(प्रो. लल्लन प्रसाद)

वन ऑक्सीजन के सबसे बड़े स्नोत होते हैं। इसके साथ-साथ पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करते हैं। बादलों को आकर्षित करते हैं। वन्य जीवों, जड़ी-बूटियों तथा फल-फूलों के पोषक होते हैं। भूमि की नमी को बनाए रखते हैं। भूमि के नीचे पानी का भंडार बचाए रखते हैं। मिट्टी का कटाव रोकते हैं और गरीबों के ईंधन का स्नोत होते हैं। आदिवासियों का जीवन तो आज भी वनाधारित है। लेकिन दळ्ख की बात है कि पिछले कुछ दशकों से देश में वनों का तेजी से ह्रास हुआ है।

दरअसल विगत कुछ दशकों में देश में तेजी से शहरीकरण हुआ है। पहाड़ों की जमीन खेती के लिए इस्तेमाल होने लगी है। लकड़ी की मांग बढ़ने से वृक्ष काटे जा रहे हैं। जिसके कारण उपजाऊ भूमि मरुभूमि में बदलती जा रही है। आंकड़ों के मळ्ताबिक विश्व में धरती का एक तिहाई हिस्सा वनों से आच्छादित है, किंतु भारत में यह कुल भूमि का 22 प्रतिशत से भी कम है। भारत में तो प्रति व्यक्ति मात्र 0.1 हेक्टेयर ही वन है, जबकि विश्व का औसत 1.0 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है। बहरहाल तेजी से हो रहा वनों का ह्रास देश-दळ्निया में जलवायु परिवर्तन, जल की कमी, तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि और मरुभूमि के विस्तार जैसी समस्याओं को गहराता जा रहा है।

प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनि वन संरक्षण को जीवन का एक अंग मानते थे। मनु के अनुसार पौधों में जीवन होता है। उन्हें सुख-दुख का आभास होता है। वृक्षों को देवताओं के साथ जोड़ने का प्रयास प्राचीन मनीषियों ने वनों के संरक्षण को ध्यान में रखकर ही किया था, विष्णु के साथ पीपल, शिव के साथ बेर और रुद्राक्ष, कृष्ण के साथ कदंब आदि वृक्षों के प्रति प्रेम का प्रतीक है। वैज्ञानिकों का मानना है कि दळ्निया में 15 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जंगल कटने से हुआ है। विश्व में पेयजल संकट और जलवायु परिवर्तन वनाच्छादित भूमि में कमी होने से ही हो रहा है।

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 में पूवरेत्तर भारत में तेजी से जंगल काटे जाने की बात कही गई है। हालांकि पूरे देश में विगत दो वर्षो में वनाच्छादित भूमि में एक प्रतिशत की बढ़ोतरा का अनुमान है। वहीं सघन वनों के क्षेत्र में कमी आई है, किंतु वृक्षारोपण अभियान ने शहरों में पेड़ लगाने में लोगों की रुचि बढ़ाई है। रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल वन भूमि 708273 वर्ग किमी है जो 2015 में 701673 वर्ग किमी थी। वन भूमि का विश्वव्यापी मापदंड, जो संयुक्त राष्ट्र ने माना है, कुल भूमि का 33 प्रतिशत है। भारत में यह 21.54 प्रतिशत ही है, इसमें सघन और विरल वन, दोनों ही शामिल हैं। मैनग्रोव एरिया भी इसमें सम्मिलित है। देश की आबादी में जिस गति से बढ़ोतरी हो रही है उससे भूमि पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। सड़कों, मकानों, कारखानों और खेती के लिए भूमि की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। इसके लिए जंगलों का गैरकानूनी कटाव तेजी से हो रहा है। ऐसे में सघन वन तो बहुत कम रह गए हैं कुल वनाच्छादित भूमि का मात्र 2.54 प्रतिशत। इसके अलावा 9.76 प्रतिशत वनाच्छादित भूमि बीच के दायरे (मॉडरेट) में है। खुले वन और मैनग्रोव बाकी क्षेत्र में आते हैं।

