एनके सिंह , (लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

मोदी सरकार ने अपने आखिरी पूर्ण बजट में शहरी मध्यम एवं उच्च वर्ग की अपेक्षाओं को लगभग नजरअंदाज करते हुए ग्रामीण भारत पर अपना दांव लगाया है। शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजरात चुनाव के बाद यह अहसास हुआ कि किसानों को नाराज कर वह आगामी आम चुनाव की वैतरणी पर नहीं कर पाएंगे। इसकी एक झलक राजस्थान में दो लोकसभा एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजों से भी मिली। भाजपा की ये तीनों सीटें कांग्रेस ने छीन लीं। अगर उपचुनाव परिणाम बजट के दिन नहीं आए होते तो शायद देश उन्हीं पर चर्चा कर रहा होता। जो भी हो, इस वक्त आम बजट पर देशभर में दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। शहरी मध्यम एवं उच्च वर्ग जहां बजट को लेकर निराशा जता रहा है, वहीं ग्रामीण भारत को एक आस नजर आ रही है। बजट का गहन विश्लेषण करने से यह स्पष्ट होता है कि उसमें जो घोषणाएं की गई हैं, वे ग्रामीण भारत के लिए पिछले कई दशकों से अपेक्षित थीं। कृषि के लिए यह क्रांतिकारी बजट साबित हो सकता है, लेकिन तभी जब इसमें जो वादे किए गए हैं, उन्हें सही से पूरा किया जाए। किसानों के उत्पाद की उचित मूल्य पर खरीद की सरकारी प्रतिबद्धता और 10 करोड़ गरीब परिवारों यानी करीब 50 करोड लोगों को पांच लाख का स्वास्थ्य बीमा सामाजिक सुरक्षा की दिशा में पहली जरूरत थी। कहना न होगा कि इन 10 करोड़ गरीब परिवारों में किसान, मजदूर और निम्न आय वर्ग का बड़ा तबका शामिल होगा।

लेकिन यहां एक पेंच है। सरकार ने किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का जो वादा इस बजट में किया है, वह खरीफ की फसल से लागू होगा और इस साल खरीफ की उपज की खरीददारी लगभग खत्म हो चुकी है। लिहाजा यह योजना अगली खरीफ से ही लागू हो सकेगी यानी आगामी नवंबर के आसपास। अगर मोदी सरकार समय से पहले चुनाव कराती है तो फिर वह अपना वादा आखिर कब पूरा करेगी? जो सरकार की मंशा में विश्वास रखते हैं, उनके अनुसार कोई भी सरकार जो चुनाव जीतना चाहती है, वह किसानों को नाराज करने का जोखिम मोल नहीं ले सकती। अगर सरकार आगामी रबी की फसल के दौरान भी अपने वादे को पूरा करती है, तो एक अनुमान के तहत इस पर कुल खर्च लगभग 60 हजार करोड़ रुपए आएगा। चुनाव पूर्व ऐसा खर्च किसी सरकार के लिए कोई बहुत मुश्किल काम नहीं होना चाहिए। रबी की फसल की खरीददारी आगामी अप्रैल माह से शुरू होनी है और कोई भी वादाखिलाफी सरकार को बेहद महंगी पड़ सकती है। हालात ऐसे हैं कि मोदी सरकार किसानों की अनदेखी शायद ही कर पाए।

यह उल्लेखनीय है कि बजट से पहले सामने आए आर्थिक सर्वेक्षण में साफ तौर पर कहा गया है कि बीते चार सालों से किसानों की वास्तविक आय नहीं बढ़ी है। अच्छा होता कि सरकार को इसका भान पहले ही हो गया होता। पहली बार किसानों के उत्पाद के लिए लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने का संकल्प कृषि और किसानों की बेहतरी की दिशा में एक बड़ा कदम है। ध्यान रहे कि ऐसा वादा 2014 के चुनाव के घोषणापत्र में भी किया गया था, लेकिन अगले ही वर्ष सरकार इससे मुकर गई और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट में अपने हलफनामे में सरकारी पक्ष ने अपनी असमर्थता जता दी। जाहिर है कि विपक्षी दलों ने इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया और किसान भी सशंकित हुए। अगर मोदी सरकार 2014 में ही किसानों को लागत का डेढ़ गुना मूल्य देने को तैयार हो गई होती तो शायद उसे किसानों की नाराजगी का सामना नहीं करना पड़ता।यही नहीं, तब किसानों की बेचैनी इतनी अधिक नहीं बढ़ी होती और शायद उद्योग जगत को मंदी जैसी हालत से भी दो-चार नहीं होना पड़ता। चूंकि सरकार एक बार वादाखिलाफी कर चुकी है, इसलिए उसे इस बार बहुत सतर्कता बरतनी होगी और यह सुनिश्चित करना होगा कि किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य वास्तव में मिले।

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