(डॉ. आलमगीर)
(सहायक प्रोफेसर, जामिया मिलिया इस्लामिया)
(साभार दैनिक जागरण )
पलभर में सदियां जी जाती हैं। दशकों के बदलाव हो सकते हैं। जाहिर तौर पर ये किताबी बातें लगती हैं, लेकिन ऐसा संभव है। कम से कम सऊदी अरब में महिलाओं को ड्राइविंग की अनुमति दिए जाने के संबंध में तो ये बातें बिल्कुल चरितार्थ होती लगती हैं। 24 जून की मध्य रात्रि को जैसे ही सऊदी महिलाएं ड्राइविंग सीट पर बैठीं मानो एक युग का पूरा पहिया घूम गया। दशकों से उनपर चली आ रही ड्राइविंग की पाबंदी समाप्त हो गई। इस प्रतिबंध के हटते ही सऊदी महिलाओं को जैसे आजादी के पंख लग गए। उन्होंने आधी रात को इसका जश्न मनाया। सड़कों पर गाड़ियां दौड़ाईं। सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें छाई रहीं। कुछेक ने तो गाड़ियों के वूफर तेज करके स्थानीय भाषाओं में गीत सुने। जाहिर है कि यह ऐसा क्षण था जिसने उन्हें कई तरह की परेशानियों से निजात दिला दी। बरसों से गाड़ी चलाने जैसे मौलिक अधिकार से वंचित महिलाओं को कम-से-कम इस मामले में लैंगिक समानता मिली। अब उन्हें किसी काम के लिए बाहर जाते हुए पुरुषों या फिर ड्राइवर का मुंह नहीं ताकना पड़ेगा। इससे उन्हें उस विकट स्थिति से निजात मिलेगी जब किसी जरूरी काम यहां तक कि बीमारी जैसी आपात स्थिति के लिए पुरुषों के साथ गाड़ी में जाना पड़ता था।
महिलाओं की ड्राइविंग पर से प्रतिबंध हटाने का फैसला सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान के विजन-2030 का हिस्सा है। जून 2017 से ही सऊदी अरब में उनकी नीतियों पर काम हो रहा है। इस विजन के तहत सऊदी अरब दुनिया के सामने अपनी कट्टर धार्मिक छवि को बदलकर उदारवादी इस्लाम की परिभाषा गढ़ने के लिए प्रयासरत है। इसके तहत सऊदी अरब की अर्थव्यवस्था की काला सोना कहे जाने वाले तेल पर से निर्भरता को भी कम किया जाना है, क्योंकि इससे होने वाली आय अब घटकर आधी रह गई है। यह सऊदी अर्थव्यवस्था के लिए इंजन का काम करता था, लेकिन अब उसे कई इंजनों की आवश्यकता है। इसके लिए उसे दुनियाभर के निवेशकों को अपनी तरफ आकर्षित करने लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराना है। रूढ़िवादी सोच और कट्टरता के बीच ऐसा संभव नहीं है। इसीलिए सऊदी क्राउन प्रिंस ने सिनेमाघर खोलने, संगीत की महफिलें सजाने और औरतों को स्टेडियम जाने की अनुमति देने के साथ ही सितंबर 2017 में महिलाओं की ड्राइविंग से पाबंदी हटाने की घोषणा की थी जिसपर अमल अब हुआ है।
सऊदी के आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं की ड्राइविंग पर दशकों से जारी प्रतिबंध हटने से सालाना 20 अरब रियाल की बचत होगी। एक अनुमान के अनुसार सऊदी अरब में विदेशी ड्राइवरों की संख्या 13 लाख से भी अधिक है। इनमें से ज्यादातर इन्हीं महिलाओं को लाने-ले जाने के लिए नियुक्त किए गए हैं। अब इनके वेतन पर खर्च होने वाली इस रकम का काफी कुछ बचेगा।
