आरपी सिंह, (लेखक सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर हैं)

भारत अब महाशक्ति बनने की राह पर है। वह पहले ही वैश्विक मसलों में अहम भूमिका निभाता आ रहा है। आने वाली पीढ़ी के लिए एक स्वस्थ, समृद्ध और पर्यावरणीय रूप से सतत भविष्य निर्माण की रूपरेखा बनाने में उसकी राय को तवज्जो दी जाती है। साथ ही भारत अब उन औद्योगिक देशों में शामिल हो गया है जो बड़े पैमाने पर संसाधनों का दोहन कर रहा है। भौगोलिक आकार, भू-रणनीतिक स्थिति, तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था, सशक्त होते सैन्य बल के साथ ही भारत के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को अमेरिका सहित दुनिया के अधिकांश देशों ने स्वीकार किया है। आज ताकतवर देशों का प्रत्येक गुट भारत को अपनी ओर आकर्षित करने की फिराक में लगा है, क्योंकि उसके साथ से दुनिया में शक्ति के संतुलन का पलड़ा उस गुट के पक्ष में झुक सकता है।

दूसरी ओर चीन वैश्विक मामलों में भारत को बराबर का साझेदार मानने को लेकर हिचकता है। पिछले कुछ समय से बीजिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के धैर्य की परीक्षा के लिए भारत के प्रति ‘कभी गर्म तो कभी नर्म वाली नीति अख्तियार करता आया है। यह बात अब छिपी नहीं रह गई है कि चीन भारत पर शिकंजा कसने के लिए उसके आसपड़ोस में ‘मोतियों की माला के रूप में सामरिक घेरेबंदी करने में जुटा है। इसी तरह वन बेल्ट, वन रोड यानी ओबोर और मेरीटाइम सिल्क रूट भी चीन के बढ़ते भू-राजनीतिक रुतबे का प्रतीक है। बीजिंग दुनियाभर में बंदरगाहों और एयरफील्ड में अपनी पैठ बढ़ा रहा है। साथ ही अपने सैन्य बलों के आधुनिकीकरण के साथ ही अपने व्यापारिक साझेदार देशों के राजनीतिक-सैन्य नेतृत्व को प्रभावित करने में भी जुटा है। इस पर बीजिंग का यही कहना है कि चीनी नौसेना की बढ़ती ताकत शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही है जिसका एकमेव मकसद अपने क्षेत्रीय व्यापारिक हितों को रक्षा करना है, लेकिन चीनी गतिविधियों ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

इसके साथ ही चीन कूटनयिक एवं मीडिया सूत्रों के माध्यम से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपीईसी और क्षेत्रीय सहयोग के लिए बांग्लादेश-चीन-भारत-म्यांमार (बीसीआईएम) से जुड़ने के लिए भारत को लुभाने की भी यदा-कदा कोशिशें भी करता है, क्योंकि केवल भारत के पास ही वह क्षमता है जो इस क्षेत्र में चीनी जहाजों के बेड़े को अपने दखल से प्रभावित कर सकता है। साथ ही साथ चीनी सरकारी मीडिया भी गाहे-बगाहे भारत को धमकाता रहता है कि अगर भारत ने दक्षिण एशियाई देशों के साथ चीन के संबंधों में दखल दिया तो बीजिंग इस पर पलटवार जरूर करेगा। उसका आरोप है कि भारत दक्षिण एशिया और हिंद महासागर को अपनी थाती समझता है और भारत-पाकिस्तान संबंधों में तनाव से इस क्षेत्र में चीनी परियोजनाएं प्रभावित नहीं होनी चाहिए। चीन का कहना है कि हिंद महासागर भारत का नहीं है तो भारत भी इस पर यही जवाब देता है कि दक्षिण चीन सागर भी चीन की बपौती नहीं। हालांकि भारत के खिलाफ चक्रव्यूह तैयार करने के लिए बीजिंग बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहा रहा है।

भारत ने भी चीन की इस चाल का कुशलता से जवाब दिया है। चीन की 14 देशों के साथ कुल 22,147 किलोमीटर लंबी सीमा है और आठ देश उसके सामुद्रिक पड़ोसी हैं। इनमें पाकिस्तान को छोड़कर अधिकांश देशों के साथ उसके रिश्ते असहज हैं। फिर जापान, ताइवान, फिलीपींस और वियतनाम के साथ जमीन एवं समुद्री सीमा विवाद भी हैं। आसियान देश भी चीनी प्रभुत्व को लेकर खासे खिन्न् हैं। वहीं भारत ने चीन के पड़ोसियों विशेषकर दक्षिण कोरिया, जापान, ताइवान, म्यांमार, लाओस और वियतनाम से रणनीतिक गठजोड़ कर अपनी स्थिति बेहतर की है। चीन की काट निकालने के लिए इस साल गणतंत्र दिवस पर आसियान नेताओं को बुलाना मोदी की दक्षिण-पूर्व एशियाई नीति का अहम हिस्सा था। भारत और वियतनाम की रणनीतिक साझेदारी तेजी से परवान चढ़ी है। इस प्रकार चीन को काबू में रखने की मोदी की रणनीति काफी हद तक कारगर होती दिख रही है।

