🗞कृषि का वाणिज्यीकरण बढऩे और बाजार के समय के साथ नहीं बदल पाने के कारण किसानों की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।

देश में कृषि क्षेत्र की वृद्घि दर पर इस क्षेत्र की कारोबारी स्थितियों का गहरा प्रभाव है। इस बात के प्रमाण हैं कि जब कृषि जिंसों की आरंभिक कीमतों में उतार-चढ़ाव रहा है, कृषि उत्पादन में खूब इजाफा हुआ है। देश में कृषि वृद्घि की मूल्य पर निर्भरता इसलिए है क्योंकि गैर मूल्य कारक और प्रौद्योगिकी प्रभाव नहीं डाल पा रहे। जब तक ये कारक वृद्घि के वाहक नहीं बनते, तब तक हमें उत्पादन और कृषि आय में वृद्घि के लिए मूल्य को ही कारक बनाए रखना होगा। ऐसे में अगर बाजार प्रतिस्पर्धी नहीं हैं और साल दर साल उत्पादन बढ़ता है तो सरकार की मदद आवश्यक है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एक अहम सरकारी हस्तक्षेप है। जिसकी मदद से कृषि उपज का मूल्य बेहतर किया जाता है। यह व्यवस्था सन 1965 में विकसित की गई थी ताकि देश में खाद्यान्न की कमी दूर की जा सके। शुरुआत में केवल धान और गेहूं के लिए एमएसपी घोषित किया गया ताकि उत्पादकों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जा सके। हरित क्रांति के तहत यह अन्न उत्पादन सरकारी खरीद की उपलब्धता सुनिश्चित करने के क्रम में किया जा रहा था। बाद में अन्य फसलों को भी इसमें शामिल किया गया और फिलहाल 23 फसलों पर एमएसपी दिया जाता है। इसमें कपास, जूट, तिलहन, दालें और प्रमुख खाद्यान्न शामिल हैं। बहरहाल, अन्य फसलों के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं बन सका और एमएसपी का प्रभाव गेहूं, चावल और कपास तक सीमित रहा। वह भी उन राज्यों में जहां सरकारी एजेंसियां इन्हें खरीदती हैं।

आंकड़ों से पता चलता है कि देश के विभिन्न इलाकों में कई कृषि जिंसों की किसान को मिलने वाली कीमत अक्सर एमएसपी से कम रहती है। एमएसपी को लेकर जागरूकता बढऩे के साथ कई किसानों ने इसकी मांग शुरू कर दी। खेती के बढ़ते वाणिज्यीकरण और बाजार में बदलाव की कमी ने किसानों को कम कीमत से बचाव की मांग पर मजबूर किया। वर्ष 2016-17 के बंपर उत्पादन के बाद फसल कीमतों में एक बार फिर गिरावट आई और इस साल भी ऐसा ही होने की उम्मीद है। यही वजह है कि अब हर फसल के लिए एमएसपी की मांग उठ रही है। यह मांग दो वजहों से उचित है। पहली, एमएसपी की अधिसूचना सरकार जारी करती है इसलिए उसे उसका मान रखना होता है और दूसरा कृषि मूल्य एवं लागत आयोग एमएसपी की घोषणा करते वक्त जिन संदर्भों का ध्यान रखता है वे आर्थिक और तकनीकी रूप से तार्किक होते हैं। एमएसपी को लेकर कोई भ्रम नहीं है लेकिन यह तय होना चाहिए कि एमएसपी का सम्मान हो, केंद्र और राज्य मूल्य गारंटी तय करने की दिशा में काम करें और राजकोषीय तथा बाजार प्रभावों का ध्यान रखा जाए।

