*📝⚜केवल इस वजह से मोदी फिलिस्तीन दौरा करने वाले पहले भारतीय PM हैं📝⚜*

*(संजीव सिंह )*
*(NBT)*

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खाड़ी और पश्चिम एशिया का चल रहा दौरा वैसे तो उस भूभाग में उनका पांचवा है लेकिन इसके बावजूद इस दौरे को कुछ मायने में प्रथम माना जा रहा है। मोदी का यह दौरा ऐतिहासिक इसलिये माना जा रहा है क्योंकि वह फिलिस्तीन जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं। प्रधानमंत्री के वक्तव्य में भी इस बात का उल्लेख किया गया है कि यह आधिकारिक तौर पर फिलिस्तीन का इस स्तर का ऐसा पहला दौरा है। लेकिन अगर हम इतिहास के पन्नों को खंगाले तो एक बात तो साफ हो जाती है कि फिलिस्तीन का दौरा करने वाले पहले प्रधानमंत्री मोदी केवल बारीकी में बने हैं।

मोदी से पहले भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू गाजा पट्टी की सरजमीन पर अपने पांव उतार चुके थे। बात है 1960 की जब नेहरू संयुक्त राष्ट्र की सेना में शामिल भारतीय जवानों का हाल-चाल लेने आये थे। उनके इस दौरे पर विवाद भी हुआ था क्योंकि जब नेहरू संयुक्त राष्ट्र के हवाई जहाज में गाजा से बेरूट जा रहे थे तो इजरायली लड़ाकू विमानों ने कुछ समय के लिये उन्हें घेर जैसा लिया था और उनके जहाज के बहुत करीब आ गये थे। बाद में नेहरू ने इसका वृतान्त संसद में भी किया था और इजरायल को यह जानबूझ कर करने की आलोचना भी की थी। अगर ऐसा था तो आखिर क्या कारण है कि नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री नहीं बने जिन्होंने फिलिस्तीन की धरती पर कदम रखा हो?

जब नेहरू गाजा पट्टी पर आये थे तब इस इलाके पर मिस्र का नियंत्रण था। 1956 में मिस्र और ऐंग्लो-फ्रेंच सेनाओं के बीच स्वेज नहर क्षेत्र पर कब्जे के लिये युद्ध छिड़ गया था। तब संयुक्त राष्ट्र ने अपनी सेना को दोनों के बीच तैनात किया था ताकि वहां पर तनाव कम हो। वैसे तो भारत ने इजरायल को राष्ट्र के रूप में मान्यता 1950 में ही दे दी थी लेकिन फिलिस्तीन को वही दर्जा केवल 1988 में दिया। इसलिये अधिकारिक रूप में मोदी ही फिलिस्तीन जाने वाले पहले प्रधानमंत्री हैं।

*⤵📝केवल पांच देश पृथ्वी पर कहीं भी कर सकते हैं मिसाइल हमले⤵📝*

*(सर्गियो पेकान्हा और कीथ कॉलिन्स )*

*© The New York Times*

पिछले वर्ष विश्व में कारोबार और पर्यावरण के बाद जिस विषय पर सबसे ज्यादा बात हुई वह है मिसाइलों की क्षमता। अब अमेरिकी विशेषज्ञों ने बताया कि उत्तर कोरिया अभी उस स्तर पर नहीं पहुंचा है कि दुनिया में कहीं भी मिसाइल हमला कर सके। वर्तमान में केवल पांच देश ही ऐसे हैं जो दुनिया के किसी भी हिस्से में मिसाइल हमले की क्षमता रखते हैं। इनमें रूस, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस हैं। पिछले वर्ष उत्तर कोरिया ने ऐसे मिसाइल परीक्षण किए, जो चौंकाने वाले थे। वह उन देशों में शामिल है, जो मिसाइल हमले की सटीकता और क्षमता बढ़ाने पर काम कर रहे हैं। इनमें इजरायल, भारत, सऊदी अरब, ईरान, पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया और ताइवान भी शामिल हैं।
मिसाइल कार्यक्रमों पर अध्ययन करने वाले सेंटर फॉर स्ट्रेटजिक एंड इंटरनेशनल स्टडीज़ (सीएसआईएस) के एसोसिएट डाइरेक्टर इयान विलियम्स कहते हैं- हम मिसाइलों के नए युग में प्रवेश कर रहे हैं। कई देशों की मिसाइलें अप्रचलित प्रौद्योगिकी वाली हैं। उनमें सटीकता कम होती है, जिसके कारण आम नागरिकों की जान खतरे में पड़ती है। कई देशों ने पिछले दो दशक में सबसे ज्यादा पैसा मिसाइलों पर खर्च किया है। एशिया और मध्य-पूर्व इसके हॉट-स्पॉट हैं। जो मिसाइलों पर ज्यादा खर्च करते हैं, उनमें ज्यादातर का उद्देश्य क्षेत्रीय विरोधियों को डराना होता है।
बड़ी चिंता मिसाइल टेक्नोलॉजी सुरक्षित करने की है, क्योंकि कई आतंकी समूह इसे हासिल करने की कोशिशों में लगे हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण पिछले नवंबर की वह घटना है जब यमन से सऊदी अरब में मिसाइल दागी गई थी। वह हौथी विद्रोहियों का काम था। उन्होंने पिछले तीन वर्ष से यमन के बड़े क्षेत्र पर कब्जा कर रखा है। हौथी समूह जो हथियार इस्तेमाल करता है, वह स्कड मिसाइलों का वेरिएशन है। स्कड और उसके वेरिएशन दुनिया में इस्तेमाल की जाने वाली मिसाइलों का बहुत साधारण वर्जन है। ओरिजनल स्कड मिसाइल रूस ने वर्ष 1950 के दशक में तैयार की थी। उत्तर कोरिया ने जो हथियार तैयार किए, उसके बाद दुनिया को अंदाजा हुआ कि मिसाइलों का विस्तार रोकना कितना मुश्किल है। प्रतिबंधों के बावजूद यह देश बैलिस्टिक मिसाइलों की पूरी शृंखला विकसित कर चुका है।
कैलिफोर्निया स्थित मिडलबरी इन्स्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ के जैफरी लुविस कहते हैं- पहले सोवियत संघ फिर उत्तर कोरिया। उनके मिसाइल कार्यक्रमों में स्कड ने ड्रग का काम किया है। मिसाइल टेक्नलॉजी फैलने से रोकना बहुत मुश्किल है, लेकिन उसके गाइडेंस सिस्टम, इंजिन जैसे पार्ट्स का कारोबार रोकना करीब-करीब नामुमकिन है। ऐसा इसलिए क्योंकि छोटी सी पेनड्राइव में हजारों सीक्रेट हो सकते हैं। कई बार छोटा सा टुकड़ा बड़ी खोज साबित होता है। सोवियत दौर का एक इंजन आज उत्तर कोरिया के वर्तमान हथियारों का मुख्य स्रोत वही है।
डॉ. लुविस कहते हैं, कई देश अपनी सीक्रेट टेक्नोलॉजी को ज्यादा विकसित कर रहे हैं। भारत ऐसी मिसाइल पर काम कर रहा है जो आधी पृथ्वी अपने दायरे में ले सकती है। इसलिए ‘मिसाइल टेक्नोलॉजी मिसाइल रिजीम’ को और सख्त प्रयास करने चाहिए। यह 35 देशों का वह समूह है, जिसने मिसाइल और उसके उपकरणों के निर्यात पर सख्त प्रतिबंध लगा रखा है।
ऐसे देशों की संख्या बढ़ रही है, जो क्षेत्रीय तनाव के समाधान के लिए मिसाइल टेक्नोलॉजी उन्नत कर रहे हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वे युद्ध जैसा वातावरण निर्मित कर रहे हैं।

