(डॉ. ऋतु सारस्वत)

आमतौर पर विश्व मानस पटल में भारत की छवि एक खुशहाल देश की है, लेकिन सच इस छवि को नकारता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक भारत छत्तीस प्रतिशत की अवसाद दर के साथ विश्व के सर्वाधिक अवसादग्रस्त देशों में एक है। उससे भी पीड़ाजनक पहलू मानव संसाधन के वे आंकड़े हैं जो यह बताते हैं कि हर चार में से एक महिला इस बीमारी से पीड़ित है। दोयम दर्जे की नागरिकता देश की आधी आबादी का सच है जिसे चंद सफल महिलाओं की तालियों की गड़गड़ाहट से छुपाया नहीं जा सकता। 1दरअसल महिलाएं परिवार की वह आधार स्तंभ तो हैं जिनके प्रेम, त्याग और समर्पण से घर का प्रत्येक सदस्य बंधा रहता है, परन्तु संपूर्ण परिवार उस आधार स्तंभ को इसीलिए अस्वीकार कर देते हैं क्योंकि, स्त्री का अस्तित्व उनके लिए मायने ही नहीं रखता और यही कारण है उसकी शारीरिक एवं मानसिक पीड़ाएं उपहास मात्र बनकर रह जाती हैं। भौतिक सुविधाओं को हासिल करने की लालसा में कथित आधुनिक परिवारों ने स्त्री के कंधों पर घर की चारदीवारी से बाहर निकल ‘अर्थ’ अर्जन का बोझ तो डाल दिया, लेकिन घर के दायित्वों को साझा करने कोवे अपने संस्कारों के खिलाफ मानना नहीं भूले।

ओईसीडी के मुताबिक भारतीय पुरुष प्रतिदिन 19 मिनट ही घरेलू काम करते हैं जबकि स्लोवेनिया में यह 144 मिनट और अमेरिका में 82 मिनट है। घर और बाहर की जिम्मेदारियों का दोहरा दबाव भारतीय स्त्री को धीरे धीरे तनावग्रस्त बनाता जा रहा है और इस स्थिति को किसी से न कह पाने की स्थिति का परिणाम वह अवसाद है, जिसका शिकार देश की हर चौथी महिला है। एक अहम पहलू यह भी है कि वह स्त्रियां जो प्रत्यक्ष अर्थार्जन से नहीं जुड़ी हैं, उनके प्रति अवहेलना, उनके घरेलू श्रम को मान न देना, उनके भीतर ग्लानि की भावना का जन्म देता है जो अवसाद का प्रथम चरण है। बात सिर्फ भारतीय स्त्रियों तक ही सीमित नहीं है। यह किशोरों से लेकर वृद्धों तक की समस्या है। इस समस्या के गहन विश्लेषण की आवश्यकता है।

विश्वभर में 13 से 44 वर्ष के आयुवर्ग में अवसाद जीवनकाल घटाने वाला दूसरा सबसे कारण है और लोगों में विकलांगता पैदा करने वाला चौथा बड़ा कारण है। अगर लोग इसी गति से इस बीमारी से पीड़ित होते रहे तो 2020 तक यह विकलांगता की दूसरी सबसे बड़ी वजह बन सकती है।

डब्ल्यूएचओ के अनुसार विश्व में हर वर्ष तकरीबन दस लाख लोग आत्महत्या करते हैं जिनमें बड़ी संख्या इस बीमारी के शिकार लोगों की होती है। आखिर यह अवसाद क्यों? यह सर्वविदित सत्य है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, लेकिन विगत दशकों में उसने अपनी मूलभूत विशेषता को खो दिया और जिसकी परिणति अवसाद है। पिछले दो दशकों में भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में आमूलचूल परिवर्तन आया है। भौतिकवादी संस्कृति ने बड़े ही तेजी से अपने पांव जमाए हैं। सफलता के मायने बदल चुके हैं। रिश्तों की जगह पैसों ने ले ली है। कम समय में अधिक से अधिक आर्थिक सुदृढ़ता पाने के लिए समाज का हर तबका दिन-रात की सीमाओं को लांघते हुए काम में जुटा है। यहां तक कि उसके पास स्वयं के लिए भी समय नहीं बचा है। गलाकाट प्रतियोगिता और असीम महत्त्वाकांक्षाओं के बीच हर व्यक्ति, निरंतर तनाव की स्थिति में जीता है और उसका यह संघर्ष इसलिए और पीड़ादायक हो जाता कि उसे यह समझ नहीं आता कि किसे वह अपना दोस्त माने, किस पर विश्वास करे और यह डर उसे ‘अकेला’ कर देता है। इंडियन साइक्रियाट्रिक सोसायटी की वार्षिक रिपोर्ट कहती है कि ‘एकांत’ अवसाद का प्रमुख कारण है। मनुष्यता, अपनापन और सहानुभूति जैसे मनोभावों को कथित आधुनिक समाज ने स्क्रैप कह कर नकार दिया है। परन्तु मनुष्य-अनुकूल प्रवृत्तियों को नकारना, व्यक्ति की उपलब्धि कतई नहीं हो सकती। हो सकता है ‘सामाजिक सहभागिता’ फौरी तौर पर समय की बर्बादी नजर आए। मगर अपनों का ख्याल रखना, उनके दुख-सुख में शामिल होना, जितना समाज और परिवार के लिए जरूरी है उतना ही स्वयं के लिए क्योंकि जीवन के उस मोड़ पर जब शरीर थकने लगता है तो अपनों का प्यार, राहत और सुरक्षा दोनों देता है।

दो राय नहीं है कि ‘पद’ और ‘प्रतिष्ठा’ सफल व्यक्ति की पहचान के साथ जुड़े हैं, पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि सफल व्यक्ति को सामाजिक और मानवीय गुणों को तज देना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो वह बिल्कुल ‘अकेला’ रह जाएगा और यही अकेलापन ‘अवसाद’ की ओर पहला कदम है। हमारा सांस्कृतिक ढांचा ऐसा है कि आज भी आम व्यक्ति अवसाद को रोग मानने को तैयार नहीं है और यही कारण है कि चिकित्सकीय सहायता की पहल नहीं की जाती है। इसका यह भी है कि अन्य बीमारियों की तरह अवसाद के लक्षण शारीरिक रूप से नहीं दिखते बल्कि मनोवैज्ञानिक या मानसिक स्थितियों के रूप में व्यक्त होते हैं जिन्हें आमतौर पर पीड़ित व्यक्ति का स्वभाव या उसकी परिस्थितियों का परिणाम मान लिया जाता है। यह जरूरी हो जाता है कि हर व्यक्ति आत्ममंथन करे क्योंकि इससे ही पता लग सकता है कि तनाव हम पर हावी हो रहा है या नहीं। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी अस्सी प्रतिशत परेशानियों को बिना इलाज के ही किया जा सकता है। दिल्ली साइकेट्री एसोसिएशन के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चुनौतियां बढ़ी हैं। बढ़ते मानसिक मरीजों की अपेक्षा देश भर में कुल 84 सरकारी मानसिक अस्पताल हैं जो कि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिहाज से बहुत कम हैं। यह बेहद जरूरी हो गया है कि समाज यह चिंतन करे कि वह किस दिशा की ओर जा रहा है और उसकी कितनी घातक परिणति हमारे सामने आ रही है। यह भी जरूरी है कि अवसाद एवं इसके लक्षणों को लेकर व्यापक जागरूकता लाई जाए।(DJ)
(लेखिका अजमेर में समाजशास्त्र की प्राध्यापक हैं)

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