उनके पिता और उनके भाई को मार डाला गया था। टार्गोविस्टी के बोयर लोगों ने काफी यातनाएं देने के बाद उनके भाई को जिन्दा ही दफ़न कर दिया था। इस तरह सत्रह साल की उम्र के व्लाद टेपेस जब लौटे तो उनका पहला खुद का सैन्य अभियान भी शुरू हुआ। अरब सैन्य अभियानों में काम करने के कारण उन्हें बेरहम हमलों का अब अच्छा ख़ासा अनुभव था। पाशा मुस्तफा हसन की दी छोटी सी टुकड़ी की मदद से उन्होंने पहला हमला शुरू किया।बोयर लोगों को हारने और कैद करने के बाद उनके सारे बुजुर्गों को छोटों के सामने सूली पर टांगा गया। नहीं वो ईसा वाला क्रॉस नहीं, एक पैनी ऊँची सी लकड़ी पर टांग कर बिठा दिया जाता था। पैना सिरा शिकार के वजन से उसके ही जिस्म में धीरे धीरे पैवस्त होता जाता। जितना ही व्लाद का दुश्मन छटपटायेगा उतना वो और घुसता जाएगा। फिर लाश वैसे ही शहर के बीच टंगी छोड़ दी जाती। बचे हुए बोयर लोगों को लगातार पैदल चलवा कर पचास मील दूर की जगह उनसे एक किला बनवाया गया। ज्यादातर बोयर लोग और पुराने सामंत इसी किले को बनाते हुए मरे और इस तरह व्लाद टेपेस या व्लाद द इम्पेलर (Vlad the Impaler) ने नयी सामंतशाही स्थापित कर दी।व्लाद टेपेस बाद में अरबों पर भी हमला करने लगे, लेकिन उनकी फौजी ताकत अरबों के मुकाबले मुट्ठी भर थी। वो फिर भी जीत जाते थे क्योंकि उनके नाम का आतंक था। अपने शहर के बीचो बीच व्लाद टेपेस ने कूएँ पर एक सोने का प्याला रखवा दिया था। 1456 से छह साल तक, जब तक वहां व्लाद टेपेस का राज था तबतक किसी ने वो सोने का प्याला चुराने की हिम्मत नहीं की। चोरी से लेकर झूठ बोलने तक पर एक ही सजा लागू हो सकती थी। सीधा कांटे वाली सूली पर बिठा दो। उनके हमलों के आतंक से परेशान होकर आखिर एक बड़ी सी अरब फ़ौज व्लाद टेपेस को ख़त्म करने के लिए रवाना की। व्लाद का जो एक और छोटा भाई अरब कैद में था, उस राडू को उस इलाके का राजा बनाने की सुल्तान मुराद (द्वित्तीय) ने सोची।
जब विशाल सेना के आने की खबर व्लाद टेपेस ने सुनी तो वो जानते थे वो किसी तरह जीत नहीं सकते और पकड़े जाने पर मौत भी तय है। उन्होंने रास्ते के सारे पानी के स्रोतों में जहर डलवा दिया। जब अरब फ़ौज ट्रांसिल्वानिया पहुंची तो उनकी हिम्मत और पीछा करने लायक भी नहीं बची थी। पूरे रास्ते में खम्भों पर टंगी अरबी कैदियों की लाशें टांग दी गई थी। इस घटना को और उस इलाके को फ़ॉरेस्ट ऑफ़ द इम्पेल्ड (Forest of the Impaled) कहा जाता है। अरब फ़ौज की मदद से राडू राजा बना और काफी बाद में व्लाद टेपेस की हत्या करवाई जा सकी। अपराध की भयानक सजा के अलावा उनके शासन काल को अपराध और भ्रष्टाचार से मुक्त होने के लिए भी जाना जाता है।
पुराने ज़माने की सजाओं में भारत में भी ऐसी ही सूली की सजा होती थी। शायद “सूली” शब्द भी “शूल” से बना हो, पक्का तो पता नहीं। कई अपराधों में मेरा ख़याल है कि ऐसी ही इ.एम.आई. वाली मौत की सजा होनी चाहिए। आज सुबह जब अदालती फैसले ने एक कुकृत्य को असंवैधानिक घोषित किया और नए कानून बनाने की मांग की तो याद आया कि एक बलात्कारी को सिलाई मशीन और दस हजार रुपये देकर भी छोड़ा गया था। ऐसे बलात्कार जैसे कुछ मामलों में भी सर्जरी से एक अंग विशेष को हटा दिए जाने का प्रावधान होना चाहिए। बाकी बिहार में लोककथाओं में कहते हैं कि एक सजा “भकसी झुका के मारने” की भी होती थी। कभी कभी हम ये भी सोचते हैं जैसा गोवा इन्क़ुइजीशन (Goa Inquisition) के समय हिन्दुओं के साथ संत ज़ेवियर (St. Francis Xavier) किया करते थे, वैसी सजाएं लिखी जाएँ तो कितने ड्रेकुला निकलेंगे भारत में ?पुर्तगालियों ने जब भारत के गोवा वाले इलाके को जीत लिया तो वहां 1560 में गोवा इनक्वीजिशन के ऑफिस की स्थापना की । वो पुर्तगाली भारत और बाकी एशिया में पुर्तगाली साम्राज्य के लिए काम करता था | अपनी स्थापना के बाद इसे 17 74-1778 के बीच कुछ दिन के लिए स्थगित किया गया और आखिरकार इस इसाइयत की अमानुषिक और बर्बर परंपरा को 1812 में ख़त्म किया गया | इनक्वीजिशन के कारनामे कैसे खूंखार और रक्तरंजित रहे होंगे, इस बात का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि इसके सारे कागज़ात 1812 में इनक्वीजिशन के बंद होते ही फौरन जला दिए गए ।एच.पी. सलोमोन और रब्बी आइज़क एस.डी.सस्सून के मुताबिक, इनक्वीजिशन की 1561 में शुरुआत होने से लेकर 1774 के बीच 16202 लोगों पर मुक़दमे चलाये गए।उस दौर के सोलह हज़ार लोगों का मतलब आबादी का कितना बड़ा हिस्सा होगा ये आप अंदाजा लगा सकते हैं ।उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक 57 को मौत की सजा सुनाई गई थी। उनके अलावा 64 को जला दिया गया था । जो लोग जेल से भागने की कोशिश करते या जेल में मरते उन्हें भी पुतले की तरह बाँध कर जला दिए जाने का जिक्र है । इन हज़ारों लोगों को इसलिए मार दिया गया था क्योंकि ये इसाई होने के बाद अपने पुराने धर्म में जाना चाहते थे ।ये स्थापित इतिहास है, जिसे आपको पढ़ाया नहीं गया है | अगर आप गोवा के किसी चर्च में शांति महसूस कर रहे हैं तो जरूर कीजिये, बाकी अध्यात्म की शांति और मौत के सन्नाटे का फर्क तो याद है ना ?भारतीय संविधान में पहला संशोधन करने की जरुरत 1951 में ही पड़ गई थी । इस संशोधन के जरिये भारतीय नागरिकों की “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” को सीमित किया गया था । भारत के वाशिंदों को पूरी आजादी देना पहले कॉंग्रेसी प्रधानमंत्री को रास नहीं आया था ।भारत के संविधान में आरक्षण का प्रावधान डालने और बढ़ाने के लिए भी इसमें संशोधन करने पड़े थे । जनवरी 1960 में अनुच्छेद 334 में संशोधन कर के दलितों और एंग्लो इंडियन समुदायों के लिए लोक सभा और राज्य की विधान सभाओं में आरक्षण को 1970 तक के लिए बढ़ाये जाने का प्रावधान दिया गया । इसी साल दिसम्बर में सीमा पर के गाँव का पाकिस्तान के साथ विवाद सुलझाया जा सके इसके लिए बॉर्डर को सुधारने के लिए भी संविधान में प्रावधान डाले गए ।