*⭕️द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देने के लिए भारत-संयुक्त अरबअमीरात ने पांच समझौतों पर हस्ताक्षर किये:*

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फलस्तीन की अपनी पहली यात्रा पूरी करने के बाद 10 फरवरी 2018 को संयुक्त अरब अमीरात पहुंचे हैं। यूएई यात्रा के पहले दिन दोनों देशों के बीच पांच समझौतों पर हस्ताक्षर हुए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब संयुक्त अरब अमीरात पहुंचे तो पीएम का स्वागत यूएई के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन ज़ायद एल नाहयान ने किया। मोहम्मद बिन जायद एल नहयान और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच प्रतिनिधि स्तर की वार्ता हुई।

दोनों नेताओं ने आपसी संबंधों के विभिन्न मु्ददों पर चर्चा की. जिसके बाद भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अबू धाबी के क्राउन प्रिंस शेख मोहम्मद बिन जाएद अल नाहयान की मौजूदगी में भारत और संयुक्त अरब अमीरात की सरकारों के बीच 5 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। दोनों देशों के बीच ऊर्जा क्षेत्र, रेलवे, भारतीय श्रमिकों और वित्त क्षेत्र में समझौते हुए।

समझौते:

ओएनजीसी ग्रुप और आबू धाबी की राष्ट्रीय तेल कंपनी के बीच समझौता। कच्चे तेल के खनन के क्षेत्र में किसी भारतीय कंपनी के साथ ये पहला निवेश समझौता है।भारतीय श्रमजीवियों को सशक्त करने के लिए समझौता।बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज और अबू धाबी सिक्योरिटी एक्सचेंज के बीच समझौता।रेलवे और परिवहन क्षेत्र में समझौता।जम्मू-कश्मीर सरकार और डीपी वर्ल्ड के बीच एक समझौता।

प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा के दौरान संयुक्त अरब अमीरात के शहर अबू धाबी में मंदिर की आधारशिला रखने का कार्यक्रम भी संपन्न हुआ। मंदिर निर्माण समिति से जुड़े सदस्यों ने दोनों नेताओं को कलश भेंट किया।

प्रधानमंत्री मोदी दुबई के विश्व सरकार सम्मेलन को भी संबोधित करेंगे जहां भारत इस साल सम्मानित अतिथि हैं। पीएम मोदी यूएई से ओमान रवाना होंगे।