वहीं अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भी चतुष्कोणीय साझेदारी की बात निर्णायक पड़ाव पर है। चीन के करीबी पाकिस्तान को अलग-थलग करने की भारतीय रणनीति भी रंग ला रही है। मोदी की विदेश नीति बहुत ही व्यावहारिक है। उन्होंने दुनिया के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ आत्मीय रिश्ते बनाए हैं। ओबोर के जवाब में कहीं अधिक लोकहितैषी एशिया-अफ्रीका वृद्धि गलियारा और बीजिंग के बीसीआईएम के जवाब में बिम्सेटक को कूटनीति का मास्टरस्ट्रोक कहा जा सकता है। इसराइल और अरब देशों में सऊदी अरब एवं ईरान के साथ बराबर संतुलन से रिश्ते साधे जा रहे हैं। स्टॉकहोम में सफलतापूर्वक नॉर्डिक सम्मेलन संपन्न् हुआ।

रूस और अमेरिका की तनातनी में भी अपने हित सुरक्षित रखे। अपनी इन खूबियों के चलते ही मोदी अधिकांश विश्व नेताओं को लुभाते हैं। उन्होंने डोकलाम सैन्य गतिरोधको भी बखूबी संभाला, मालाबार युद्धाभ्यास भी सही दिशा में आगे बढ़ा, वायुसेना के हालिया युद्धाभ्यास ‘गगन शक्ति में आसमान में हमारी मारक शक्ति का प्रदर्शन हुआ। भारत-तिब्बत सीमा पर सुरक्षाबलों की समुचित तैनाती और उत्तरी सीमा पर सेना और उसके साजोसामान को समुन्न्त बनाने के साथ ही अत्याधुनिक हथियारों की खरीद ने भी चीन को भारत के बढ़ते कद का एहसास कराया है कि उसकी सैन्य शक्ति की और ज्यादा अनदेखी नहीं की जा सकती।

फिर मौजूदा भू-राजनीतिक कारकों की बारी आती है। चीन के साथ ट्रेड वार पर आमादा अमेरिकी राष्ट्रपति को देखते हुए भी चीन को भारत के साथ की अहमियत मालूम पड़ी होगी। यही वे कारण हैं, जिनको ध्यान में रखते हुए जिनपिंग ने मोदी को दो दिन की अनौपचारिक वार्ता के लिए वुहान आमंत्रित किया। वुहान में कोई औपचारिक एजेंडा भले ही नहीं था, लेकिन इसने भविष्य के लिए जरूर कुछ मुद्दे तय कर दिए हैं। दोनों नेता अपनी सेनाओं के बीच बेहतर संवाद पर सहमत हुए हैं, ताकि सीमा पर हालात सहज रहें। सीमा विवाद के मामले में उन्होंने विशेष प्रतिनिधियों पर भरोसा जताया है जो उचित, पारदर्शी और परस्पर स्वीकार्य समझौते को आकार देंगे। इस बीच सरहद पर शांति के महत्व को भी भलीभांति समझा गया है।

चीनी मीडिया इस पर खासा उत्साहित जरूर रहा, लेकिन बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद अभी भी कुछ पेंच फंसे हुए हैं। मसलन सीमा विवाद, हिंद महासागर में धींगामुश्ती और जिनपिंग की महत्वाकांक्षी परियोजना ओबोर पर आपत्ति जैसे मसलों पर तनातनी का भाव है। मोदी ने संकेत दिए हैं कि सीपीईसी को लेकर भारत की आपत्ति यही है कि वह कश्मीर के विवादित क्षेत्र से गुजर रहा है। पाकिस्तानी आतंकियों को चीन की शह पर भी नई दिल्ली नाराज है। वहीं अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत की चौकड़ी पर भी चीन अपनी चिंता जाहिर कर चुका है। दलाई लामा और अन्य निर्वासित तिब्बती नेताओं की भारत में मौजूदगी पर भी चीन आशंकित है।

वुहान से भले ही कोई प्रत्यक्ष परिणाम न निकला हो, लेकिन एक बात स्पष्ट है कि यह सम्मेलन विश्व स्तर पर भारत की धमक का मंच बना, जहां चीन ने भी इस पहलू को विनम्रता के साथ स्वीकार किया।

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