1961 में जब भारत के कुछ प्रांतों को पुर्तगालियों से आजादी मिली तो दादरा और नागर हवेली को यूनियन टेरिटरी बनाने के लिए संविधान को फिर से संशोधित किया गया । इस समय तक संविधान में 10 संशोधन हो चुके थे । थोड़े ही समय बाद जब नागालैंड को अलग राज्य बनाया गया तो संविधान में एक और अनुच्छेद जोड़ने की जरुरत पड़ी । इस तरह संविधान में अनुच्छेद 371 A आया । दिसंबर 1962 में पॉन्डिचेरी के आजाद होने के कारण और उत्तर पूर्वी राज्यों, हिमाचल प्रदेश, और गोवा के लिए विधानसभा बनाने के लिए संविधान में एक और अनुच्छेद 239A डाला गया । इस समय और भी कुछ अनुच्छेदों में संशोधन किये गए थे ।20 वें संशोधन के जरिये जजों के पोस्टिंग/ ट्रांसफर/ बहाली जैसी चीज़ों को काबू में लाया गया था । दिसंबर 1966 में इसके लिए संविधान में 233 A जोड़ दिया गया । अगर कहीं आप भारत को एक राज्य और एक लोकतान्त्रिक सरकार वाला देश मानते हैं तो आपको अनुच्छेद 244A और 371B को जरूर देखना चाहिए । इन्हें सितम्बर 1969 में भारतीय संविधान में जोड़ा गया था।1970 में कई धाराओं में संशोधन किया गया था और SC/ST और एंग्लो इंडियन समुदायों के लिए विधान सभा और लोक सभा में आरक्षण और दस साल के लिए बढ़ाया गया ।इन सबमें सबसे ज्यादा संशोधन 1 अप्रैल 1977 को इमरजेंसी के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी के द्वारा एक ही बार में कर दिए गए थे । इतने अनुच्छेदों में परिवर्तन एक साथ किया कि नागरिकों के कई मौलिक अधिकार छिन गए । इसी समय संविधान की मूल भावना यानि की प्रस्तावना में “Socialist Secular” शब्द जोड़ दिए गए ।संसद और राज्य सभाओं में SC/ST आदि के आरक्षण को जारी रखने के लिए 45वां संशोधन अनुच्छेद 334 में, जनवरी 1980 में किया गया और राजनीति में आरक्षण 1990 तक के लिए बढ़ा दिया गया । 1985 और 1988 में पंजाब के राष्ट्रपति शासन के लिए भी संविधान में संशोधन किये गए थे । दिसंबर 1989 में अनुच्छेद 334 को फिर से संशोधित किया गया और संसद और विधान सभाओं में आरक्षण को 2000 तक के लिए बढ़ाया गया । इसके काफी बाद में यानि 1992 में पंचायती राज्य के लिए ग्राम पंचायत सुनिश्चित करने के लिए संविधान में संशोधन किया गया था । 1994 में तमिलनाडु में 69% का आरक्षण जारी रखने के लिए और 1995 में नौकरी में पदोन्नति (promotion) में आरक्षण के लिए 76 और 77वां संशोधन हुआ था । जनवरी 2000 में अनुच्छेद 334 पर 79 वां संशोधन हुआ और संसद एवं विधान सभाओं आरक्षण 2010 तक के लिए बढ़ाया गया । सितम्बर 2000 में ही 83 वां संशोधन (अनुच्छेद 243M) कर के सुनिश्चित किया गया कि अरुणाचल प्रदेश में SC समुदाय को पंचायती चुनावों में आरक्षण ना मिले । 2006 में संविधान में 93 वां संशोधन किया गया और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27% का आरक्षण सरकारी और गैर सरकारी शैक्षणिक संस्थानों में दिया जाने लगा । जनवरी 2010 में 95 वां संशोधन कर के संसद और विधान सभाओं में आरक्षण को फिर से बढ़ाया गया था ।