71 के मुक्ति युद्ध के समय उर्दू भाषी मुसलमानों ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया था। बांग्लादेश बनने के बाद बंगाली मुसलमानों का कहर इन पर टूटा। नतीजतन इन्हें अपने घरों से बाहर आज भी कैंपों में रहना पड़ रहा है। काफी लंबी कानूनी लड़ाई के बाद हाईकोर्ट के आदेश के बाद साल 2008 में इन्हें बांग्लादेशी नागिरक और वोटिंग का अधिकार मिला। उर्दू भाषी मुसलमानों को बीएनपी का सर्मथक माना जाता है। बहरहाल, बेगम खालिदा जिया को पांच साल की कैद और उनके चुनाव लड़ने पर पाबंदी के बाद इतना तय है कि दिसंबर में होने वाले चुनाव में शेख हसीना और उनकी पार्टी अवामी लीग की चुनावी राह और आसान हो गई है। भारत के लिए भी इसके काफी मायने हैं, क्योंकि अवामी लीग जब भी सत्ता में रही है दोनों देशों के संबंध काफी प्रगाढ़ हुए हैं। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बहुप्रतीक्षित भूमि सीमा समझौता (एलबीए) हुआ, जिसमें दोनों देशों ने अपनी मर्जी से अपने भू-भाग का आदान-प्रदान किया था। इसके बाद दोनों देशों के करीब पचास हजार लोगों को दशकों बाद अपने देशों की नागरिकता हासिल हुई। (दैनिक जागरण से साभार )
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

स कथन का खंडन किया कि ‘मालदीव का सबसे बड़ा दुश्मन भारत है और सबसे बड़ा दोस्त चीन है।’ उसने भारत के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते की बात कही। मैंने लिखा था कि यह सिर्फ जबानी जमा-खर्च है।
अब भारत क्या करे? यदि अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण विरोधी नेताओं को यामीन रिहा कर दें, उनमें सर्वसम्मति करवाएं और चुनावों की घोषणा कर दें तो भारत को कुछ करने की जरूरत नहीं है लेकिन, यदि वे तानाशाही रवैया जारी रखेंगे तो मालदीव में अराजकता फैल सकती है, जिसका सीधा असर भारत पर पड़ेगा। भारत ने यदि 1988 में सैन्य-हस्तक्षेप नहीं किया होता तो सिंगापुर और श्रीलंका से आए हुए हुड़दंगी मालदीव में राष्ट्रपति गय्यूम का तख्ता पलट देते। 1971 में श्रीलंका की प्रधानमंत्री सिरिमाओ भंडारनायक के अनुरोध पर भारत ने सेना भेजकर उन्हें बचाया था। नेपाल के राजा त्रिभुवन की भी 1950 में भारत ने रक्षा की थी। 1971 में शेख मुजीब के निमंत्रण पर भारत ने सेना भेजकर बांग्लादेश का निर्माण करवाया था। मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति नशीद तथा अन्य महत्वपूर्ण नेताओं ने इस संकट की घड़ी में भारत से मदद मांगी है। भारत को अपने लिए कुछ नहीं चाहिए लेकिन, इस चार लाख लोगों के देश में खून की नदियों को बहने से रोकना उसका कर्तव्य है। (dainik bhaskar)
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

*©📝स्वास्थ्य बीमा योजना- सबको एक समान इलाज की कवायद©📝*

*(अंजलि सिन्हा)*

आम बजट में घोषित सरकार की स्वास्थ्य बीमा योजना-जिसमें दस करोड़ परिवारों को पांच लाख राशि का स्वास्थ्य बीमा देने की घोषणा हुई है- को अब तक की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना बताया जा रहा है। नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने इसे पासा पलटने वाली योजना बताया तो वहीं सरकार के विभिन्न स्नोतों ने इस योजना के तहत स्वास्थ्य नीति में बड़े बदलाव का विवरण दिया है।

स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार सबसे अहम सवाल हैं। इसलिए इसके आसपास चर्चा तो होनी ही है और घोषणाएं भी, लेकिन क्या वाकई सरकार समस्याओं को सुलझाने के लिए इरादा रखती है। जहां अस्पतालों की, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों जैसे आधारभूत ढांचा अपने यहां आबादी की तुलना में बहुत कम है, डॉक्टर तथा अन्य सहयोगी स्टाफ की भारी कमी है वहां अस्पताल बनाने, नए-नए दूसरे एम्स जैसी अग्रणी संस्थाएं खोलने, डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए और अधिक अवसर मुहैया कराने की जरूरत हो, उस पर कोई चर्चा न हो, यह बेहद आश्चर्यजनक है। अगर सारा जोर इस बात पर हो कि आपको पैसा मिलेगा बीमा के द्वारा ताकि आप अपना इलाज करा सकें तो इसमें किसका हित साधन होगा? आम आदमी का या बीमा कंपनियों का, दुकान के रूप में फैले निजी अस्पतालों का? शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही बाजार के तर्क से चलने वाले मुद्दे नहीं हैं। तभी उन्नत पूंजीवादी देशों में भी स्वास्थ्य सिर्फ बाजार के हवाले नहीं छोड़ा जाता और चिकित्सा सुविधा सभी को मुहैया कराना उनकी प्राथमिकता में होता है। वहीं इसके बावजूद नीति आयोग के उपाध्यक्ष तो खुले तौर पर बता रहे हैं कि सरकार को केवल बीमा प्रीमियम का बोझ उठाना है, जो कि बहुत थोड़ा होगा। भारी मात्रा में खरीद और प्रतिस्पर्धा से लाभ प्राप्त होगा। वे कहते हैं कि यह योजना निजी क्षेत्र के उपक्रमों को प्रोत्साहित करेगी।