सघन वनों के विकास के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं उनमें आंशिक सफलता ही मिली है। सघन वन सबसे ज्यादा पूवरेत्तर भारत में हैं, अरुणाचल में सबसे अधिक। मध्य प्रदेश में वनाच्छादित भूमि सबसे अधिक है। छोटे राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों जिनमें वनाच्छादित भूमि का प्रतिशत अच्छा है, उसमें मिजोरम नंबर एक पर है। पिछले कुछ वर्षो में जिन राज्यों में वनाच्छादित क्षेत्र बढ़े हैं, उनमें पंजाब सबसे आगे है। जिन राज्यों में वन भूमि कम हुई है उनमें अधिकांश पूर्वोत्तर के हैं। पूवरेत्तर में बांग्लादेश से बड़ी संख्या में आकर बसे लोग इसका बड़ा कारण हैं जिसके बारे में चर्चा कम की जा रही है। पूवरेत्तर में जंगलों का विनाश देश की अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय है। देश के अन्य राज्यों जहां वन भूमि में कमी आई है उनमें आंध्र, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उप्र, गुजरात और केंद्रशासित चंडीगढ़ शामिल हैं।

वनाच्छादित भूमि की माप का मुख्य आधार है सैटेलाइट मैपिंग, जो एक विकसित तकनीक है। कुछ वर्षो पूर्व विकसित देशों की मदद से यह मैपिंग की जाती थी, किंतु अब इस संबंध में देश आत्मनिर्भर है। मैपिंग में ग्राउंड वर्क की भी आवश्यकता होती है। विश्व के दस प्रमुख देशों में वन संपदा में भारत का आठवां स्थान है। देश के पास विश्व की कुल भूमि का मात्र 2.4 प्रतिशत क्षेत्र है, जबकि आबादी का भार 17 प्रतिशत से अधिक है। यहां पशुओं की आबादी 18 प्रतिशत है। इतनी आबादी के बोझ को, जो दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, सीमित भूमि के दायरे में मैनेज करना आसान नहीं है। वनाच्छादित भूमि में वर्षो से जो कमी होती जा रही है उसका सबसे बड़ा करण आबादी का दबाव है।

वन प्रबंधन की शुरुआत देश में ब्रिटिश राज्य में 1864 से आरंभ हुई थी। तब इसके लिए एक इंस्पेक्टर जनरल ऑफ फारेस्ट की नियुक्त की गई थी। 1865 में पहला इंडियन फॉरेस्ट एक्ट पास हुआ था जिसमें समय-समय पर संशोधन होता रहा। प्रशासनिक ढांचे में भी परिवर्तन होता रहा। शुरू में जंगल काटने और नए वृक्ष लगाने, जंगली जानवरों के बारे में जानकारी रखने, रास्ते बनाने और आग बुझाने जैसे विषय ही महत्वपूर्ण माने जाते थे। ब्रिटिश राज में बुरी तरह जंगलों का दोहन हुआ। आजादी के बाद जंगलों की सुरक्षा और उनके दुरुपयोग पर कुछ रोक लगी, किंतु वन प्रबंधन में अभी भी सुधार की आवश्यकता है। इंस्पेक्टर राज की जगह भागीदारी प्रबंधन की व्यवस्था होनी चाहिए। वनों के आसपास रहने वालों को भी इस व्यवस्था में सम्मिलित किया जाना चाहिए। साथ ही वन संपदा के दुरुपयोग के लिए कानून सख्त किए जाने चाहिए। निर्धारित समय सीमा में तेजी से वन लगाए जाने चाहिए। शहरों और गांवों में वृक्षारोपण बड़े पैमाने पर होने चाहिए। मैनग्रोव एरिया को अतिक्रमण से बचाया जाना चाहिए। कुल मिलाकर भारत में घने जंगलों की सुरक्षा और विस्तार पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
जंगल के कटने से जल की कमी, तापमान में भारी वृद्धि और मरुभूमि के विस्तार जैसी समस्याएं गहराती जा रही हैं(साभार दैनिक जागरण )

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *