(राजकिशोर)
तीन युवा वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया है कि वह जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए कठोरतर उपायों पर विचार करे। इसके साथ ही एक अन्य याचिका भी दाखिल की गई है जिसमें विवाह की न्यूनतम उम्र को बढ़ाने का आग्रह किया गया है। याचिकाकर्ता के अनुसार, विवाह की न्यूनतम उम्र पुरुषों के लिए 25 वर्ष और स्त्रियों के लिए 21 वर्ष होनी चाहिए। तर्क यह दिया गया है कि जनसंख्या वृद्धि का सीधा संबंध उर्वरता की उम्र से होता है। हमारे देश में ज्यादातर विवाह चूंकि युवावस्था के आरंभ में ही होते हैं, इसलिए स्त्रियां जल्दी गर्भवती हो जाती हैं। इस प्रवृत्ति को विवाह की उम्र बढ़ाकर रोका जा सकता है।
याचिकाकर्ता की एक और मांग यह भी है कि जिनके दो से ज्यादा बच्चे हैं, उन्हें संसद और विधानसभा सभी का चुनाव न लड़ने दिया जाए, राजनीतिक दल न बनाने दिया जाए और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की नौकरियों के लिए आवेदन करने पर भी रोक लगा दी जाए।1याचिकाकर्ता के इरादे नि:संदेह नेक हैं, लेकिन मुङो नहीं लगता कि इन उपायों को अपनाना संभव होगा और यदि किसी तरह इन्हें मान भी लिया जाए तो देश की जनसंख्या वृद्धि की दर में खासा अंतर आ सकता है।
मेरे खयाल से हमारी असली समस्या यह है कि हमारे पास कोई जनसंख्या नीति नहीं है। हमारे पास जनसंख्या नीति क्यों नहीं है? क्योंकि हम अपनी प्राय: सभी नीतियों में पश्चिमी यूरोप और अमेरिका की नीतियों का अनुकरण करते हैं। इन अंचलों में जनसंख्या नीति की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वहां की आबादी न बढ़ रही है और न घट रही है। बल्कि घट ही रही है, जिसकी क्षतिपूर्ति एशिया और अफ्रीका से आव्रजन के माध्यम से हो रही है। वहां की समस्या यह होने वाली है कि उनकी जनसंख्या का सांस्कृतिक स्वरूप बदल रहा है और एक दिन ऐसा आ सकता है जब जर्मनी में गैर-जर्मन और फ्रांस में गैर-फ्रेंच लोगों की संख्या बढ़ जाए।
भारत में कुछ लोगों का खयाल है कि वह समय बहुत दूर नहीं है जब मुसलमानों की आबादी हिंदुओं से ज्यादा हो जाएगी। इसी अंदेशे से कई बार हिंदुओं को प्रेरणा दी जाती है कि वे ज्यादा बच्चे पैदा करें, लेकिन अभी तक इस अंदेशे का कोई तार्किक आधार सामने नहीं आया है। प्रमाण बल्कि उलटे हैं। लेकिन पश्चिमी देशों के लिए यह समस्या वास्तविक है, क्योंकि वहां स्थानीय आबादी स्थिर है या कम हो रही है तथा बाहर से आने वालों की संख्या बढ़ रही है।
स्पष्टत: जनसंख्या का मामला व्यक्तिगत नहीं है कि कौन कितने बच्चे पैदा करना चाहता है। इसका संबंध राष्ट्रीय संसाधनों से भी है। दूसरे महायुद्ध के बाद सोवियत संघ में ज्यादा बच्चे पैदा करो का अभियान चलाया गया था और जो स्त्री जितने ज्यादा बच्चे पैदा करती थी, उसका उतना ही सम्मान किया जाता था। ऐसी माताओं को पुरस्कृत भी किया जाता था, ताकि संतान वृद्धि की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सके। अब इस क्षेत्र से सरकार ने अपने आप को वापस कर लिया है, क्योंकि जनसंख्या में एक संतुलन आ गया है। दूसरी ओर, चीन एक संतान की नीति को छोड़ कर दो बच्चों के सिद्धांत पर आ गया है, ताकि संपूर्ण आबादी में युवा लोगों का प्रतिशत बढ़ सके।