बताते चलें कि अमेरिका में स्वास्थ्य सुविधाओं के बढ़ते खर्चे और उसके चलते अपने आप को दिवालिया घोषित करने वाले लोगों की तादाद में आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ोतरी हुई है। 1981 में किसी चिकित्सकीय इमरजेंसी के चलते अपने आप को दिवालिया घोषित करने वालों की तादाद दिवाला घोषित करने वाले परिवारों में से महज 8 फीसद थी तो यह आंकड़ा 2001 में ही 46 फीसद को पार कर गया। 2007 तक आते आते यह आंकड़ा 62 फीसद से आगे बढ़ चुका है। यह आंकड़े अमेरिकी डॉक्टरों के एक बड़े समूह-जिसमें 2,500 से अधिक पेशेवर शामिल हैं-‘फिजिशियन्स फॉर नेशनल हेल्थ प्रोग्राम’ के अध्ययन के बाद सामने आए थे। इसलिए उन्होंने मांग की थी कि इसका एकमात्र उपाय यही है कि अमेरिका में निजी बीमा प्रणाली को समाप्त कर उसे सरकारी खर्चे से संचालित नेशनल हेल्थ प्रोग्राम से प्रतिस्थापित किया जाए ताकि सभी अमेरीकियों के स्वास्थ्य को ‘कवर’ किया जा सके।

अपने यहां स्वास्थ्य को लेकर चिंता बनी हुई हैं क्योंकि भारत उन देशों में शुमार है जहां सरकारी बजट में स्वास्थ पर बहुत कम खर्च होता है। भारत सरकार के बजट को देखें तो वह सकल घरेलू उत्पाद का महज एक फीसद के आसपास रहता आया है। इसके बरक्स चीन में सकल घरेलू उत्पाद का 3 फीसद स्वास्थ्य पर खर्च होता है तो अमेरिका अपनी जीडीपी का 8.3 फीसद स्वास्थ्य पर खर्च करता है, जबकि ब्रिटेन में यह आंकड़ा 9.6 फीसद तक पहुंचता है, कनाडा में यह आंकड़ा 11.4 फीसद है तो जर्मनी में यह 11.7 और फ्रांस में 11.9 फीसद। एक अनुमान के अनुसार भारत स्वास्थ्य पर सरकारी खर्चे के हिसाब से दुनिया के 184 देशों में 178वें स्थान पर है। निम्न आय वाले देश -बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका से भी वह पीछे है। स्वास्थ्य खर्च के चलते लाखों गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं, इस पर अध्ययन हुए हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक दुनिया के 1.2 अरब गरीबों की संख्या में से एक तिहाई भारत में रहते हैं। गरीब आबादी के लिए सरकारी स्वास्थ्य सुविधा ही एकमात्र आसरा होता है, जबकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी कंपनियों का प्रभुत्व लगातार बढ़ रहा है। स्वास्थ्य उद्योग में लगभग 15 फीसद के दर से हर साल बढ़ोतरी हो रही है। निजी अस्पतालों को सस्ते दर पर जमीने मुहैया कराई जा रही हैं और पैकेज के आकर्षण के कारण डॉक्टर अपनी सेवाएं वहां दे रहे हैं। सरकार की उदासीनता तथा नौकरशाही के जंजाल से मुक्त यहां कमाने का अच्छा अवसर दिखता है। सरकार भले ही घोषणा करती रहे कि मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद युवा सरकारी अस्पतालों को अपनी सेवाएं दें, लेकिन वह बदहाल स्वास्थ्यतंत्र को दुरुस्त करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करती है। बिना बुनियादी सुविधाओं के आखिर सुधार महज घोषणाओं से कैसे हो सकता है।

ऐसा भी नहीं है कि भारत के पास संसाधनों की कमी है, यह दरअसल राजनीतिक इच्छाशक्ति का सवाल है। अगर एक छोटा सा देश क्यूबा-जो खुद उसी तरह आर्थिक संकट एवं अमेरिकी घेराबंदी की मार ङोलते हुए-हर नागरिक

*📝📌मजबूत होती भारत-अमेरिकी साझेदारी📝📌*

*(केनेथ जस्टर)*
*(भारत में अमेरिका के राजदूत)*

अमेरिका-भारत के बीच रणनीतिक साझेदारी अन्य अंतरराष्ट्रीय संबंधों की तरह ही महत्वपूर्ण है। हमारी रणनीतिक साझेदारी की रूपरेखा दोनों देशों को मजबूत बनाने और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में लाभदायक प्रभाव के लिए बनाई गई है। गत 17 वर्षो में हमने रणनीतिक भागीदारी के लिए मजबूत नींव रखी है, जिसका महत्वपूर्ण और सकारात्मक प्रभाव 21वीं सदी में और मजबूत हो सकता है। यह समय इस नींव पर उदार, लेकिन उद्देश्यात्मक तरीके से निर्माण करने का है। हमें अपने बढ़ते दुखों से आगे बढ़ना होगा और इस क्षेत्र के लिए स्थाई संरचना को आकार देने में मदद करनी होगी। हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि भारत-अमेरिका रणनीतिक भागीदारी एक मजबूत भागीदारी है। लंबे समय से मुक्त, सुरक्षित और खुले हिंद-प्रशांत की अमेरिकी प्रतिबद्धता ने हम सभी के लिए इस क्षेत्र के स्थायित्व और उल्लेखनीय प्रगति को आधार प्रदान किया है। अमेरिका इस क्षेत्र के विकास के प्रति प्रतिबद्ध रहेगा, क्योंकि हम कानून-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था हैं, हमारा भविष्य इसके साथ अटूट रूप से जुड़ा है। इस उद्यम में हम अपने साथ भारत के नेतृत्व का स्वागत करते हैं।

