कृषि क्षेत्र में अगर निजी निवेश को लाया जा सके तो इससे इस क्षेत्र के विकास में काफी मदद मिल सकती है।

रमेश चंद , (लेखक नीति आयोग और 15वें वित्त आयोग के सदस्य हैं।)

एक ओर जहां सरकार ने अगले छह वर्ष में किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य तय किया है, वहीं देश में कृषि क्षेत्र विभिन्न प्रकार की चुनौतियों से जूझ रहा है। नीति आयोग ने किसानों की आय दोगुनी करने के लिए जो खाका तैयार किया है उसमें उत्पादकता, कृषि क्षेत्र के कच्चे माल के प्रयोग और परिचालन में 16.7 फीसदी की बढ़ोतरी, उच्च मूल्य वाली फसलों की ओर ध्यान देने और सन 2015-16 को आधार मानते हुए सन 2022-23 तक किसानों को मिलने वाले मूल्य में 9 फीसदी तक के सुधार की बात शामिल है। किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य की राह में तीन बड़ी चुनौतियां इस प्रकार हैं: कृषि क्षेत्र में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की कमजोर स्थिति, कृषि उपज के लिए गैर किफायती और शोषण करने वाली बाजार व्यवस्था और छोटी जोत की व्यवहार्यता।हमारी कृषि उपज व्यवस्था तकनीकी नवाचार के मामले में कई देशों से दशकों पीछे है। कम उपज वाली किस्मों और पारंपरिक कृषि व्यवहार अभी भी इस क्षेत्र पर हावी है। पारंपरिक कृषि व्यवस्थाएं जिनमें बाढ़ के पानी से सिंचाई, उर्वरकों का प्रसार, कृषि रसायनों का बिना किसी भेदभाव के इस्तेमाल आदि हमारे कृषि परिदृश्य के आम दृश्य हैं। इनकी वजह से न केवल किफायत कम होती है बल्कि लागत बढ़ती है और उपज की गुणवत्ता भी कमजोर हो जाती है। इसके अलावा फसल के स्थायित्व पर भी इसका निराशाजनक असर होता है।

दूसरी बात, विपणन का परिदृश्य कुछ ऐसा है कि उपज के दिनों में कृषि जिंसों के दाम कम रहते हैं और बाद में दाम बढ़ जाते हैं। अल्पावधि में समान जिंसों की कीमतों में जहां गिरावट आती है, वहीं बाद में उनके दाम उछल जाते हैं। परिवहन और संचार तंत्र में बेहतरी के बावजूद कृषि उपज का बाजार यह दिखाता है कि उसमें एकीकरण का अभाव है। कृषि के वाणिज्यीकरण में बढ़ोतरी के साथ ही किसानों को फसल का नाम मात्र का दाम मिलने और उपभोक्ताओं द्वारा अतार्किक रूप से ज्यादा कीमत चुकाए जाने की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। तीसरा, दोतिहाई से अधिक किसान एक हेक्टेयर से कम जमीन पर खेती करते हैं। किसानों का औसत रकबा एक एकड़ से भी कम है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे बड़े राज्यों में 80-92 फीसदी तक रकबा सीमांत श्रेणी का है। इससे बेहतर उत्पादकता के बावजूद उनकी मोलभाव की क्षमता कम होती है। इन तमाम चुनौतियों से निपटने में निजी क्षेत्र अहम भूमिका निभा सकता है। बहरहाल, उसे भी कृषि क्षेत्र पर व्यापक नजर डालनी होगी। कुछ मामलों में जहां कॉर्पोरेट किसानों तक नवाचार ले जा रहा है वहां अच्छे परिणाम भी आए हैं। महाराष्ट्र के जलगांव जिले की केला क्रांति इसका उदाहरण है। वहां किसान एक निजी प्रयोगशाला द्वारा मुहैया कराए जाने वाले टिश्यू कल्चर की मदद से बीमारी रहित केलों की खेती करके अच्छी फसल और बेहतर गुणवत्ता हासिल कर रहे हैं। यह प्रयोगशाला अब उस तकनीक का इस्तेमाल अन्य राज्यों और फलों में कर रही है। ऐसे अनुभवों को अन्य फलों और सब्जियों में भी दोहराया जाना चाहिए।