सरकार द्वारा एमएसपी पर की जाने वाली खरीद के अलावा कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय भी दो अन्य योजनाएं चलाता हैं। इसमें चावल, गेहूं और कपास के अलावा अन्य एमएसपी फसलों के लिए मूल्य समर्थन योजना तथा गैर एमएसपी फसलों के लिए बाजार हस्तक्षेप की नीति। ये योजनाएं राज्यों द्वारा केंद्र के साथ लागत साझेदारी के आधार पर चलनी होती हैं। इसी तरह कई तरह की खरीद मूल्य स्थिरीकरण फंड और उपभोक्ता मामलों के विभाग के बफर स्टॉक योजना के तहत की जाती है। इन योजनाओं का दायरा सीमित है। किसानों को मिलने वाली कम कीमत की समस्या को दूर करने के लिए कृषि एवं किसान विकास मंत्रालय ने मार्केट एश्योरेंस स्कीम नामक योजना तैयार की। इसमें सुझाव दिया गया कि गेहूं और चावल के अलावा एमएसपी में अधिसूचित अन्य फसलों की विकेंद्रीकृत खरीद की जाए। यह काम राज्यों के जिम्मे छोड़ दिया जाए। केंद्र सरकार उन्हें होने वाले किसी भी नुकसान की भरपाई करे। यह खरीदी गई जिंस के एमएसपी के 40 फीसदी तक होगा। इसमें हर तरह का व्यय, भंडारण व्यय तथा होने वाला कोई भी नुकसान शामिल है।

सरकारी खरीद को एमएसपी लागू करने के तरीके के रूप में प्रयोग में लाना महंगा है। इसका एक अहम विकल्प यह है कि मूल्य में नुकसान की भरपाई कर दी जाए। इस व्यवस्था में जब भी तयशुदा मंडी में किसान को मिलने वाली वास्तविक कीमत तय एमएसपी से कम हो तो सरकार उन्हें इस अंतर की भरपाई कर सकती है। मध्य प्रदेश सरकार ने भावांतर भुगतान योजना नाम से इसकी शुरुआत की है। किसानों को एमएसपी और औसत आदर्श मूल्य के बीच का अंतर भुगतान किया जा रहा है। यह औसत बाजार मूल्य मध्य प्रदेश तथा दो पड़ोसी राज्यों में उपज की औसत कीमत के आधार पर निकाला जा रहा है। यह योजना आकर्षक प्रतीत होती है और इसमें आगे और सुधार करके इसे विभिन्न राज्यों और विशिष्टï फसलों के अनुरूप बनाया जा सकता है। हरियाणा सरकार ने पहले ही एमएसपी से आगे चार सब्जियों आलू, प्याज, टमाटर और गोभी के लिए इस वर्ष मूल्य में कमी के भुगतान की योजना प्रस्तुत कर दी है। देश के कृषि क्षेत्र की व्यापकता और फसलों की विविधता को

देखते हुए केंद्र अकेले सभी प्रमुख फसलों के लिए मूल्य गारंटी सुनिश्चित नहीं कर सकता। ऐसे में केंद्र और राज्य दोनों की ओर से सक्रिय हस्तक्षेप की आवश्यकता है ताकि किसानों को कम कीमत और उसकी वजह से उपजी निराशा से उबारा जा सके। केंद्र को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वह गेहूं और धान की एमएसपी पूरे देश में तय करे। ऐसा इसलिए क्योंकि ये फसलें खाद्य सुरक्षा की दृष्टिï से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। देश की कुल फसलों के रकबे में 37 फीसदी के साथ ये फसले शीर्ष पर हैं। राज्यों को चाहिए कि वे शेष फसलों के लिए मूल्य गारंटी योजना को लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाएं। वे इसकी लागत को केंद्र के साथ साझा कर सकते हैं।

राज्य सरकारों को या तो केंद्र की मार्केट एश्योरेंस योजना अपनानी चाहिए या फिर मध्य प्रदेश और हरियाणा की मूल्य अंतर भुगतान योजना को अपनाना चाहिए ताकि किसानों को अपनी फसल की वाजिब कीमत तो मिल सके। जिन फसलों को अहम माना जाता है उनके लिए यह योजना लाई जानी चाहिए। ऐसा करने से किसानों को अपनी उपज की कम कीमत मिलने से जो निराशा हो रही है वे उससे निजात पा जाएंगे। इसका उत्पादन वृद्घि पर भी सकारात्मक असर होगा। किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाने में सबसे अहम भूमिका प्रतिस्पर्धी बाजार की है। इसके लिए सभी राज्यों को बाजार सुधारों को अपनाना चाहिए। इस संबंध में राज्य केंद्र शासित प्रदेश कृषि उपज और पशुधन विपणन (संवद्र्घन एवं सुविधा) अधिनियम 2017 में सुझाया भी जा चुका है।

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