अमेरिकी विदेश मंत्री रेक्स टिलरसन के शब्दों में, ‘हमें अपने भागीदारों में पूर्ण भरोसा है और हम क्षेत्रीय संरचना के लिए अपने समान विचार वाले देशों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित करने के लिए कार्य कर रहे हैं कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में शांति, स्थायित्व और समृद्धि बढ़े, न कि विकृत आर्थिक नीति।1दरअसल रक्षा क्षेत्र और आतंकवाद से लड़ाई में सहयोग हमारी साङोदारी का मुख्य स्तंभ रहा है। जटिल रक्षा प्रणालियों के लिए उपकरणों के उत्पादन में अमेरिकी रक्षा कंपनियों ने पहले ही भारत में निवेश किया है। हम भारत की स्वदेशी रक्षा क्षमताओं के निर्माण में सहायता के इच्छुक हैं। इसके साथ ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र में बड़े रक्षा साङोदार के रूप में हम दोनों देशों की सेनाओं के बीच आपसी मेलजोल को बढ़वा देना चाहते हैं। हमें इसी रणनीति को हमारे आर्थिक संबंध में भी अपनाना चाहिए, जो कि हमने अपने रक्षा संबंधों पर लागू किया है।

हाल ही में कई अमेरिकी कंपनियों ने चीनी क्षेत्र में व्यापार करने में बढ़ती कठिनाइयों की जानकारी दी है। बहरहाल वहां कुछ कंपनियां अपने संचालन को कम कर रही हैं, जबकि अन्य कंपनियां वैकल्पिक बाजारों की तलाश कर रही हैं। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी उद्यमों का वैकल्पिक केंद्र बनने के लिए भारत व्यापार और निवेश के माध्यम से रणनीतिक अवसरों को प्राप्त कर सकता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष व्यापार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भारत के सतत दीर्घकालिक विकास के प्रयास को बढ़वा तथा सहयोग प्रदान करेगा। इसके अलावा ‘अमेरिका फस्र्ट’ और ‘मेक इन इंडिया’ विरोधाभासी नहीं हैं, बल्कि एक-दूसरे के बाजारों में निवेश, आर्थिक आदान-प्रदान, व्यापार की मात्र, उभरती प्रौद्योगिकियों में सहयोग का मार्गदर्शन और दोनों देशों में रोजगार में वृद्धि करेंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पहले ही शुरू किए गए आर्थिक व नियामक सुधारों में तेजी यह सुनिश्चित करने में मदद करेगी कि भारत में कुशलता, पारदर्शिता बढ़ रही है और यहां सुव्यवस्थित बाजार है। साथ ही यहां विकास एवं उन्नति को और अधिक प्रोत्साहन दिया जा रहा है। जारी सुधार और व्यापार उदारीकरण भारतीय उत्पादकों को अधिक आसानी से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनने के भी योग्य बनाएंगे। इसके फलस्वरूप यहां तेजी से रोजगार पैदा होंगे।1द्विपक्षीय आर्थिक संबंध और भारत को अमेरिकी उद्यमों के लिए क्षेत्रीय केंद्र बनाने के कई फायदे हैं। हमने हाल में हैदराबाद के वैश्विक उद्यमिता शिखर सम्मेलन में महत्वपूर्ण और सकारात्मक प्रभाव देखे, जो कि देश की अर्थव्यवस्था के नवोन्मेष के लिए योग्य वातावरण है। अमेरिका उद्यमिता और नवोन्मेष का अगुआ है और आज उसका प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत के साथ पहले से व्यापक संबंध हैं। अमेरिकी व्यापार और निवेश के लिए भारत के बाजारों के खुलने से बहुत सी उभरतीय प्रौद्योगिकियों पर हमारे सहयोग को प्रोत्साहन मिलेगा, जिससे हमारी अर्थव्यवस्था को संरक्षण मिलेगा। इसमें आधुनिक उत्पादन और साइबर सुरक्षा शामिल हैं।

अमेरिकी व्यापार और निवेश एक मजबूत बौद्धिक संपदा संरक्षण वातावरण से संबद्ध है, यह पूंजी और बौद्धिक ज्ञान को साझा करने के बढ़ते प्रवाह को प्रोत्साहित करेगा। हालांकि इसके लिए प्रौद्योगिकीय रूपांतरण को लगातार उन्नत बनाने की जरूरत होती है। ऐसा तब होता है जब देश अंतरराष्ट्रीय आर्थिक और डाटा के अबाध प्रवाह में शामिल होते हैं। अमेरिकी वस्तुओं और सेवाओं के लिए बढ़ता खुलापन तथा अमेरिकी कंपनियों की विस्तारित उपस्थिति बेहतर ढांचे एवं समग्र संपर्क में निजी क्षेत्र के निवेश क

