07 Feb स्थायी नौकरियों का मकड़जाल
बेरोजगारी फिलहाल देश की बड़ी चिंताओं में पहले पायदान पर है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने देश को आश्वस्त किया कि गत एक बरस में 18-25 की उम्र के 70 लाख युवाओं ने संगठित क्षेत्र में रोजगार पाया, इसका प्रमाण सरकारी बही में दर्ज कर्मचारी भविष्यनिधि (ईपीएफ) के 70 लाख नए खाते हैं। इस आशावादी घोषणा का आधार थी (विगत जनवरी में छपी आईआईएम के प्रोफेसर पुलक घोष व एक राष्ट्रीयकृत बैंक के बड़े अधिकारी सौम्यकांति घोष की) एक रपट। इस रपट की जानकारियां पूरी तरह उनको सरकारी बैंकिंग क्षेत्र से दिए गए ऐसे दुर्लभ डाटा पर आधारित थीं, जो अब तक सार्वजनिक रूप से यानी ऑनलाइन उपलब्ध नहीं हैं। कई विद्वानों ने शंका जाहिर की कि नोटबंदी और जीएसटी लागू होने के बाद सभी छोटी, मंझोली, बड़ी कंपनियों में हुई छंटनियां इस सरकारी डाटा में नहीं समेटी गई हैं। लिहाजा यह डाटा आज की सही तस्वीर नहीं देता। संभव यह भी है कि ये नए रोजगार नए नहीं। असंगठित क्षेत्र के कुछ उपक्रमों के कराधान के दायरे में आ जाने से वे अब संगठित की परिभाषा में दर्ज हो रहे हैं, सो ये पुरानी नौकरियां नई बोतल में पुरानी शराब की परिभाषा में आती हैं। यह बहस अभी दूर तलक जाएगी, पर यह शक के परे है कि दुनियाभर में युवाओं की सबसे बड़ी तादाद (73 करोड़) भारत में है। और 2019 तक तकरीबन 1 कराेड नब्बे लाख युवा रोजगार की कतार में होंगे।
यदि हम मान भी लें कि हां संगठित क्षेत्र में पढ़े-लिखे हुनरमंद मध्यवर्गीय युवाओं को बड़ी तादाद में सुनहरे रोजगार के अवसर मिलने लगे हैं, तो फिर यह देखना भी जरूरी है कि आज के महत्वाकांक्षी युवाओं के सबसे पसंदीदा व मोटी तनख्वाहें दिलाने वाले प्रबंधन क्षेत्र की खबरें क्या बताती हैं? यह वह मौसम है, जब बिजनेस कोर्स पूरा करने जा रहे छात्र बड़ी तादाद में अपने कॉलेजों में चातक की तरह कैंपस चयन की मार्फत किसी बड़ी कंपनी के एचआर अफसरों द्वारा मालदार वेतनमान वाली नौकरियों के लिए चुने जाने की उम्मीद लगाए रहते हैं। बच्चा बिजनेस स्कूल में दाखिला पा गया तो माता-पिता निश्चिंत हो रहते हैं कि उसका भविष्य बन गया। हमारे गुलाबी अखबारों में भी इस आशय की खबरें छपती रहती हैं कि किस तरह अमुक होनहार युवा कैंपस से चयनित किया जाकर, बीसेक की उम्र में ही किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में सात अंक की सालाना तनख्वाह से जुड़ी नौकरी पा गया है।
पर हर साल सिविल परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले छात्रों में भी आईआईटी और डॉक्टरी की परीक्षा पास कर चुके युवाओं की बड़ी तादाद से लगता है कि शायद मध्यवर्ग की मानसिकता का भूगोल अभी भी उसी पुरानी धारणा पर टिका है, जो हाथ मैले करने वाले हर तरह के काम की तुलना में साफ वस्त्रों में कुर्सी पर बैठकर अफसर या बड़ा मैनेजर बनकर हुकुम चलाने वाली अफसरी या प्रबंधन की नौकरी को सबसे बेहतर मानती है। भरपूर मीडिया प्रचार और उसमें छपी सफल प्रबंधकों की सचित्र जीवन शैली देख-सुनकर बढ़ती बेरोजगारी के वक्त में भी आम धारणा यह बनी है कि उत्तम खेती अब समाप्त है। मध्यम यानी वणिज के लिए मूल पूंजी बड़े लोग ही हथिया सकते हैं। इसलिए किसी तरह पापड़ बेलकर बच्चा यदि प्रबंधन की डिग्री पा जाए, तो बढ़िया चाकरी पाने में कोई विलंब नहीं होगा। दूसरी तरफ इससे यह भी उम्मीद बनती है कि भारत में जब बड़ी विदेशी पूंजी आएगी और नामी कंपनियां स्थानीय कर्मचारियों का चयन करेंगी तो उन सबको प्रबंधन की विधिवत शिक्षा पा चुके, नई तकनीक के प्रयोग में सक्षम, हुनरमंद अफसर हाथ बढ़ाते ही मिल जाएंगे। पर सुर्खियों के परे जो डाटा खुद प्रबंधन शिक्षा विशेषज्ञ दे रहे हैं, कुछ और ही बताता है।
