संजय गुप्त, (लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)

हिमाचल प्रदेश के कसौली में एक होटल मालिक ने अवैध निर्माण हटाने आईं सहायक नगर नियोजन अधिकारी शैलबाला की जिस तरह गोली मारकर हत्या कर दी, वह अपराध की सामान्य घटना नहीं है। शैलबाला को गोली मारने वाले होटल मालिक ने पहले ले-देकर अपने अवैध निर्माण को बचाने की कोशिश की। जब वह नाकाम रहा तो उसने पुलिस की मौजूदगी में सहायक नगर नियोजन अधिकारी की हत्या कर दी। यह घटना इसलिए कहीं अधिक गंभीर है, क्योंकि अवैध निर्माण हटाने की कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत हो रही थी। इस महिला अधिकारी की शहादत के बावजूद इसके आसार कम हैं कि देश में कैंसर की तरह बढ़ते अवैध निर्माण की समस्या पर नौकरशाहों और नेताओं की नींद खुलेगी। आज देश का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, चाहे वह गांव हो या देश की राजधानी दिल्ली, जहां किसी तरह का अवैध या अनियोजित निर्माण न हुआ हो। पहले सरकारी जमीनें ही अवैध कब्जे और निर्माण की भेंट चढ़ती थीं, लेकिन अब निजी जमीनों पर भी अतिक्रमण के मामले बढ़ते जा रहे हैं।

सरकारी अथवा गैरसरकारी जमीन पर अवैध निर्माण और अनियोजित विकास को रोकने की जिम्मेदारी स्थानीय निकायों, प्रशासन और अंतत: राज्य सरकारों की है। यदा-कदा स्थानीय निकायों अथवा जिला प्रशासन के अधिकारी स्थायी-अस्थायी अवैध निर्माण को बुलडोजर लेकर गिरा देते हैं, लेकिन कुछ समय बाद फिर से पहले वाली स्थिति हो जाती है। कई बार तो दो-तीन दिन में ही अतिक्रमणकारी लौट आते हैं या फिर रोका गया अवैध निर्माण पुन: शुरू हो जाता है। इसी तरह सरकारी जमीनों से हटाई गई झुग्गियां फिर से खड़ी होने लगती हैं। कभी-कभी तो इन झुग्गियों को बसाने के लिए नेतागीरी भी होने लगती है। धीरे-धीरे ये झुग्गियां बस्ती का रूप ले लेती हैं और फिर वहां नागरिक सुविधाएं प्रदान करने की मांग होने लगती है। जल्द ही ऐसी बस्तियों को नियमित करने की जरूरत जताई जाने लगती है, क्योंकि इन बस्तियों में रहने वाले किसी नेता के वोटर बन जाते हैं। देरसबेर इन बस्तियों को नियमित भी कर दिया जाता है, जबकि वे बेतरतीब और अनियोजित विकास का नमूना होती हैं।

झुग्गी बस्तियों को नियमित करते समय न तो नागरिक सुविधाओं की उपलब्धता की चिंता की जाती है और न ही पर्यावरण की। इसके चलते गंदगी, प्रदूषण और यातायात जाम जैसी समस्याएं सिर उठा लेती हैं। आज शहरी जीवन कहीं अधिक समस्याओं से घिरा और सेहत के लिए हानिकारक होता जा रहा है। शहरी जीवन का चुनौतीपूर्ण होते जाना खतरे की घंटी है, लेकिन लगता है कि किसी को भी यह घंटी सुनाई नहीं दे रही है। समझना कठिन है कि नगर नियोजन का काम देखने वाले अथवा मास्टर प्लान बनाने और उसे लागू करने वाले क्या सोचकर अनियोजित विकास और अवैध निर्माण की अनदेखी करते हैं? भारत एक विकासशील देश है और यह माना जा रहा है कि अगले दो-तीन दशकों में देश की करीब आधी आबादी शहरों में निवास करेगी। इसे देखते हुए जब शहरीकरण के मानकों पर सख्ती से पालन होना चाहिए तब ठीक इसके उलट हो रहा है। सड़कें, फुटपाथ और पार्क अतिक्रमण का शिकार हो रहे हैं, फिर भी कोई नहीं चेतता। अगर कभी कोई चेतता है तो हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट। दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर व्यावसायिक स्थलों की सीलिंग का सिलसिला इसी कारण कायम है, क्योंकि नगर निगम और दिल्ली विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाओं ने नियोजित विकास पर कभी ध्यान नहीं दिया। हालांकि कई एनजीओ एवं अन्य नागरिक संगठन पर्यावरण बचाने को लेकर सक्रिय हैं और वे अनियोजित विकास के मसले उठाते रहते हैं, लेकिन अधिकारी और नेता मुश्किल से ही उनकी सुनते हैं। वे तभी हरकत में आते हैं, जब अदालत कोई आदेश देती है। इस पर भी उनकी पहली कोशिश अदालती आदेश की खानापूरी करने की अधिक होती है।

