*कुपोषण के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन*

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के 2015-2016 और 2005-06 के तीसरे और चौथे चक्र से प्राप्त आँकड़ों का उपयोग करते हुए पाँच साल से कम उम्र के बच्चों के लिये पोषण संकेतकों के बीच किया गया तुलनात्मक  अध्ययन यह दर्शाता है कि-
♦ भले ही स्टंटिंग की दर 46.3% से घटकर 34.4% हो गई है लेकिन वेस्टिंग की दर 16.5% से बढ़कर 25.6% हो गई है।
♦ इसके अलावा, पिछले 10 वर्षों में सामान्य से कम वज़न (underweight) की दर 36%  पर स्थिर रही है।
♦ यह दुनिया के कुछ सबसे गरीब देशों- बांग्लादेश (33%), अफगानिस्तान (25%) या मोजाम्बिक (15%) की तुलना में भारत की ख़राब स्थिति को दर्शाता है।
♦ कुपोषण का यह स्तर जनसंख्या के सबसे गरीब वर्ग को समान रूप से प्रभावित करता है।
NHFS 2015-16 के अनुसार, जनजातीय क्षेत्रों में प्रत्येक दूसरे बच्चे का विकास अवरोधित होने का कारण लम्बे समय तक भूखे रहने से उत्पन्न कुपोषण की समस्या है। वर्ष 2005 में  महाराष्ट्र के केवल पालघर ज़िले में ही 718 बच्चे कुपोषण से ग्रस्त थे। पालघर में कुपोषण की स्थिति में नाममात्र का सुधार हुआ है।
स्टंटिंग तथा वेस्टिंग

स्टंटिंग
स्टंटिंग या उम्र के अनुसार कम ऊँचाई भोजन में लंबे समय तक आवश्यक पोषक तत्त्वों की कमी और बार-बार होने वाले संक्रमण के कारण होती है।
स्टंटिंग आमतौर पर दो साल की उम्र से पहले होती है  और इसके प्रभाव काफी हद तक अपरिवर्तनीय होते हैं।
इसके कारण बच्चों का विकास देर से होता है, बच्चे संज्ञानात्मक कार्य में अक्षम होते है और स्कूल में उनका प्रदर्शन खराब होता है।
विकासशील देशों में पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों में से लगभग एक-तिहाई बच्चे स्टंटिंग से ग्रस्त हैं।
वेस्टिंग

वेस्टिंग या उम्र के अनुसार कम वज़न पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर का एक प्रमुख कारक है।
यह आमतौर पर महत्त्वप

ूर्ण खाद्य में कमी और/या किसी घातक बीमारी का परिणाम होता है।
24 विकासशील देशों में वेस्टिंग की दर 10 प्रतिशत या उससे अधिक है जो एक गंभीर समस्या की ओर इशारा करती है तथा इसके खिलाफ तुरंत कार्रवाई की आवश्यकता को दर्शाती है।
(टीम दृष्टि इनपुट)

स्वतंत्र सर्वेक्षण से प्राप्त परिणाम

सितंबर 2016 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पालघर में कुपोषण के कारण मरने वाले 600 बच्चों की रिपोर्ट पर महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी किया था। जिसके फल्स्वरूप सरकार ने कुपोषण की जाँच के लिये जच्चा-बच्चा और एकीकृत बाल विकास सेवाओं जैसी योजनाओं को सही ढंग से
न्वित करने का वादा किया।
पिछले साल ज़िले के विक्रमगढ़ ब्लॉक में किये गए स्वतंत्र सर्वेक्षण में पाया गया कि इस ब्लॉक में 57% बच्चे स्टंटिंग, 21%  वेस्टिंग और 53% बच्चे सामान्य से कम वज़न वाले थे, इनमें से 27%  स्टंटिंग से गंभीर रूप से ग्रस्त थे।
इसके बावजूद विधान परिषद में महाराष्ट्र की महिला एवं बाल विकास मंत्री ने दावा किया कि सरकार द्वारा किये गए विभिन्न प्रयासों के कारण पिछले कुछ महीनों में पालघर में कुपोषण का स्तर कम हो गया।

आहार विविधता में कमी का कारण, प्रभाब और निवारण

आमतौर पर यह माना जाता है कि मंद विकास में वृद्धि केवल तभी संभव है जब प्रभावित बच्चे को वे आहार दिये जाते हैं जो आवश्यक पोषक तत्त्वों से पूर्ण हों। स्टंटिंग आहार विविधता में कमी के कारण उत्पन्न होने वाली प्रमुख समस्याओं में से एक है।
पोषक तत्त्वों की पर्याप्तता का एक महत्त्वपूर्ण पहलू आहार विविधता है जिसका निर्धारण एक से 15 दिनों तक की अवधि के दौरान उपभोग किये गए खाद्य पदार्थों के विभिन्न समूहों की गणना करके किया जाता है।

इस अध्ययन में बच्चे को पिछले 24 घंटों में प्राप्त खाद्य समूहों की संख्या की गणना करके 24 घंटे के दौरान आहार विविधता स्कोर की गणना की गई।