लेकिन भारत? भारत ने जनसंख्या समस्या के बारे में यह नीति बना रखी है कि इस बारे में न कुछ सोचना है न कुछ करना है। 60 और 70 के दशक में परिवार नियोजन एक राष्ट्रीय नारा था। सरकारी कर्मचारी कोशिश करते थे कि लोग कम बच्चे पैदा करें। इन कोशिशों में स्त्रियों की नसबंदी का कार्यक्रम अब भी चल रहा है, लेकिन परिवार नियोजन का कार्यक्रम नाकाम हो जाने के बाद सरकार ने जनसंख्या वृद्धि की समस्या पर विचार नहीं किया है, जबकि हम देख रहे हैं कि जनसंख्या के दबाव से हमारी समस्त सार्वजनिक सेवाएं चरमरा रही है। अन्न, पानी, बिजली, शिक्षा, निवास, चिकित्सा जैसा कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां जनसंख्या का दबाव महसूस न किया जा रहा हो। कह सकते हैं कि भारत एक बहुत बड़ी भीड़ का देश बन चुका है।
यह बात हम सभी अनुभव करते हैं और आपसी बातचीत में इसकी चर्चा भी करते हैं। फिर भी, राजनीतिक दलों में इस भयंकर समस्या की कोई चेतना नहीं है। हमारे नेता जनसंख्या बम का टिक-टिक नहीं सुन पा रहे हैं। प्रधानमंत्री तक भी इस मामले में कोई चिंता व्यक्त नहीं करते।1 यह सवाल वाजिब है कि भारत का राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग टिक-टिक कर रहे जनसंख्या बम की ओर से इतना उदासीन क्यों है। कारण उसकी आर्थिक नीतियों में छिपा हुआ है। सिर्फ बोर्ड लगाने या प्रचार करने से जनसंख्या कम नहीं हो सकती। जनसंख्या कम करने के दो ही तरीके हो सकते हैं। या तो तानाशाही यानी विकास में भले ही असंतुलन हो, पर किसी को भी एक या दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने का अधिकार न हो या संपूर्ण लोकतंत्र जिसका मतलब है विकास में सब की भागीदारी, जिससे मध्य वर्ग की संख्या बढ़ती है और वे स्थितियां कम हो जाती हैं जिनमें ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। चीन ने पहला रास्ता चुना, क्योंकि उसके पास समय कम था।
पश्चिमी देशों में जनसंख्या का नियंत्रण आर्थिक विकास और उसमें सामान्य जन की भागीदारी से हुआ। जैसे-जैसे आम जनता का मध्यवर्गीकरण होता गया, लोग स्वभावत: कम बच्चे पैदा करने लगे। नई प्रवृत्ति बच्चे न पैदा करने की है, जिसे हम उपभोक्तावाद की इंतेहा कह सकते हैं। एकल अभिभावकों के कारण भी जनसंख्या घटेगी। लेकिन हम न तो अच्छे तानाशाह हैं न अच्छे लोकतांत्रिक। चीन की तरह तानाशाही के रास्ते से हम भी जनसंख्या की समस्या को सुलझा सकते थे। पर तानाशाही हमें गवारा नहीं है। पर लोकतंत्र भी हमें गवारा नहीं है, हम नहीं चाहते कि विकास का फायदा सभी को हो। मध्यवर्गीकरण की विफलता ही हमारी वास्तविक विफलता है जिसे गरीबी की समस्या के रूप में पेश किया जाता है। शायद अभी भी समय है। अगर हम अपनी आर्थिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन के लिए तैयार हो जाएं तो जनसंख्या की वृद्धि रुक सकती है, जिसका सुखद नतीजा होगा तेजी से आर्थिक विकास। लेकिन भारत के मध्य वर्ग को भय है कि साधारण लोग उनकी पांत में बड़ी संख्या में घुस न आएं। क्या यह जाति प्रथा का असर है?(साभार दैनिक जागरण )