*_©📝मालदीव में यामीन पर सख्त कार्रवाई करे भारत©📝_*

*(वेदप्रताप वैदिक)*
*(भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष)*

मालदीव के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन किसी की नहीं सुन रहे हैं। उनसे संयुक्त राष्ट्र, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, कनाडा और श्रीलंका ने अनुरोध किया है कि वे अपने संविधान और सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान करें। मालदीव के सबसे बड़े पड़ोसी और शुभेच्छु राष्ट्र भारत के अनुरोध को वे ठुकरा चुके हैं। मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह फैसला दिया था कि जिन 12 सांसदों को संसद से निकाल दिया गया था, उन्हें वापस लिया जाए और विरोधी दलों के नौ नेताओं को रिहा किया जाए। इनमें मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद और यामीन के अपने एक उपराष्ट्रपति भी हैं।
यह फैसला मानने की बजाय यामीन ने मालदीव में आपातकाल लगा दिया। अब उनका बर्ताव किसी निरंकुश तानाशाह जैसा हो गया है। उन्होंने मुख्य न्यायाधीश अब्दुल्ला सईद और एक न्यायाधीश अली हमीद को गिरफ्तार कर लिया है। सईद के वकील ने आरोप लगाया है कि सईद से यह कहा गया है कि यदि वे फैसला वापस नहीं लेंगे तो उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएंगे। डर के मारे शेष तीन जजों ने वह फैसला रद्‌द कर दिया है। यदि सांसदों और नेताओं की वापसी हो जाती तो यामीन की गद्‌दी हिल जाती। चुनाव तो साल भर बाद है लेकिन, यामीन को अभी ही गद्‌दी छोड़नी पड़ती, क्योंकि 85 सदस्यीय संसद में इन 12 सांसदों के विरोध के कारण उनकी पार्टी अल्पमत में आ जाती और यदि उन पर महाभियोग चलता तो उनके हारने की नौबत आ जाती। पूर्व राष्ट्रपति नशीद को 2015 में 13 साल के लिए जेल में डाल दिया गया था। लेकिन, इलाज के बहाने नशीद लंदन चले गए और अब यामीन के खिलाफ जबर्दस्त अभियान छेड़े हुए हैं।
यदि नशीद और शेष आठ नेता मुक्त होकर आज मालदीव में राजनीति करें तो यामीन का जीना मुश्किल हो सकता है। नशीद ने यामीन-सरकार के भ्रष्टाचार के ऐसे आंकड़े पेश किए हैं, जिनका तथ्यपूर्ण खंडन अभी तक नहीं किया जा सका है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि नशीद का साथ दे रहे हैं 80 वर्षीय मौमून गय्यूम, जो कि यामीन के सौतेले भाई हैं और जिन्होंने 30 साल तक राष्ट्रपति के रुप में मालदीव पर राज किया है। पूर्व राष्ट्रपति नशीद और गय्यूम, दोनों के साथ दिल्ली में मेरी व्यक्तिगत भेंट और लंबी वार्ता हुई है। दोनों ही भारत के अभिन्न मित्र हैं। यामीन ने इतनी क्रूरता दिखाई है कि 80 वर्षीय गय्यूम को भी जेल में डाल दिया है।
मालदीव की संसद के अध्यक्ष और यामीन के एक मंत्री ने तंग आकर इस्तीफा दे दिया है। खुद यामीन इतने बौखलाए हुए हैं कि उन्होंने पहले दो दिन में अपने दो पुलिस मुखियाओं को बर्खास्त कर दिया। अब उन्होंने अपने तीन परम मित्र राष्ट्रों- चीन, पाकिस्तान और सऊदी अरब को अपने विशेष दूत भिजवाए हैं। भारत ने उनके विशेष दूत को दिल्ली आने की अनुमति नहीं दी है। इस समय चीन खुलकर यामीन का समर्थन कर रहा है। उसने घुमा-फिराकर भारत को धमकी भी दी है कि मालदीव में बाहरी हस्तक्षेप अनुचित होगा। मालदीव भारत का पड़ोसी है और दक्षेस का सदस्य है लेकिन, ऐसा लग रहा है कि वह चीन का प्रदेश-सा बनता जा रहा है। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग तो 2014 में ही मालदीव जा चुके हैं। हमारे प्रधानमंत्री बाकी सारे पड़ोसी देशों में हो आए, पाकिस्तान भी, लेकिन अभी तक मालदीव नहीं जा सके।
मालदीव ने अभी-अभी चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता कर लिया है। 777 पृष्ठ के इस समझौते को संसद ने सिर्फ 10 मिनिट में बिना बहस हरी झंडी दे दी। 85 सदस्यीय संसद में सिर्फ 30 वोटों से उसे पास कर दिया गया। बिल्कुल इसी तरह जुलाई 2015 में संसद ने एक ऐसा कानून आनन-फानन बना दिया, जिसके तहत कोई भी विदेशी सरकार या व्यक्ति मालदीव के द्वीपों को खरीद सकता था। ये दोनों सुविधाएं चीन के लिए की गई हैं ताकि वह वहां अपना सैनिक अड्‌डा बना सके। राष्ट्रपति शी की मालदीव-यात्रा के दौरान दोनों पक्षों ने 8 समझौते किए थे। सबसे बड़ा समझौता इब्राहिम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्‌डा बनाने का था। इस हवाई अड्‌डे को पहले एक भारतीय कंपनी बना रही थी। उसे रद्‌द करके यह चीन को दे दिया गया। माले और उससे 10 किमी दूर समुद्र में स्थित द्वीप हुलहुले के बीच चीन अब एक पुल बनाएगा। मालदीव चीन के रेशम महापथ की योजना में सक्रिय हिस्सा लेगा। इसके अलावा चीन ने वहां सड़कें और मकान बनाने की योजनाएं भी शुरू कर दी हैं। गत वर्ष मालदीव पहुंचने वाले पर्यटकों में 90 प्रतिशत चीनी थे। मालदीव आजकल इस्लामी कट्‌टरवाद का अड्‌डा भी बनता जा रहा है। उसके सैकड़ों युवक आजकल सीरिया में छापामारी कर रहे हैं। पिछले तीन-चार महीनों में मैं कई बार लिख चुका हूं कि मालदीव में भारत-विरोधी लहर उठने वाली है। पिछले माह जब हमारे विदेश मंत्रालय की नींद खुली तो उसने मालदीव के विदेश मंत्री मोहम्मद असीम को भारत बुलवाया। उन्होंने सरकार परस्त एक मालदीवी अखबार के इ