इसके साथ ही इससे रोजगार के नए अवसर भी सृजित होंगे। मसलन सऊदी अरब की एक टैक्सी कंपनी के अनुसार उसने एक हजार सऊदी महिलाओं को अपनी सेवाएं प्रदान करने के लिए नियुक्त करने की योजना बनाई है। दूसरी कंपनियां भी इसी तरह अपने कारोबार को विस्तार देने की योजना पर काम कर रही हैं। 1यहां सवाल यह है कि बाहर से यह तस्वीर जितनी उजली दिखाई दे रही है, क्या धरातल पर भी वैसी ही है? ऐसा सोचना इसलिए भी प्रासंगिक हो जाता है कि क्योंकि महिलाओं की ड्राइविंग पर प्रतिबंध हटने से एक माह पूर्व ही कई महिला कार्यकर्ताओं को गाड़ी चलाने के अपने अधिकार की आवाज बुलंद करने लिए गिरफ्तार गया था। इनमें लुजेन हजलूल, अजीजा अल यूसुफ और ईमान अल नजफान भी शामिल थीं। बताते चलें कि लुजेन हजलूल वही महिला कार्यकर्ता हैं जो पहले भी संयुक्त अरब अमीरात से ड्राइविंग करके सऊदी अरब में प्रवेश पाने की कोशिश करते हुए 70 से अधिक दिनों की जेल काट चुकी हैं। न तो इन औरतों ने कोई बड़ा जुर्म किया है और न ही सऊदी अरब के कानून में महिला ड्राइविंग के गैरकानूनी होने का कोई उल्लेख है। फिर इन महिलाओं को इस पाबंदी के हटने के बावजूद क्यों नहीं छोड़ा गया?
सऊदी प्रशासन की दलील है कि ये महिलाएं विदेशी ताकतों के प्रभाव में काम कर रही थीं। मतलब साफ है कि अब भी सऊदी बादशाहत को अपने खिलाफ उठने वाली कोई आवाज पसंद नहीं है। जो भी आवाज उनके विरुद्ध उठेगी, उसका हश्र इन महिलाओं की तरह होगा जिन पर अनर्गल आरोप मढ़कर उन्हें जेल की काल कोठरी में बरसों के लिए डाल दिया जाएगा। अर्थात लगता है कि सऊदी शहजादे के उदारवाद के प्रयास सांकेतिक हैं जो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को महज दिखाने के लिए हैं। सऊदी शाहों और समाज में रूढ़िवादिता की जड़ें इतनी गहरी हैं जिसमें परिवर्तन लाना अगर असंभव नहीं तो बहुत आसान भी नहीं है। महिला कार्यकर्ताओं की अब तक रिहाई न होने से साफ है कि वहां समाज की बातें अब भी अनसुनी की जाती रहेंगी और सऊदी शाहों का फरमान ही अंतिम फैसला होगा।
सऊदी शहजादे को वास्तव में अगर अपने विजन-2030 को सफल बनाना है तो उन्हें महिलाओं को ड्राइविंग की अनुमति देने जैसे सांकेतिक फैसलों से ऊपर सोचना होगा। उन्हें महिलाओं के उन मूलभूत अधिकारों के प्रति अधिक मुखर होना पड़ेगा जिसकी इस्लाम ने पश्चिमी सभ्यता से काफी पहले इजाजत दे दी थी। इसके लिए उन्हें महिलाओं के पुरुष सरपरस्त के सिद्धांत को खत्म करना पड़ेगा। अजीब बात है जिस सरजमीं पर पैगंबर मोहम्मद ने पहली शादी एक विधवा कारोबारी हजरत खदीजा से की, उसी के वासी आज औरतों को पुरुष अभिभावकों की अनुमित के बिना शिक्षा और व्यवसाय ही नहीं, बल्कि बैंक अकाउंट, क्रेडिट कार्ड, विदेश यात्र जैसे छोटे-छोटे सपनों को साकार करने से भी रोकते हैं।
सऊदी शहजादे मोहम्मद बिन सलमान अपने इन सांकेतिक निर्णयों से विदेशों की थोड़ी-बहुत सहानुभूति तो हासिल करने में कामयाब हो जाएंगे, लेकिन परिवर्तन की टिक-टिक करती उस घड़ी की सुई को कैसे रोक पाएंगे जो किंग अब्दुल्लाह शैक्षिक छात्रवृत्ति के तहत सऊदी नाजवानों की बड़ी खेप विदेशों में तालीम हासिल कर रही है। स्वदेश लौटने पर उन्हें रोजगार के अलावा बेहतर माहौल चाहिए। इसके लिए सऊदी शहजादे को ठोस निर्णयों की दरकार होगी।()