अध्ययन में पाया गया कि 26%  बच्चों का आहार विविधता स्कोर 2 तथा 57% बच्चों का आहार विविधता स्कोर 3 था इसका तात्पर्य यह है कि 83% बच्चों को आठ खाद्य समूहों में से केवल दो/तीन प्रकार के भोजन प्राप्त हुए थे।
ज्यादातर घरों में चावल और दाल ही अक्सर पकाया जाता था और एक दिन में तीन बार खाया जाता था। यहाँ तक कि बच्चों को भूख लगने पर चाय-काल के दौरान भी चावल खाने को दिया गया। उनके दैनिक भोजन में दूध, किसी प्रकार का दुग्ध उत्पाद या फल शामिल नहीं था। केवल 17% बच्चों ने आहार विविधता का न्यूनतम स्तर हासिल किया। उन्हें आठ खाद्य समूहों में से चार या उससे अधिक प्रकार के भोजन प्राप्त हुए।

क्यों उत्पन्न होती है इस प्रकार की विकट समस्या?

आदिवासी परिवारों में इस तरह की विकट खाद्य असुरक्षा वन आजीविका पर उनकी पारंपरिक निर्भरता में कमी और राज्य में गहन कृषि संकट के कारण उत्पन्न होती है।
इसके अलावा, व्यवस्थित मुद्दों और सार्वजनिक पोषण कार्यक्रमों की कमज़ोरी ने समस्या को और अधिक संगीन बना दिया है। उदाहरण के लिये, विक्रमगढ़ (पालघर) में 20% जनजातीय परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत राशन नहीं मिला क्योंकि उनके पास राशन कार्ड नहीं था।
राज्यों के बजट का विश्लेषण

राज्य के बजट के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि राज्य के बजट में पोषण व्यय 2012-13 में 1.68% से घटकर 2018-19 में 0.94% हो गया है, जो पोषण के प्रति सरकार की तेज़ी से कम होती प्रतिबद्धता का सूचक है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सर्वेक्षण आँकड़े यह दर्शाते हैं कि पोषण योजनाओं ने कोई भी वांछित प्रभाव नहीं डाला है।

 

कैसे हो कुपोषण की समस्या का समाधान

कुपोषण और गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कुपोषण की समस्या सबसे अधिक वहीं पाई जाती है जहाँ निर्धनता विद्यमान है। सरकारें विभिन्न कार्यक्रमों के ज़रिये कुपोषण से लड़ने का प्रयास करती हैं और इसी क्रम में बच्चों को आवश्यक पोषक तत्त्व उपलब्ध कराए जाते हैं।

“खाद्य किलेबंदी” (food fortification) के माध्यम से आवश्यक पोषक तत्त्व बच्चों के भोजन तक पहुँचाए जाते हैं लेकिन यह खाद्य किलेबंदी कुछ प्रचलित खाद्य-वस्तुओं के लिये ही की जाती है। यदि यह खाद्य किलेबंदी दूध, वनस्पति तेल, आटा और चीनी के लिये भी की जाए तो कुपोषण की समस्या को दूर करने की पहल में उल्लेखनीय प्रगति की जा सकती है।
भारत सरकार द्वारा किये गए प्रयास
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा बच्चों के पोषण के लिये मानक तय करते हुए कई योजनाएँ बनाई गई हैं।

शिशुओ और छोटे बच्चों के पोषण (फीडिंग) के संबंध में राष्ट्रीय मार्गदर्शी सिद्धांत: इन मार्गदर्शी सिद्धांतों द्वारा स्तनपान के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया है।
राष्ट्रीय पोषण नीति: इस नीति को महिला व बाल विकास विभाग के तत्त्वावधान में भारत सरकार द्वारा 1993 में अंगीकार किया गया था। इसके द्वारा कुपोषण मिटाने और सबके लिये इष्टतम पोषण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये बहु-सेक्टर संबंधी योजना

की वकालत की गई। यह योजना देश भर में पोषण के स्तर की निगरानी करने तथा अच्छे पोषण की आवश्यकता व कुपोषण रोकने की जरुरत के संबंध में सरकारी मशीनरी को सुग्राही बनाने की वकालत करती है। राष्ट्रीय पोषण नीति में आहार व पोषण बोर्ड भी सम्मिलित है, जिसके द्वारा स्तनपान व पूरक फीडिंग के संबंध में सही तथ्यों का प्रसार करने के लिये पोस्टर, श्रव्य तुकबंदी या संदेश (ओडियो जिग्गल्स) और वीडियो स्पॉट्स विकसित किये जाते हैं।
समन्वित बाल विकास सेवा योजना: यह पूरे देश में व कदाचित विश्वभर में बाल विकास के संबंध में, अत्यधिक व्यापक योजनाओं में से एक है। बच्चों के संबंध में राष्ट्रीय नीति के अनुसरण में महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा इस योजना को 1975 से चलाया जा रहा है। इसका उद्देश्य स्कूल जाने से पहले बच्चों के लिये एकीकृत रूप से सेवाएँ उपलब्ध कराना है, ताकि ग्रामीण, आदिवासी और झुग्गी वाले क्षेत्रों में बच्चों की उचित वृद्धि और विकास सुनिश्चित किया जा सके। इस केंद्रीय रूप से प्रायोजित योजना द्वारा बच्चों के पोषण की निगरानी भी की जाती है।

