हाल ही में पर्यटन मंत्रालय ने मेमोरेन्डम ऑफ अंडरस्टेंडिंग योजना के अंतर्गत 31 ऐसी ऐजंसियों को चुना है, जिन्हें ‘स्मारक मित्र’ या मोन्यूमेन्ट मित्र के नाम से जाना जाएगा। ये 31 एजेंसियां भारत के 95 पर्यटन स्थलों की देखभाल की जिम्मेदारी निभाएंगी।

इस योजना को लाने के पीछे सरकार का उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र की कंपनियों और कार्पोरेट नागरिकों तथा अन्य को भी हमारी विरासत और पर्यटन के रखरखाव में शामिल करना है। ऐसा करके भारत के पुरातत्व स्थलों का विकास, संचालन तथा रखरखाव विश्वस्तरीय पर्यटक स्थलों के समान हो सकेगा।

अभी तक हम ऐसी दुनिया में रहते आए हैं, जहाँ यह मानकर चला जाता है कि हमारी विरासत की देखभाल करना सरकार का ही दायित्व है। इस सामान्य दृष्टिकोण के विरुद्ध कदम उठाने पर सवाल उठना स्वाभाविक है। विरोधी राजनैतिक दलों ने भी सरकार के इस कदम का यह कहकर विरोध किया है कि ऐसा करके सरकार भारतीय पहचान के प्रतीकों की स्वतंत्रता को कार्पोरेट को बेच रही है। जबकि सरकार के इस निर्णय के पीछे के तथ्य कुछ और ही हैं।

भारतीय पुरातत्व विभाग के पास 3,686 स्मारकों और 50 संग्रहालयों के रखरखाव के लिए मात्र 974.56 करोड़ रुपये हैं।
वहीं चीन में 4,000 संग्रहालयों के रखरखाव के लिए 23,565 करोड़ रुपये दिए जाते हैं। चीन के इन स्मारकों और संग्रहालयों में निःशुल्क प्रवेश दिया जाता है। इस कारण वहाँ पर्यटकों की संख्या बढ़ती है।

भारत में देशी पर्यटकों की तुलना में विदेशी पर्यटकों से कई गुना अधिक प्रवेश शुल्क लिया जाता है। इस प्रवृत्ति को भेदभाव का प्रतीक मानते हुए इसका विरोध भी किया गया है। इसके कारण विदेशी पर्यटक भी हतोत्साहित होते हैं। इतना शुल्क लेने के बाद भी पुरातत्व विभाग के पास स्मारकों के रखरखाव के लिए पर्याप्त धन नहीं जुट पाता है।

ताजमहल के रखरखाव को देखते हुए मई में उच्चतम न्यायालय ने ही कह दिया कि इसकी जिम्मेदार किसी अन्य एजेंसी को दे दी जाए।
इस बिन्दु पर आकर निजी क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन यह भूमिका नियंत्रित होनी चाहिए। इसके अंतर्गत सावधानी से बनाई गई ऐसी नीति हो, जो स्मारकों और संग्रहालयों में भारतीय व विदेशी पर्यटकों के प्रवेश को सुगम बना सके।

पर्यटन स्थलों पर स्वच्छ शौचालयों, विकलांगों के लिए सुगम पथ, रेलिंग आदि की पर्याप्त सुविधा का ध्यान शायद निजी क्षेत्र बेहतर रूप से रख पाएगा। अमेरिका में भी भारतीय पुरातत्व विभाग की तर्ज पर राष्ट्रीय उद्यान सेवा काम करती है। वहाँ के समाचार पत्र में भी राष्ट्रीय उद्यानों एवं स्मारकों को निजी हाथों में सौंपने की खबर प्रकाशित की गई है।

सीधी सी बात है कि जब चीनी फोन कंपनी वीवो इंडियन प्रीमियर लीग के प्रायोजक के तौर पर काम कर सकती है, तो भारतीय निजी क्षेत्र हमारे स्मारकों और संग्रहालयों का प्रायोजक बनकर उनके विज्ञापन जारी क्यों नहीं कर सकता? इस प्रकार के आयोजन में निर्णय का अधिकार हमेशा मूल संस्थान के पास ही रहता है। अतः हमारी विरासत के प्रायोजकों और इसके विशेषज्ञों के बीच के अंतर के बारे में कोई प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए।

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