*_🏉📝बांग्लादेश की सियासी दिशा🏉📝_*

*(अभिषेक रंजन सिंह)*

बांग्लादेश में इस साल के अंत में आम चुनाव (जातीय संसद) होने हैं। वहां होने वाले इस चुनाव के कई मायने हैं। मसलन बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जमात-ए-इस्लामी की तरफ से एलान किया गया था कि वे देश में होने वाले चुनाव में हिस्सा लेंगी। 2014 में हुए चुनाव में बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी ने स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से चुनाव नहीं कराने की वजह से इसका बहिष्कार किया था। उनकी मांग थी कि अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की निगारानी में वहां चुनाव कराए जाएं, लेकिन अवामी लीग की अध्यक्ष और प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनकी मांगों को खारिज कर दिया। उनका कहना था कि अपने संभावित हार की वजह से बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी चुनाव का बहिष्कार कर रही हैं। विपक्षी दलों के चुनाव बहिष्कार की वजह से अवामी लीग और उसके सहयोगी दलों को संसद की कुल 350 सीटों में से करीब डेढ़ सौ सीटों पर बगैर किसी चुनौती के जीत हासिल हुई थी।

हालांकि इस साल दिसंबर में होने वाले चुनाव में शामिल होना बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी की मजबूरी भी है। क्योंकि बांग्लादेश के संविधान के मुताबिक कोई राजनीतिक दल लगातार दो चुनावों का बहिष्कार करता है तो उसकी मान्यता खत्म हो सकती है। जमात-ए-इस्लामी इस बार चुनाव में हिस्सा लेने की बात कह रही है, लेकिन शीर्ष अदालत द्वारा उनके चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाई जा सकती है। क्योंकि उनके खिलाफ 1971 के युद्ध अपराध का मामला अभी भी चल रहा है। पार्टी के शीर्ष नेता मोतिउर निजामी समेत कई बड़े नेताओं को अदालती आदेश के बाद फांसी की सजा दी जा चुकी है। जबकि कई नेताओं पर फैसला आना बाकी है। अब चुनाव से पहले पूर्व प्रधानमंत्री और बीएनपी प्रमुख खालिदा जिया को भ्रष्टाचार के आरोप में ढाका की एक विशेष अदालत ने दोषी मानते हुए पांच वर्ष की सजा सुनाई है। इससे बीएनपी के चुनाव लड़ने के मंसूबे को आघात लगा है।

भ्रष्टाचार के आरोप साबित होने के बाद बेगम खालिदा जिया को चुनाव के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया है। वहीं इस मामले में उनके बड़े बेटे और बीएनपी के उपाध्यक्ष तारिक रहमान समेत चार लोगों को दस-दस वर्षो की सजा सुनाई गई है। हालांकि बीएनपी स्टैंडिंग कमेटी के सदस्य और पूर्व उप प्रधानमंत्री मौदूद अहमद ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती देने की बात कही है, लेकिन बांग्लादेश के कानूनी जानकारों के मुताबिक ऊपरी अदालत से बेगम खालिदा जिया और उनके बेटे को राहत मिलने की गुंजाइश काफी कम है। दरअसल, यह मामला जिया यतीमखाना ट्रस्ट को विदेशी अनुदान में मिले 2.1 करोड़ टका यानी एक करोड़ 61 लाख रुपये के गबन से जुड़ा है। अदालत के इस फैसले से राजधानी ढाका समेत देश के दूसरे हिस्सों में काफी तनाव बढ़ गया है। ढाका के तोपखाना रोड और पलटन इलाके में कई जगहों पर हिंसा भी हुई है। वैसे यह सही है कि बांग्लादेश में अवामी लीग सरकार के खिलाफ भी लोगों में नाराजगी है, लेकिन कोई राजनीतिक विकल्प न होने की वजह से प्रधानमंत्री शेख हसीना की सत्ता पर फिलहाल कोई खतरा नहीं है।

अगर आप बांग्लादेश जाएं तो वहां पाएंगे कि जितने भी चौक-चौराहे हैं वहां बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी के पक्ष में शायद ही कोई पोस्टर या हॉर्डिग दिखे। बांग्लादेश की राजनीति में दो बेगमों शेख हसीना और खालिदा जिया की सियासी अदावत काफी पुरानी है। बीएनपी और अवामी लीग के बीच कई मुद्दों पर गहरे मतभेद हैं। बीएनपी जहां बांग्लादेश को इस्लामिक राष्ट्र घोषित करने की मांग करती रही है वहीं अवामी लीग इसके सख्त खिलाफ रही है। उसका कहना है कि यह संविधान के खिलाफ है। खालिदा जिया जब बांग्लादेश की प्रधानमंत्री थीं उस दौरान ईश निंदा कानून बनाने की मांग को लेकर ढाका समेत कई जिलों में भीषण हिंसा हुई थी जिसमें सैकड़ों लोगों की मौत हुई थी। बीएनपी का आरोप यह भी रहा है कि अवामी लीग बांग्लादेश में हिंदू तुष्टिकरण की राजनीति करती है। साल 2014 के आम चुनाव में 18 हिंदू सांसद चुने गए थे। पिछले कई वर्षो के मुकाबले यह संख्या अधिक है। एक सरकारी आदेश के बाद पिछले दो वर्षो से बांग्लादेश के संसद में सरस्वती पूजा का भी आयोजन कराया जा रहा है। इसमें प्रधानमंत्री शेख हसीना समेत कई सांसदों और मंत्रियों ने हिस्सा लिया था। बीएनपी को हसीना सरकार का यह फैसला रास नहीं आया। नतीजतन इसके खिलाफ ढाका में कई जगहों पर विरोध प्रदर्शन भी हुए। अवामी लीग सरकार हिंदुओं के कई महत्वपूर्ण त्योहारों को सरकारी अवकाश की सूची में शामिल कराया। बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी करीब बारह फीसद है जिसे अमूमन अवामी लीग का वोटबैंक समझा जाता है। यह बात सही भी है। खुद वहां रहने वाले अल्पसंख्यक हिंदू स्वयं को इस सरकार में ज्यादा महफूज महसूस करते हैं।