आज देश में बिजनेस प्रबंधन के चार बड़े संस्थानों के अलावा प्रबंधन कोर्स के लिए भारी मांग के चलते सैकड़ों नए निजी संस्थान कुकुरमुत्तों की तरह उग रहे हैं। बड़े शहरों की परिधि में खड़े किए गए इनमें से अधिकतर निजी संस्थान जरूरी फैकल्टी की कमी से ग्रस्त सिर्फ पैसा बनाने की फैक्टरियां बनकर रह गए हैं। फिर भी शत प्रतिशत प्लेसमेंट का दावा करते हुए अधिकतर संस्थान अगले सत्र के लिए नए छात्र और फंडिंग जुटा लेते हैं। और बहुत जरूरतमंद कंपनियों के मानव संसाधन विभाग इन कैंपसों से परिमार्जित चयन प्रक्रिया के तहत कुछ लक्षित पदों को तुरत भरकर कंपनी बोर्ड को तुष्ट कर देते हैं। भीतरखाने सभी स्वीकार करते हैं कि जिस स्तर की कुशलता की अब मांग है, उसके लिए यह चयन प्रक्रिया नाकाफी है।
बंगलुरु तथा अहमदाबाद प्रबंधन संस्थान के शोध गवाह हैं कि इस तरह के चयन से बड़े संस्थान के छात्रों को फटाफट नौकरी भले मिलती हो, पर वे उनको अधिक समय तक तुष्टि नहीं देतीं। उनका मन अभी अवयस्क होता है। हो भी क्यों न? आज प्रबंधन के अधिकतर छात्र सिर्फ स्कूली पढाई खत्म कर कोचिंग संस्थानों की रट्टालगाई की तरफ दौड़ जाते हैं और किस्मत ने साथ दिया तो किसी बड़े वाले या नामी निजी प्रबंधन कोर्स में सीधे दाखिला पा लेते हैं वर्ना किसी निजी संस्थान का कोटा तलाशते हैं। प्रबंधन और डाटा दोनों बताते हैं कि 70 फीसदी प्रशिक्षु की नौकरी पा भी गए तो जल्द ही उन्हें लगने लगता है कि वे उसमें फिट नहीं हो पा रहे हैं। सो इन नौकरियों को वे तब तक येन-केन निभाते हैं, जब तक वे कुछ पैसा बचा लें और उनका बैंक लोन चुकता हो जाए। इसके बाद वे दोबारा पसंदीदा काम तलाशते हैं।
इस धकापेल, मोहभंग और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार से उन्हें बचाने के लिए छात्रकाल में किसी भी उच्च विशिष्ट शिक्षा के छात्रों को अपने रुझान और क्षमता का सही आकलन करने को स्कूल से कॉलेज तक शिक्षकों और मनोवैज्ञानिकों से निजी स्तर पर सघन परामर्श मिलना जरूरी है, ताकि वे माता-पिता की महत्वाकांक्षा तले या साथियों की देखादेखी किसी भेड़चाल से बचें। और बाद को नौकरी पाकर फिर उसे अधबीच में छोड़ लुढ़कते पत्थरों की तरह कुंठित दिशाहीन न बनें। पिछले कुछ सालों से इन कोर्सेस में दाखिला लेने को उत्सुक छात्रों का ट्यूशन कक्षा चलाने वाले मशीनी संस्थानों या भीड़भरी क्लासों में पढ़ते हुए अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या करना खतरे की घंटी है। वह दिखाता है कि हमारे यहां औसत अभिभावकों और समवयसियों की सराहना और ईर्ष्या के पात्र ऐसे छात्र वस्तुत: भीतरखाने कितना अकेला और दिग्भ्रमित महसूस करते हैं। अपने चमकीले छात्रकाल में इनमें से अधिकतर युवा हमारे देश के युवाओं के बेहतरीन प्रतिनिधि होते हैं। स्वप्नदर्शी, आशावान, बुद्धिमान और मेहनती। आने वाले वक्त में मान लीजिए, हरित-श्वेत क्रांतियां हो गईं, बड़ा विदेशी पूंजी निवेश का सोता उमड़ा और उत्पादन के साथ तकनीकी तथा सूचना प्रसार के क्षेत्रों का भी अपेक्षित विस्तार हुआ, तब क्या हम प्रबंधन शिक्षा की दशा-दिशा रातोंरात बदल सकेंगे? नहीं। तब क्या गारंटी है कि हम जाति प्रथा की ही तरह एक प्रतिशत आबादी के हाथ देश की तीन चौथाई कमाई जाना, विदेशों से मैनेजरों का आयात स्वीकार न कर लेंगे?
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