अब तक देखें तो कांग्रेस की सरकारें संविधान में सौ से ज्यादा संशोधन कर चुकी हैं । सौ से कहीं ज्यादा इसलिए क्योंकि, कई बार एक से ज्यादा अनुच्छेदों में संशोधन हुए हैं, और नयी धाराएं भी शामिल हुई हैं । अब संशोधन पर कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को आपत्ति है ।इसमें कई समस्याएं हैं । एक तो ये कि संसद में रक्तपात की बात करके कॉंग्रेसी नेता ने गांधी के आदर्शों की हत्या कर दी है । दूसरी ये की अगर अनुच्छेद 334 में फिर से संशोधन नहीं किये गए तो फिर वो 2020 में “आरक्षित” सीट से खड़गे साहब, या उनके अन्य मित्रगण चुनाव कैसे लड़ेंगे ? तीसरी ये कि मूलनिवासी और विदेशियों की बात करते समय खड़गे साहब ने देखा कि इतिहासकारों ने ” आर्यन्स इन्वेजन थ्योरी” को नकार दिया है, तो विदेशी और मूलनिवासी की बात करके वो बंटवारे की राजनीति का दुर्भावना पूर्ण षड्यंत्र रच रहे थे । और कहीं जो उन्होंने कांग्रेस के संस्थापक या अभी के “हाई कमान” को देखा होता तो विदेशी शब्द तो नहीं ही इस्तेमाल करते। करते क्या ?आम तौर पर लोगों की इतिहास की जानकारी बहुत कम होती है। इस वजह से कई मक्कारों को फायदा हो जाता है जिन्हें अपना खुद का इतिहास याद ही नहीं उन्हें ठगना आसान होता है। एक ही तरीके का इस्तेमाल बार बार करने में आसानी होती है। इसका एक उदाहरण पुड्डुचेरी है।आम तौर पर भारतीय मानते हैं कि उनका देश फिरंगी हुकूमत से 1947 में आजाद हो गया था। साथ ही ये अवधारणा भी है कि भारत अहिंसात्मक, तथाकथित गांधीवादी तरीकों से आजाद हुआ था | ये नियम आधा सच है।भारत के एक बड़े भूभाग पर लागु होने के वाबजूद ये पूरा सच नहीं ।
अभी हाल के विधानसभा चुनावों के बाद जिन इलाकों का जिक्र आ रहा है, वो सब ऐसे इलाके हैं जिन्हें आम तौर पर इतिहास से गायब रखा गया है , इनमें से एक है पुड्डुचेरी। ये जगह 1954 में आजाद हुई थी यानि गोवा से पहले मगर बाकी भारत के बाद। पुड्डुचेरी की आजादी की लड़ाई को इन्टरनेट पर पढ़ लेना भी आपको कई सच्चाइयों से वाकिफ करवा देगा।कभी फुर्सत मिले तो कम से कम भारत की आजादी के बारे में तो पढ़ ही लीजिये।ऐसी ही और जगहों के बारे में भी पता चलेगा जो 1947 में आजाद नहीं हुई थीं।ओह, हां ! भारत की आजादी पर लिखी गई सबसे महत्वपूर्ण, या तथ्यात्मक, अच्छी किताबें, विदेशियों ने लिखी हैं। जी हाँ अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं ज्यादातर ।दिन में एक दो पन्ने का भी अनुवाद साल डेढ़ साल में इन किताबों को हिंदी में, या अन्य भारतीय भाषाओँ में उपलब्ध करवा देता। अफ़सोस दिन में एक पन्ने का अनुवाद करने का समय हमारे कथित राष्ट्रवादियों को पिछले 67 साल में मिल नहीं पाया है |
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आनन्द कुमार

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