हमारा देश बागवानी उत्पादन के मामले में वैश्विक स्तर पर अपनी छाप छोड़ सकता है। इसी प्रकार उपचारित बीज की मदद से भी बेहतर परिणाम हासिल किए जा सकते हैं। कई निजी उद्यमी अब संरक्षित कृषि को बढ़ावा दे रहे हैं जिससे किसानों की आय बढ़ सकती है। दूसरी बड़ी चुनौती अक्षम, बंटी हुई, पारंपरिक और प्राय: गलत विपणन नीतियों से जुड़ी है। कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) और अनिवार्य जिंस अधिनियम जैसे कानून छोटी जोत, पारंपरिक कारोबारियों और बिचौलियों के लिए अनुकूल हैं और इस व्यवस्था में नई पूंजी के आगमन को रोकने वाले हैं। जबकि नई पूंजी अपने साथ नवाचार, प्रतिस्पर्धा, ई-कॉमर्स, निवेश और मूल्य शृंखला के एकीकरण जैसी खूबियां लाती है। कुछ मामले ऐसे हैं जहां कारोबारी जगत के लोगों ने कृषि विपणन में प्रवेश किया। वहां किसानों को भारी लाभ हुआ। हिमाचल में सेब की खेती और उत्तर बिहार में मक्का इसका उदाहरण हैं।

निजी क्षेत्र छोटी जोत वाले किसानों की व्यवहार्यता और उनकी आय में इजाफा कर सकता है। विभिन्न सेवाओं की आपूर्ति, मशीनों और उपकरणों की मदद से ऐसा किया जा सकता है। बीते कुछ सालों में निजी क्षेत्र के सेवा प्रदाताओं की तादाद बढ़ी है। खासतौर पर कृषि मशीनरी को किराये पर देने की सेवाओं में। इससे लागत कम हुई है और अधिकांश किसानों की पहुंच आधुनिक और बेहतर मशीनरी तक हुई है। कई सेवा प्रदाताओं ने तो मोबाइल ऐप सेवा भी शुरू की है। अब बड़ी तादाद में किसान ‘लेजर गाइडेड लैंड लेवलिंग’ तकनीक का इस्तेमाल किराये पर कर रहे हैं। यह तकनीक सिंचाई के पानी की बचत के साथ-साथ सिंचाई की लागत, उसमें लगने वाले समय में कमी लाती है और उपज बढ़ाने में मदद करती है। निजी क्षेत्र अनुबंधित कृषि के जरिये छोटी जोत के किसानों की आय बढ़ाने में मददगार हो सकता है। छोटी जोत श्रम और निगरानी तथा समयपर आपूर्ति के लिहाज से बेहतर होती है। अगर निजी फर्म, आधुनिक रिटेलर, प्रसंस्करण करने वाले, कारोबारी आदि बेहतर बीज, तकनीकी सहायता, वित्तीय मदद आदि मुहैया कराएं और उपज का निश्चित मूल्य दिलाने की बात कहें तो यह सबके लिए लाभदायक साबित होगा। देश के हर इलाके में अनुबंधित कृषि की सफलता के समाचार मिलते हैं। परंतु अभी इसका दायरा बहुत सीमित है।

हाल के वर्षों में स्टार्टअप के आगमन के बाद कृषि में उनकी रुचि देखने को मिली है और उनको स्तरीय तकनीक और आधुनिक मूल्य शृंखला का भी लाभ हासिल है। कुछ स्टार्टअप का नेतृत्व स्तरीय उद्यमियों के हाथ में है जो देश में खेती की तस्वीर बदलना चाहते हैं। इसकी वजह से पारंपरिक कृषि में लगे कॉर्पोरेट पर भी दबाव बन रहा है कि वे अपनी नीतियों पर नए सिरे से विचार करें। कृषि क्षेत्र की बेहतर स्टार्टअप को जरूरी नीतिगत सहयोग भी दिया जाना चाहिए।केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय का वर्ष 2015-16 का आंकड़ा बताता है कि निजी कारोबारी क्षेत्र देश के कृषि क्षेत्र में सालाना बमुश्किल 2 फीसदी निवेश करता है। सरकारी क्षेत्र की हिस्सेदारी 18.6 फीसदी और शेष 79.4 फीसदी हिस्सेदारी किसान की ही रहती है। देश की अर्थव्यवस्था में अपने कुल निवेश में निजी क्षेत्र 0.43 फीसदी ही खेती और उससे जुड़ी सेवाओं में निवेश करता है। ये आंकड़े निजी क्षेत्र के कमजोर निवेश की ही कहानी बयां करते हैं। इसे बढ़ाकर कम से कम दोगुना करना होगा। आंकड़े बताते हैं कि निजी क्षेत्र कृषि में अत्यंत कम निवेश कर रहा है। किसानों की आय बढ़ाने के लिए इसे कम से कम दोगुना करना होगा। अगर निजी क्षेत्र की उचित भागीदारी हो तो भारतीय कृषि विकास के अगले चरण तक पहुंच सकती है। ऐसे में राज्यों और केंद्र दोनों को निजी क्षेत्र को कृषि के प्रति आकर्षित कराने का प्रयास जोरशोर से करना चाहिए।

 

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