बांग्लादेश में उर्दू भाषी मुसलमानों की संख्या करीब बीस लाख है। विभाजन के समय ये बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आकर बसे थे। 19

े से ही खस्ता है। बजट में 70 लाख रोजगार आगामी वर्ष के लिए निर्धारित किए गए हैं जो बेरोजगारी की दर को देखते हुए नाकाफी कहे जा सकते हैं। रोजगार कहां से बढ़े और कैसे बढ़े इसकी भी चिंता स्वाभाविक है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि सभी को सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती। ऐसे में स्वरोजगार एक विकल्प है। यहां बात पकौड़े की नहीं है चाहे युवा पढ़ा-लिखा हो या गैर पढ़ा-लिखा, कौशल के अनुपात में रोजगार लेने का अवसर ले सकता है।1बहरहाल रोबोटिक टेक्नोलॉजी से नौकरी छिनने का डर बढ़ रहा है। विश्व बैंक के मुताबिक भारत में आइटी इंडस्ट्री में 69 फीसद नौकरियों पर ऑटोमेशन का खतरा मंडरा रहा है। इसके चलते इंसानों की जगह मशीन लेती जा रही हैं। इससे छंटनी बढ़ रही है और लोग दर-दर भटकने को मजबूर हैं। जाहिर है जो संगठन के अंदर है उन्हें बनाए रखा जाए और जो बेरोजगार हैं उनके लिए काम के अवसर सृजित किए जाएं तभी बात बनेगी। सरकार ई-गवर्नेस के चक्कर में मानव संसाधनों की अनदेखी न करे।(दैनिक जागरण से साभार )
(लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)

म्मान के लिए लड़ रहे हैं। हमें अपने सिर पर क्या पहनना है, अगर यह फैसला करने नहीं दिया जाएगा तो हमारे माथे के अंदर जो बुद्धि है, उसका मालिकाना भी हमें नहीं दिया जाएगा।’

इन दिनों पूरे ईरान में हिजाब विरोधी आंदोलन चल रहा है, यह देखकर देश के राष्ट्रपति ने कहा है, ‘ठीक ही तो है, तुम अपनी पसंद-नापसंद भावी पीढ़ी पर जबरन नहीं थोप सकते।’ क्या सरकार थोड़ी नरम हो रही है? यदि नरम हो रही है तो इसका मतलब है कि महिलाओं का यह आंदोलन सफलता का मुंह देख रहा है। एलिनेजाड ने कहा है, ‘पहले महिलाएं सरकार से डरती थीं, अब सरकार महिलाओं से डर रही है।’ हो सकता है एलिनेजाड अति आशावादी हों, क्योंकि अब तक 29 महिलाओं को हिजाब विरोधी आंदोलन के अपराध में ईरानी पुलिस पकड़कर ले गई है। मुङो नहीं लगता कि ईरानी महिलाएं अपने अधिकार इतनी आसानी से पाएंगी, लेकिन वे जिस तरह के साहस का परिचय दे रही हैं वह कम नहीं है। साहस ही साहस को जन्म देता है। इससे और भी महिलाएं प्रेरित हो रही हैं और हिजाब खोलकर फेंक रही हैं।

इस आंदोलन को सिर्फईरान में नहीं, पूरी दुनिया में प्रशंसा मिली है। उन्हें यह आंदोलन जारी रखना होगा, जब तक उन्हें हिजाब नहीं पहनने का अधिकार नहीं मिल जाता। हालांकि यह नहीं हो सकता कि इस्लामिक कानून भी रहे और महिलाओं की आजादी भी। कारण यह कि दोनों परस्पर विरोधी हैं। क्या मुसलमानों के लिए इस्लाम के मानवीय पक्ष पर यकीन रखकर समाज को समता के समाज के हिसाब से गढ़ना संभव नहीं है? संभव है, बस इसके लिए महिलाओं को दासी अथवा यौन की चीज के बजाय एक संपूर्ण एवं सक्षम मनुष्य के तौर पर चिन्हित करना होगा। राष्ट्र को धर्म से अलग रखकर सभ्य कानून बहाल करके सभ्य समाज बनाने के लिए एक न एक दिन स्त्री-पुरुष, दोनों को कदम उठाने ही होंगे। बस यह यकीन बना रहे कि चाहने से सब संभव है।(दैनिक जागरण से साभार )
(लेखिका जानी-मानी साहित्यकार हैं)

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