उदिशा: उदिशा का अर्थ होता है नए भोर की पहली किरण। यह विश्व बैंक से सहायता प्राप्त महिला व बाल विकास परियोजना है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य देश भर में बाल देखभाल करने वाले कार्यकर्त्ताओं को प्रशिक्षित करना है।
बच्चों के लिये राष्ट्रीय नीति: इसके द्वारा यह निर्धारित किया गया हैकि राज्य द्वारा, बच्चों के पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक विकास के लिये उनके जन्म पूर्व व जन्म के पश्चात् (दोनों) और विकास की अवस्थाओं में पर्याप्त सेवाएँ उपलब्ध कराई जाएंगी।
बच्चों के लिये राष्ट्रीय घोषणा पत्र: इसके अनुसार बच्चों के जीवित रहने, स्वास्थ्य और पोषण, जीवन स्तर, खेल और अवकाश, प्रारंभिक बचपन की देखभाल, शिक्षा, बालिकाओं की सुरक्षा, किशोरों को अधिकार संपन्न बनाना, गुणवत्तापूर्ण जीवन और स्वतंत्रता, नाम व राष्ट्रीयता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, साझेदारी (एसोसिएशन) व शांतिपूर्ण एकत्रीकरण और आर्थिक शोषण व सभी प्रकार के दुर्व्यवहार से रक्षा के अधिकार के प्रति भारत सरकार की प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया गया है।
बच्चों के लिये कार्यवाही की राष्ट्रीय योजना: इस योजना में बच्चों के पोषण स्तर को सुधारने, नवजात शिशुओं की मृत्युदर में कमी लाने, पंजीयन अनुपात में वृद्धि, स्कूली शिक्षा को बीच में छोड़ने (ड्राप आउट) की दर में कमी, प्रारंभिक शिक्षा को व्यापक स्तर पर लागू करने और प्रतिरक्षण क्षेत्र में विस्तार के लक्ष्य, उद्देश्य, योजनाएँ व गतिविधियाँ सम्मिलित हैं।

भारतीय संविधान और कुपोषण

यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 21 और 47 भारत सरकार को सभी नागरिकों के लिये पर्याप्त भोजन के साथ एक सम्मानित जीवन सुनिश्चित करने हेतु उचित उपाय करने के लिये बाध्य करते हैं।
फिर भी भारतीय संविधान में भोजन के अधिकार को “मौलिक अधिकार” के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है।
अनुच्छेद 47 में कहा गया है कि ‘राज्य का यह कर्तव्य है कि वह लोगों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को बढ़ाने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुधारने के लिये निरंतर प्रयास करे’।
जबकि अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन अथवा निजी स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।
अतः संविधान के मूल अधिकारों से संबंधित प्रावधानों में अप्रत्यक्ष जबकि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों से संबंधित प्रावधानों में प्रत्यक्ष रूप से कुपोषण को खत्म करने की बात की गई है।
आगे की राह

निष्कर्ष

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भोजन में पोषक तत्त्वों की कमी कुपोषण का सबसे प्रमुख कारण है लेकिन समाज के एक बड़े हिस्से में इस संबंध में जागरूकता की अत्यंत कमी और साफ-सफाई का अभाव जैसे अन्य कई कारण हैं जिन्हें कुपोषण के लिये ज़िम्मेदार माना जा सकता है।
बच्चों  में कुपोषण की इस समस्या का समाधान करना अति आवश्यक है। इसके लिये एक खाद्य और पोषण आयोग की स्थापना, सम्पूर्ण देश में पोषण के स्तर को बढ़ाए जाने की ज़रूरत जैसी बातों पर भी ध्यान देना चाहिये।
समय आ गया है कि सरकार इस मुद्दे के मूल कारण की पहचान करे और कुपोषण से निपटने के लिये एक स्थायी समाधान की खोज करे। यह तभी संभव है जब राज्य हाशिये पर जीवन जी रहे लोगों के लिये रोज़गार के अवसर पैदा करके समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करेगा जो उनकी क्रय शक्ति में सुधार के साथ-साथ कुपोषण को कम करने में मददगार साबित होगा।
प्रश्न: भारत में कुपोषण के बढ़ते प्रभावों का मूल्यांकन करते हुए कुपोषण की समस्या को नियंत्रित करने के लिये सरकार द्वारा किये गए प्रयासों की समीक्षा कीजिये?
इस विषय पर अधिक जानकारी के लिये और पढ़ें:

⇒ राष्ट्रीय पोषण मिशन और ‘कुपोषण’ की समस्या
⇒ सामाजिक आर्थिक असमानता और कुपोषण
⇒ कुपोषण से निपटने के लिये फूड-फोर्टीफिकेशन
⇒ राष्ट्रीय पोषण रणनीति
⇒ राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरुआत

स्रोत : द हिंदू एवं

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