कुछ महीने पहले ही भारत सरकार द्वारा रक्षा उत्पादन के लिये “सामरिक भागीदारी मॉडल” को मंज़ूरी दी गई थी। इस नीति का उद्देश्य भारत के रक्षा विनिर्माण क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करना है।

चुनिंदा भारतीय कंपनियों के साथ मिलकर रक्षा विनिर्माण की ज़रूरत लम्बे समय से महसूस की जा रही थी। विजय केलकर के नेतृत्व में एक समिति ने एक दशक पहले इस आशय के समर्थन में प्रस्ताव भी रखा था।

दरअसल, सरकार का निजी क्षेत्र की तरफ यह झुकाव सार्वजनिक क्षेत्र की विफलताओं को दर्शाता है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (Defence Research and Development Organization-DRDO) और सार्वजनिक रक्षा क्षेत्र के उपक्रम (Defence Public Sector Undertakings-DPSUs) भारतीय सशस्त्र बलों की ज़रूरतों को पूरा करने में विफल रहे हैं।
सामरिक भागीदारी मॉडल की प्रभावशीलता के बारे में बात करने से पहले हम यह देखते हैं कि यह है क्या ?
क्या है “सामरिक भागीदारी मॉडल” ?

घरेलू निजी क्षेत्र की भागीदारी से देश को रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने तथा रक्षा उपकरणों की खरीद के लिये विदेशों पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से सरकार ने ‘सामरिक भागीदारी मॉडल’ बनाया है।

इस मॉडल के तहत रक्षा क्षेत्र में निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम मिलकर काम करेंगे।
इस नीति के प्रारंभिक चरण में सरकार किसी एक मुख्य प्रणाली के निर्माण हेतु सामरिक भागीदार के रूप में एक निजी भारतीय इकाई की पहचान करेगी। चयनित कंपनियाँ इन प्रणालियों के उत्पादन के लिये विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त उद्यम स्थापित कर सकती हैं।
अर्थात् इस मॉडल के लागू होने के बाद देश में ही पनडुब्बी, बख्तरबंद वाहन, लड़ाकू विमान एवं अन्य उपकरण बनाने के लिये निजी कंपनियों को जिम्मेदारी दी जाएगी। ये कंपनीयाँ विदेशी प्रतिष्ठानों के साथ नियमों के अनुसार भागीदारी कर रक्षा उपकरणों को देश में ही बना सकेंगी।बाद में इस सूची में अन्य रक्षा उपकरणों को भी शामिल किया जाएगा।

“सामरिक भागीदारी मॉडल” से प्राप्त होने वाले लाभ
दरअसल, कहा यह जा रहा है कि “सामरिक भागीदारी मॉडल” की नीति से सरकार की महत्त्वाकांक्षी परियोजना ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा मिलेगा तथा साथ ही स्वदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और छोटे उद्योगों की मदद से देश में रक्षा उपकरण उत्पादन का माहौल बनाने में मदद मिलेगी।
यह नीति तैयार करने के लिये सरकार ने सभी संबद्ध पक्षों से विस्तृत विचार विमर्श किया है, जिससे वे रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में लंबे समय तक भागीदार बने रह सकें। सरकार के इस कदम से भारतीय कंपनियों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, आपूर्ति श्रृंखला स्थापित करने और रक्षा उत्पादन क्षेत्र का घरेलू बुनियादी ढाँचा बनाने में मदद मिलेगी।

क्यों अपर्याप्त प्रयास है “सामरिक भागीदारी मॉडल” ?
इसमें कोई दो राय नहीं कि यह प्रयास रक्षा उत्पादन के लिये अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यह अपर्याप्त होगा। हम इस प्रयास को ‘अपर्याप्त’ क्यों कह रहे हैं इसके लिये हमें ‘आईएनएस गोदावरी’ के निर्माण की कहानी जाननी होगी।

विदित हो कि सन 71 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद भारतीय नेवी को एक शक्तिशाली युध्दपोत की ज़रूरत महसूस हो रही थी और वर्ष 1974 में इस पर काम शुरू हो गया। दरअसल, इसी वक्त आर्मी को ‘मुख्य युध्दक टैंकों’ और एयर फोर्स को ‘हल्के लड़ाकू विमानों’ की सख्त ज़रूरत महसूस हो रही थी और इनपर भी कार्य आरम्भ कर दिया गया।

कार्य आरंभ होने के 9 वर्षों के बाद ही आईएनएस गोदावरी भारतीय नेवी को समर्पित कर दी गई, लेकिन मुख्य युद्धक टैंकों एवं हल्के लड़ाकू विमानों के निर्माण में तीन दशक लग गए और जब ये बनकर आए तो आर्मी और एयर फोर्स की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए।
दरअसल, हुआ यह था कि नौसैनिक डिज़ाइन निदेशालय (Directorate of Naval Design-DND) और नेवी के दक्ष इंजीनियरों ने अपनी क्षमताओं और ज़रूरतों के मध्य संतुलन स्थापित करते हुए आईएनएस गोदावरी के निर्माण में बेहतरीन काम किया था।

आईएनएस गोदावरी के लिये नेवी का इंजीनियरिंग दल जहाँ गैस प्रणोदन (gas propulsion) तकनीक की वकालत कर रहा था, वहीं डीएनडी ने राय दी कि भाप प्रणोदन (steam propulsion) तकनीक का प्रयोग करना बेहतर रहेगा। दोनों पक्षों के बीच इस बात को लेकर ज़ोरदार बहस हुई और अंत में भाप प्रणोदन (steam propulsion) तकनीक पर सहमति बनी और यह निर्णायक साबित हुई; उल्लेखनीय है कि आईएनएस गोदावरी को नेवी की आवश्यकताओं के अनुरूप पाया गया।

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