बात चाहे दिल्ली जैसे महानगरों की हो या फिर कसौली सरीखे पर्वतीय स्थलों की, यहां अवैध निर्माण रातोंरात नहीं हुए। दरअसल समस्या यह है कि जब अवैध निर्माण या फिर नियम विरुद्ध विकास हो रहा होता है तो संबंधित विभागों के अधिकारी उससे आंखें मूंदे रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह पाया था कि कसौली में करीब एक दर्जन होटलों ने अवैध निर्माण कर रखा है। आखिर जब इस अवैध निर्माण की पहली ईंट रखी जा रही थी, तो नगर नियोजन या लोक निर्माण विभाग क्या कर रहा था? यदि तभी उसे रोक दिया गया होता तो सहायक नगर नियोजन अधिकारी की जान नहीं जाती। इसी तरह यदि दिल्ली में मकानों में दुकानें और शोरूम बनते समय उन्हें रोक दिया गया होता तो न सीलिंग की नौबत आती और न ही कारोबारियों की ओर से यह शिकायत सुनने को मिलती कि हमारी रोजी-रोटी की परवाह नहीं की जा रही या फिर हम तो कहीं के नहीं रहे।

हमारे शहर तो कंक्रीट के जंगल हैं ही, अब पहाड़ी इलाकों में अवैध निर्माण के रूप में भी कंक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं। वे पहाड़ों के सौंदर्य को नष्ट करने के साथ पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। हमारे पर्वतीय स्थल दुनिया के अन्य पर्वतीय स्थलों के मुकाबले बदसूरत होते जा रहे हैं, तो इसका एक बड़ा कारण भ्रष्टाचार के बल पर होने वाला अवैध निर्माण ही है। इसी भ्रष्टाचार के कारण फुटपाथ और पार्क अतिक्रमण का शिकार हो रहे हैं। पुलिस या स्थानीय निकायों के अफसर फुटपाथ पर रेहड़ी-खोमचा लगाने वालों से केवल वसूली के चक्कर में रहते हैं। अवैध निर्माण का धंधा सड़कों से लेकर पार्कों तक और झुग्गी-बस्तियों से लेकर बहुमंजिला इमारतों तक फैल गया है। किसी एक क्षेत्रफल में कितने घर, व्यावसायिक स्थल या फिर बहुमंजिला इमारतें बन सकती हैं और वे कितनी ऊंची हों, इस सबके मानक होते हैं, लेकिन शायद ही कभी उनका पालन होता हो। जब किसी इलाके में कुछ लोग रिश्वत के बल पर मनमाने तरीके से अवैध निर्माण करते हैं तो नियम-कानूनों के हिसाब से चलने वाले अपने को ठगा हुआ महसूस करते हैं। अगर अवैध निर्माण, अनियोजित विकास, अतिक्रमण आदि के बदले बड़े पैमाने पर होने वाली रिश्वतखोरी का कोई आकलन किया जा सके तो शायद यही सामने आए कि यह भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत है।

अपने देश में जिस तरह हर तरफ अवैध निर्माण हो रहा है, उससे यह नहीं लगता कि हम विकसित देश बनने के लक्ष्य को हासिल कर पाएंगे। आज आर्थिक तरक्की के मामले में भारत से कहीं पीछे खड़े देश शहरीकरण और नगर नियोजन के मामले में बेहतर स्थिति में हैं। वहां के गांवों और शहरों की व्यवस्था देखकर यही लगता है कि भारत में कोई इसकी परवाह नहीं कर रहा कि विकास और निर्माण का हर काम नियम-कानूनों के हिसाब से होना चाहिए। इसी कारण हमारे छोटे-बड़े शहर बदरंग और बदहाल होते जा रहे हैं। चूंकि पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दलों के एजेंडे में सुनियोजित विकास है ही नहीं, इसलिए अवैध निर्माण के खिलाफ अदालती आदेशों पर पालन के साथ यह भी जरूरी है कि अनियोजित विकास के लिए जिम्मेदार अधिकारियों को दंडित किया जाए। इसके लिए आवश्यक हो तो नियम-कानूनों में तब्दीली भी की जानी चाहिए।

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